विद्रोह, समर्पण और समाज
सुभाष कुमार गौतम
वरिष्ठ इतिहासकार सुधीर चन्द्र की पुस्तक ‘‘रख्माबाई स्त्री अधिकार और कानून’’ गुलाम भारत के समय की एक ऐतिहासिक घटना का विश्लेषण है यह बालविवाह जैसी सामाजिक कुरितियों के खिलाफ एक स्त्री के विद्रोह की कहानी है । सन् 1984 में रख्माबाई नामक स्त्री ने अपने पति के साथ रहने से इसलिए इन्कार कर दिया था क्योकि जिस समय उनकी शादी हुई उस समय वो अपरिपक्व थीं, जिसे वह विवाह नहीं मानती थी। ’‘रख्माबाई में एक साथ लक्षित ‘विद्रोह’ और ‘समर्पण’ में कानून, जनमानस और सामाजिक बदलाव के बीच सतत चलता कार्य-कारण सम्बंध देखा जा सकता है।’’ यह पुस्तक इन्हीं अनसुलझे सवालों की गुत्थी को समझने का माध्यम है। वहीं रख्माबाई और दादाजी भीकाजी के वैवाहिक जीवन के विवाद का लेखक ने बहुत बारीकी से समाजशास्त्रीय अध्ययन किया है। जब कोई व्यक्ति शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है तो उसे उसकी कीमत चुकानी पडती है। स्त्री मुक्ति के इस संघर्ष में भी यही हुआ, बाल बिवाह जैसी कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाने वाली रख्माबाई को आहुति देनी पडी। वैसे तो यह विद्रोह शुरूआती दौर में सिर्फ रख्माबाई की अपनी समस्या से उपजा विद्रोह था पर धीरे धीरे वह पूरे हिन्दू समाज तथा अन्य समाज की स्त्रीयो से जुडे प्रश्न के रूप में सामने आया। रख्माबाई के मुकदमे में इतने पेंच थे कि वह दिन प्रति-दिन उलझता चला गया। लेखक देशी परम्पराओं और उपनिवेशीय कानून-व्यवस्था के संयुक्त दमन के विरोध में रख्माबाई के संकल्प को देखते है। जिस प्रकार समाज के संवेदनशील व्यक्ति को संवेदनशीलता की कीमत चुकानी पडती है। रख्माबाई ने जो भी कीमत चुकाई उसका आगे चल कर लाखों करोडों स्त्रीयों को लाभ मिला।
इस पुस्तक में रख्माबाई का कम उनके और उनके पति दादाजी भीकाजी के बीच मुकदमे से जुडे सवालों का जिक्र अधिक किया गया है। आखिर रख्माबाई ने यह असाधारण विद्रोह क्यों किया इस प्रश्न पर विचार करने के लिए यह पुस्तक हमे विवश करती है। एक स्त्री होने के नाते उसे जिस प्रकार के कष्टों का सामना करना पडा था वो कितना असहनीय था, अगर उनके सौतेले पिता और नाना साथ न देते तो क्या हस्र हुआ होता। पति से अलग होने के बावजूद रख्माबाई अपने तथाकथित पति की मृत्यु के पश्चात एक विधवा का जीवन जीने लगती हंै। लेखक चुंकी गांधी दर्शन से प्रभावित व्यक्ति हैं इस लिए इस घटना को अपने उपसंहार में राम-राज से जोड कर देखते है, जो बात पाठक को खटक सकती है। रामायण की घटना का जिक्र करे तो हम देखते है कि सीता के समर्पण और त्याग अनदेखा करते हुए राम समाज के खातिर सीता को नहीं अपनाते है। रख्माबाई का विवाद उसे ठीक विपरित था। रख्माबाई का पति उसे जब अपने साथ ले जाना चाहता है उस समय रख्माबाई विद्रोह करती है और उसके साथ रहने से माना कर देती पर सवाल यह है कि आखिर उसकी मृत्यु के बाद वो विधवा का जीवन क्यो जीती है ? आखिर रख्माबाई ने पुनः विवाह क्यों नहीं किया? वहीं दूसरी ओर दादाजी भीकाजी ने समझौते के बाद एक दूसरी स्त्री से विवाह करने में जरा भी संकोच नहीं किया। इस पूरे प्रकरण को देखकर लेखक यह महसूस करते हैं कि कानून के सहारे सामाजिक समस्याएं नहीं सुलझ सकती। खास कर स्त्री पुरूष विवाद। लेखक का इशारा है कि सामाजिक समस्याओं का निदान हमें समाज में ही ढूंढना होगा। तथ्यों से भरपूर यह पुस्तक स्त्री विमर्शकारों के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी। वैसे मूल पुस्तक अंग्रेजी में है, यह हिन्दी अनुवाद है।
पुस्तक- रख्माबाई स्त्री अधिकार और कानून
लेखक- सुधीर चन्द्र
अईएसबीएन-978-81-267-2337-9
पेज-223
मूल्य- 400
प्रकाशन-राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
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