Saturday, June 15, 2013

कामरेड, कथाकार और आलोचक

सुभाष गौतम
कथाकार अरूण प्रकाश का जन्म बिहार के बेगूसराय जिले में निपनियां गांव में 22 फरवरी 1948 में हुआ था। माता का नाम कुंती देवी, जो पेशे से शिक्षिका थी, पिता रूद्रनारायण झा एक राजनीतिक व्यक्ति थे। अरूण प्रकाश आठ वर्ष के थे तो माता कुंती देवी का देहावसान हो गया था। उनके पिता सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव थे और 1968 में राज्यसभा सांसद हुए। अरूण प्रकाश की प्रारंभिक शिक्षा मंझौल से हुई थी। ग्रेजुएशन करने के लिए शाहपुर-पटोरी के आचार्य नरेन्द्रदेव महाविद्यालय में दाखिला लिए थे। पर बिमार होने के कारण पढाई पूरी नहीं कर पाए और बीच में ही पढ़ाई छोडनी पडी, फिर बेगूसराय के जी.डी. काॅलेज में केमेस्ट्री आॅनर्स में दाखिला लिया पर याहां भी सफलता हाथ नही लगी। सन् 1968 में पूसा इंस्टीट् यूट आॅफ मैनेजमेंट, दिल्ली से उन्होने होटल मैंनेजमेंट (स्नातक) में दाखिला लिया। उसी बीच उनके पिता की हत्या हो गई और अरूण प्रकाश पर संकट का पहाड टूट पडा। एक तरफ घर की जिम्मेदारी तो दुसरी तरफ कैरियर था। लेकिन यह संकट कुछ की समय में दूर हो गया जब उनहे नौकरी मिली। 1971 में होटल मैंनेजमेंट की पढ़ाई पूरी करेने के बाद दिल्ली स्थित होटल क्लेरिजेज में पहली नौकरी बेयरे के रूप में शुरू किया जिसे तीन माह में छोड कर लोदी होटल चले गए वहा भी बेयरे का काम किया। 1972 में पटना के  चले गये जहां होटल नटराज में अस्टिेंट मैंनेजर बन गये और वेटर की जिंदगी से मुक्ति मिल गई। पुनः एक साल वाद 1973 में बरौनी फर्टिलाइजर में असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी मिल गई। मैनेजर होने के साथ बरौनी में सी. पी. आई. के मजदूर संगठन एटक के साथ मिलकर कुछ दिन बीड़ी मजदूरांे, कारखाना मजदूरों के लिए काम किया। 1986 में हिंदुस्तान फर्टिलाइजर में हिन्दी अधिकारी नियुक्त होर चैदह वर्ष वाद फिर दिल्ली आना हुआ और दिल्ली की संस्कृति में अरूण प्रकाश रच-बस गये। 1990 में हिंदुस्तान फर्टिलाइजर से वीआरएस लेकर पत्रकारिता के क्षेत्र में कूद पडे़ और दैनिक जागरण से एक पत्रकार के रूप में शुभरंभ किया, पर एक वर्ष में ही वाहा से नौकरी छोड दी और 1991 में राष्ट्रीय सहारा में कुछ माह नौकरी की फिर 1992-93 में समय-सूत्रधार पाक्षिक में वरिष्ठ सहायक संपादक रहे। 1993 से 2008 तक फ्रिलांसिग करते रहे यहीं नहीं वे जीवन के आखिरी दिनों में भी फ्रिलांसिग किया। 2004 से 2008 तक का साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के संपादक का सफर तय किया। 
अरूण प्रकाश ने लेखन की शुरूआत अंग्रेजी कविता से की थी, एक-दो कविताएं पटना के एक अंग्रेजी पत्र में प्रकाशित भी हुईं थी। उनका ये भी माना था कि कविता में वो सारी बाते नहीं कह सकते कहानी के माध्यम से वो सारी बाते कही जा सकती हैं। 1978 में ‘रक्त के बारे में’ पहली कविता पुस्तिका प्रकाशित हुई जो आखिरी दिनों में उनके बिस्तर पर तकिए के निचे देखने को मील जाती थी। उनकी पहली कहानी ‘छाला’ 1971 में ‘कहानीकार’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई जिसके लिए उन्हे 30 रूपए का पारिश्रमिक मनिआॅर्डर द्वार प्राप्त हुआ था। ‘छाला’ कहानी के प्रकाशित होने के बाद वे इतना उत्साहित हुए कि उसी वर्ष दो और कहानियां लिख ‘सनडे’ और ‘दोनांे तरफ’। ‘छाला’ कहानी का पात्र एक दफतर में काम करेने वाला निम्न दर्जे का कर्मचारी है। जो हमेशा अभाव में रहता है। सस्ते जूते पहनने के कारण उसके पाव में छाला पड जाता है। जिसके कारण वो पीडित है पर पदोन्नती का समाचार पाकर सारे दर्द भूल जाता है, और उस दिन वह दोगूना काम करदेता है। ‘सनडे’ कहानी असफलता और सफलता की दौड में मानवीय रिस्तों के खत्म होने की संभावनाओं की कहानी है। यह कहानी दो बेरोजगार दोस्त की है जब दोनों बेरोजगार अवस्था में रहते है तो हीरा-मोती की तरह एक दुसरे से गुथे रहते है, पर उनमें से एक दोस्त जब सफल हो जाता है। सफल होने वाला दोस्त कहता है कि अब तो सनडे को ही मिलाना होगा। इस कहानी में इन्हीं दो दोस्तों की समस्याओं और पीड़ा को उजागर किया गया है। इनमें से सबसे मजबुत कहानी ‘दोनों तरफ’ है जो पुरूष के नजर में स्त्री विषय को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानी है। इन कहानियों में पूर्वी प्रदेश का पिछड़ा समाज खास कर साधारण-जन का प्रतिनिधत्व करते हैं। 1972 में दो कहानियां ‘सुनबहरी’ और ‘कुबड़े पेड’ प्रकाशित हुईं। सुनबहरी कहानी ठेठ गांव की पृष्ठभूमि से जुडी हुई कहानी है। इस कहानी में स्त्रीविमर्श का सशक्त रूप देखने को मिलता है। काहानी का पात्र ‘भजन’ रेलवे में पहरादार के रूप में काम करने वाला व्यक्ति है, जिसकी पगार 75 रूपए है। भजन की पगार इतनी कम और परिवार का खर्च इतना अधिक है वो हमेशा अभाव में रहता है। एक तरह से उसकी हालत नंगा क्या नहाए गा और क्या निचोडेगा की होती है। उसका पिता बिमार है जिसके दवा-दारू की नहीं जुटा पता उपर से उसकी मां अपने सूनबहरी (हाथ पाव सून्न होना) के दवा-दारू के लिए घर में तांडव मचा रखी है। वहीं अरूण प्रकाश ‘कुबड़े पेड’ कहानी लिखते समय गांव की पृष्ठभूमि से उठकर एकाएक दिल्ली शहर के करोल बाग पहुच जाते है। यह कहानी दिल्ली के करोल बाग स्थित एक दाम्पति की है, उनका जीवन पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने में गुजर जाता है। कभी अपने बारे में गहराई से नही सोचते बस वो बडे़ होने का फर्ज निभाते रहते हैं। धीरे-धीरे उनके जीवन को निरसता ने घेर तेता है। सहज होने का प्रयास भी वे करते हैं मगर उनका जीवन उस कुबडे पेड़ की भांति है जिसमें फुनगियां तो निकल सकती है, मगर कोई बहुत बड़ा बदलाव नही आ सकता है। वे कुबडे पेड़ सरीके जीवन जीने केलिए अभिशप्त  हैं। इस कहानी में शहरी जीवन की सच्च देखने मिलता है।
उनकी काहानियों में जादूई यर्थाथ नहीं है वे वास्तविक समाज का दर्शन कराते है।  सच और सच्च के आसपस की कहानी को लिखते है। उनकी कहानीयों में किसी खास जाती का नहीं बल्कि पिछडे हुए समाज के लोगों प्रतिनिधत्व देखने को मिलता है। उनकी कहानियां 80 के दशक की देश काल परिस्थियों का साक्षात्कार करती हैं। अरूण प्रकाश जिन पात्रों की कहानी लिखते है वे हमें समाज में किसी न किसी रूप में देखने को मिल जाते है। उनकी कहानियों में यर्थाथ है वास्तविकता है। काल्पनिक आधार पर काहानियां नहीं लिखते थे। 1986 में प्रकाशित कहानी ‘‘बेला एक्का लौट रहीं है’’ एक आदिवासी महिला के संघर्ष की कहानी है, स्त्री समाज में हमेशा से ही पीडि़त व शोषित रही है। वह अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक मुश्किले उठाती है। वह सम्मान से जीना चाहती है। वह आत्मनिर्भर होना चाहती है। वह पढ़ना चाहती है, मगर उसे अपने घर से ही विद्रोह का सामना करना पड़ता है। बोला एक्का भी अपनी शिक्षा के दौरनान पिता की उपेक्षा छेलती महिला है। आरक्षण हो या जातिगत आरक्षण वह अपने लिए सम्मान चाहती है। कहानी की पात्र बेला एक्का नौकरी करने बेगूसराय जातीं हैं तो अपनी नैतिकता को बचाने का हस संभव प्रयास करती हंै, मगर यह पुरूष प्रधान समाज की घृणित मानसिकता के चलते उसे नौकरी से इस्तिफा देना पड़ता है। शिक्षा के प्रति मिस बेला एक्का के पिता की उदासीनात से यह बात खुलकर सामने आती है कि किस प्रकार दलित, पिछणी जाति के लोगों को कदम-कदम पर अपमान का घंूट पीना पड़ता है। वे कितने ही पढ़ लिख जाए, अधिकारी बन जाए, जति का दंश उन्हे हर हाल में झेलना पड़ता है। उन्हें हर पल अपने सम्मान व स्वभिमान के साथ समझौता करना पडता है। जो नहीं समझौता करते उन्हें पद छोडना पडता है। इस कहानि में बेला एक्का समझौता नहीं करती और अपने सम्मान व स्वाभिमान को बचाने के लिए नौकरी छोड़ देती है। इस कहानी में स्त्री अस्मिता के प्रश्न को जोरदार तरीके से उठाया है।
अरूण प्रकाश की सबसे चर्चीत कहानी 1985 में प्रकाशित ‘‘भैया एक्सप्रेस’ है। यह कहानी पूरबिया लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। भैया एक्सप्रेस बिहार और पूर्वी-उत्तर प्रदेश की कहानी है। इस क्षेत्र के लोग ज्यादातर अपनी रोजी-रोटी की तलाश में पंजाब प्रेदश में काम करने जाते है, इन प्रदेशों में काम करने के पीछे एक और महत्वपूर्ण बात कि यहां नगद मजूरी मीलती है। इस कहानी में रामदेव नामक अपने भाई को खोजने जाता है तो पंजाब गया रहा है। रामदेव जिस समय पंजाब जाता है उस समय पंजाब में अशांति का वतावरण रहता है। यह कहानी एक पूरबीयां भैया/मजूर का यात्रा वृतांत है। 1988 में ‘जल-प्रान्तर’ कहानी आई जो रिपोर्तार्ज की शैली में लिखी गई है। बाढ़ का इतना सुक्षम और हृदय बिदारक वर्णन अभी तक किसी ने नहीं किया है। इस कहानी को पढते हुए लगता है जैसे कि पाठक स्वयं बाढ में घिर गया है। इस कहानी में अरूण प्रकाश की वाम विचाधारा की भी सोंधी महक भी मिहलती है। उनकी सबसे अंतिम दो कहानी ‘कम गोबर’ और ‘स्वर्ग का पता’ ‘‘बया’’ पत्रिका के अप्रैल-जून 2012 के बिषेश अंक में प्रकाशित हुई। कम गोबर कहानी दो राजपूत भाईयों के बिच जमीन बटवारे और प्रगति कि कहानी है। दो भाईयों में एक दिवाकर पढ़ा-लिखा और दूसरा केदार कम पढ़ा-लिखा इंशान है। पढ़ा-लिखा दिवाकर इस घमण्ड में किसानी का काम नहीं करता क्यों कि उसे लगता कि मैं तो पढ़ा-लिखा हूं, यह काम अनपढ़ों का है। केदार इसके बिपरीत है, वह खेती-बाड़ी का सारा काम स्वयं करता है और प्रगति कर जाता है। यह कहानी हरिशंकर परसाई की शैली में लिखी गई कहानी है। जिसमें व्यंग्य और प्रहसन के माध्यम से गांव के दो परिवारों की स्थिति को दिखाया है। ‘स्वर्ग का पता’ कहानी मानव विकास की चरम अवस्था को ध्यान में रख कर लिखी गई कहानी है। इस कहानी में यह दिखाया गया है कि मानव जब सभी भौतिक सुख-सुविधाओं को भोग लेगा, विकास की सारी यात्राएं पूरी कर लेगा तो फिर क्या बचे गा। इन्ही सवालों को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानी है-‘‘मोक्ष और स्वर्ग की बात सुन-सुनकर मांगुर को लगता कि वह भी जल्दी स्वर्ग पहुंच जाता तो अच्छा था। लेकिन मांगुर मर नहीं रहा था। वह अपना भोजन अब भी जुटा लेता था। तैरने से नियमित व्यायाम हो जाता था। इसलिए मांगुर का स्वास्थ्य अच्छा था। एक बात और थी कि मांगुर को मरना नहीं आता था अब बगै़र मरे तो स्वर्ग जाया नहीं जा सकता था....’’ इस कहानी में दो दोस्त होते है झिंगुर और मांगुर, झिंगुर मर जाता है। पृथ्वी पर यह अफवाह रहती है कि स्वर्ग में बहुत मजे हैं। वहा कुछ करना नहीं पडता सोचते ही सब सामने हाजिर हो जाता है। इसी लालच में मांगुर भी कैसे-कैसे जुगाड से मर जाता है पर जब वह मृत लोक में मृत लोगों से मिलता है तो उसे बहुत निराशा होती है। क्यों कि मरे हुए सभी लोग स्वर्ग का पता ढूंढ रहें है। फिर वो निराश होकर पृथ्वी पर आना चाहता है। अरूण प्रकाश ने कुल मिलाकर लगभग 40 कहानियां लिखीं हैं।
 अरूण प्रकाश क्या साहित्य, क्या पत्रकारिता, क्या फिल्म हर फिल्ड के एक धुरंधर खिलाड़ी थे, वे परफेक्सन (संपूर्णता) पर बहुत जोर देते थे। महत्वपूर्ण टीवी सिरियल ‘युग’ और ‘चंद्रकांता’ के लिए पटकथा लेखन का काम किया। उनके द्वारा लिखी गई कहानी-संग्रहः भैया एक्सप्रेस (1992), जल-प्रांतर (1994), लाखों के बोल सहे (1995), मँझधार किनारे (1996), विषम राग (2003), स्वपन-घर (2006) प्रकाशित हैं। उनका उपन्यास कोंपल-कथा (1991) में प्रकाशित है। अरूण प्रकाश कथाकार, उपन्यासकार, कवि, अनुवादक, पटकथा-लेखक होने के साथ-साथ एक बहुत ही सुक्षम दृष्टि वाले आलोचक भी थे। इस बात का प्रमाण आप को उनकी 2012 में प्रकाशित पुस्तक ‘‘गद्य की पहचान’’ से मीलती है। यह अपने ढंग की आलोचना की मात्र पुस्तक है जिसमें जेनर और फार्म को लेकर अरूण प्रकाश में अदभूत काम किया है। इसके आलावा एक आलोचाना की पुस्तक ‘‘उपन्यास के रंग’’ के साथ-साथ अन्य पुस्तकें प्रकाशनाधीन है। अरूण प्रकाश पिछले चार साल से श्वास की बिमारी से ग्रस्त जो 18 जून 2012 को भैया एक्सप्रेस के लेखक भैया (पूरबिया) चले गये।

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