जहाँ बाँस फूलते हैं: जनजातीय संघर्ष और विद्रोह
सुभाष कुमार गौतम
भारतीय इतिहास में यह उल्लेख मिलता है कि आज़ादी की पहली लडाई अंग्रेजों से आदिवासियों ने लड़ी थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उम्मीद की गई थी कि अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की शुरूआत करने वाले आदिवासियों की स्थिति में काफी परिवर्तन आएगा। पर हुआ ठीक इसके उल्टा उनके इतिहास को भूला कर उन्हें विकास की मुख्यधारा से वंचित कर दिया गया। जिसकों लेकर आदिवासियों में इस असंतोष के विरोध में प्रतिरोध के स्वर बुलंद होते रहें। यह असंतोष कभी नक्सलवाद तो कभी माओवाद जैसे विद्रोह के रूप में दिखें। पूर्वोत्तर भारत में यह असंतोष नागा विद्रोह और मिजों विद्रोह के रूप में उभर कर सामने आया।
श्रीप्रकाश मिश्र का उपन्यास ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ का विषय 1968 में लालडेंगा के विद्रोह पर केन्द्रीत है। अनुभव एवं स्मृतियों के अधार पर लिखा गया यह उपन्यास बहुत ही दिलचस्प है। इस उपन्यास की शुरूआत ईसाई उत्सव से शुरू होती है और अंत इसके ठीक विपरित मिजो विद्रोह में मारे गये विद्रोहियों के शोक से होता है। मिजोरम में मिजों जनजातियों में यह मान्यता रही है कि मिजोरम में जब बाँस फूलते हैं तो वह अकाल पडने का संकेत होता है। कुछ लोगों में यह भी मान्यता है कि मिजोरम में बाँस फूलते हैं तो उस बाँस के फूल को चूहे खाते हैं और उनसे बहुत सारे चूहें पैदा होते हंै, जो वहां की फसलों को नष्ट कर देते है। ‘‘पूर्वोत्तर में ज़मीन पर जो कुछ भी हैं उसमें सबसे अधिक बाँस और सुपारी दिखाई देते हैं। बाँस यहाँ की जिं़दगी में, शरीर में खून ले जाने वाली धमनियों की तरह शामिल है। मेघालय में सिंचाई की नालियों की तरह, मिजोरम के सुदूर गाँवों में बरसाती पानी को घर तक लाने वाली पाइप लाइन, नागालैंड में चाकू की तरह और कई इलाकों में तो थाली-कटोरी की भी तहर इस्तेमाल किया जाता है। उसके फूलों के विध्वंस की ताक़त भयानक है। यह बजती हुई बाँसुरी के अचानक किसी स्वर पर गरदन उतारने वाली तलवार में बदल जाने जैसा अजूबा लगता है।’’1
मिजोरम का प्रमुख उत्पाद बाँस है, बाँस फूलने की परिघटना को अकाल की सूचना से जोड़ कर देखा जाता है। इसके लिए मिजो में भाषा में ‘माउटम’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘‘ये फूल बिरले आते हैं लेकिन जब आते हैं तो प्रकृति नया असंतुलन पैदा करती है। चूहे इन फूलों को खाते हैं जिससे उनकी प्रजनन शक्ति असामान्य ढंग से बढ़ जाती हैं। लाखों की संख्या में पैदा हुए चूहे खेतों की फसलें, घरों में रखा अनाज, फल, सब्जियाँ समेत जो सामने आता है सब चट कर जाते हैं। साल बीतते-बीतते अकाल पड़ जाता है। आदिवासी बूढ़ों का कहना था कि अगले तीन साल में इस इलाके में ज्यादातर बाँस की कोठियों में फूल आएंगें। उससे पहले अगर सारे बाँस जला नहीं दिए जाते तो तबाही तय है।’’2
इस प्रकार मिजों विद्रोह के प्रमुख कारणों में बाँस के फूलने से आए दूर्भिक्ष भी रहा होगा। उसके साथ एक और कारण मिजोरम के प्रति उपेक्षा का भाव था। कुछ लोग इसकी चर्चा ईसाई विद्रोह के नाम से करते है। जब बात हो रही हो मिजों विद्रोह की तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘आदिवासी असंतोष के प्रमुख कारण आर्थिक और सामाजिक रहे हैं। ईसाई मिशनरियों तथा धर्म परिवर्तन की घटनाएं भी एक कारण रहे है। बाहरी लोगों ने इनके जीवन और जीवनपद्धति तथा इनकी परंपराओं में घुसपैठ की, इन आदिवासियों ने हथियार उठा लिए। जब-जब इनका दमन और शोषण हुआ ये चुप नही रहे। इनकी मजबूरियों का फायदा उठाने की हर कोशिश का उन्होनें विरोध किया।’’3 श्री प्रकाश मिश्र के उपन्यास ‘जहाँ बाँस फूलते है’ आदिवासी असंतोंष से उपजे मिजो विद्रोह की पृष्ठभूमि को समझने और जानने में सहायक सिद्ध होता है। रामचंद्र शुक्ल ने अपने एक लेख ‘उपन्यास’ में लिखा ‘‘बहुत से लोग उपन्यास का आधार कल्पना बतलाते हैं। पर उत्कृष्ट उपन्यासों का आधार शक्ति है न कि केवल कल्पना’’ आगे अनुमान के साथ यथार्थ का संबंध स्पष्ट करते हुए ‘‘ऐतिहासिक उपन्यास अनूमानमूलक और सत्य हैं। उच्च श्रेणी के उपन्यासों में वर्णित छोटी-छोटी घटनाओं पर यदि विचार किया जाए तो जान पडे़गा कि वे यथार्थ में सृष्टि के असंख्य और अपरिमित व्यापारों से छंटे हुए नमूने हैं।’’4 श्रीप्रकाश मिश्र अपने उपन्यास के प्राक्कथन अंश में लिखते हंै कि ‘‘यह उपन्यास ऐतिहासिक नहीं है। कहीं इक्का-दुक्का वास्तविक व्यक्तियों के नाम आए भी है तो कथा को विश्वसनीय बनाने के लिए। अगर किसी के जीवन के टुकड़े से कोई अंश इत्तेफाक करता मिलेगा तो सिर्फ इस लिए कि कल्पना की दिवार कहीं-न-कहीं यथार्थ की बुनियाद पर ही बनती है। फिर भी यह उपन्यास आम पाठक को पूर्वोत्तर भारत की समस्या समझने की खासी सामाग्री देगा।’’ इस प्रकार ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ उपन्यास कल्पना की जमीन पर यर्थाथ की इमारत खडा करने की एक कोशिश मात्र है। जो मिजो विद्रोह की समस्या और सरकार के रहस्यों को उदघाटित करने का प्रयास मात्र है। यह उपन्यास उन रहस्यों पर से पर्दा उठाने का काम करता है जो मिजो समस्या और विद्रोह के कारण बने। पूर्वोत्तर भारत के विषय में हिन्दी में की गई लगभग सभी रचनाएँ चाहे वह उपन्यास हो या यात्रा विवरण या कथा सभी के विषयवस्तु ऐतिहासिक है।
मिजो विद्रोह से पहले नागा विद्रोह भारत की आजादी के बाद सन् 1947 में आरंभ हो गया था। जिस विद्रोह को सन् 1997 में करीब 50 दौर की वर्ता के बाद संघर्षविराम दिया गया। इस पर सहमति गृहमंत्रालय के हस्तक्षेप से बनी। मिजोरम के पडोस में एक तरफ नागा विद्रोह चल ही रहा था, इधर लालडेंगा ने मौके का सही फायदा उठाया मिजो विद्रोह की शुरूआत कर दी। ‘‘सन् 1959 में बाँस के फूल खाकर उन्मत्त चूहों ने खेतों, जंगलों, बस्तियों पर धावा बोल दिया, मौतम (अकाल) की नौबत आ गई। मिजो कछार के गांवों की तरफ़ भागने लगे लेकिन स्थानीय आबादी और असम पुलिस ने वापस ठेल दिया। मिजों नेताओं ने असम सरकार से गुहार लगाई। जब तक प्रशासनिक मशीनरी हरकत में आती वहां अगले पचीस साल तक चलने वाले रक्तपात की पुख्ता नींव पड़ चुकी थी। सरकार से निराश लोगों ने आपातकालीन संगठन बनाए। इन्हीं में से एक मिजो फेमाइन फ्रंट (एमएफएफ) था जिसे सेना में हवलदार रैंक के क्लर्क रहे लालडेंगा ने बनाया था। पूर्व सैनिकों और युवा वालंटियरों को एक नेटवर्क तैयार कर लालडेंगा ने दूरदराज के गांवों तक अनाज भेजना शुरू किया। कभी भारत की फ़ौज में रहे रिटायर्ड बूढ़े रसद के साथ एक संदेश भी ले जाते थे, ‘दिल्ली और असम की सरकारों को भूख से मरते मिजो लोगों की परवाह नहीं है इस लिए अब अलग देश के लिए लड़ाई छेड़ने का वक्त आ गया है।’ एमएफएफ एक दिन मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) में बदल गया और अलग मिजो राष्ट्र मांगने लगा। भारत सरकार ने इसे एक क्लर्क की सनक समझा और दरकिनार कर दिया।’’ लालडेंगा और उनके लडके आईएसआई से संपर्क साध कर पूर्वी पाकिस्तान के चटगांव पहुंच गए। वहां से हथियार व गुरिल्ला युद्ध की टेªनिंग लेकर मीजोरम की पुलिस चैकियों पर हमले करने लगे। फरवरी 1966 की एक रात उन्होंने ‘आपरेशन जेरिको’ के जरिए आईजाल के रेडियो स्टेशन, टेªजरी और थाने पर कब्जा कर देश को स्तब्ध कर दिया। ईसाई आबादी का समर्थन पाने के लिए इस हमले को लालडेंगा ने धार्मिक रंग दे दिया। मिथकों के अनुसार हजरत जोशुआ ने परमपिता के आदेश पर जेरिको के किले की दिवारें गिरा दी थीं ताकि उनके भक्तों को अपना वतन मिल सके।’’
’’आईजाल पर कब्ज़ा पाने के लिए किसी उग्रवादी संगठन के खिलाफ एयर फोर्स के हेलीकाप्टरों का इस्तेमाल पहली बार किया गया था। अगले पाँच साल तक सेना प्रोटेक्टेड प्रोग्रेसिव विलेज(पीपीवी) बसाती रही और उग्रवादी छापामार युद्ध चलाते रहे। पीपीवी की तुलना यहां हिटलर के नाजी कैंपों से की जाती है। उग्रवादियों को जनता से काटने के लिए मिजोरम के सारे गाँव उजाड़ कर सड़कों के किनारे टीन की चादरों के नीचे बसाये गए जहाँ रात में कफ्र्यू होता था। बिना आई कार्ड दिखाए कोई आ-जा नहीं सकता था। सेना की सतत परपीड़क चैकसी के चलते निजी जिंदगी क्या होती है लोग भूल गए। दमन के कारण दिल्ली से मोहभंग और बढ़ा। उधर बर्मा के जंगलों में एमएनएफ की सात बटालियनें खड़ी हो चुकी थीं और लालडेंगा अब चीन जाकर चाऊ एन लाई से बात कर रहे थे। मीजो अपनी जाति को चीन की एक गुुफा चिनलुंग से उत्पन्न बताते हैं। सदियों के सफर में वे वहां से तिब्बत, बर्मा की हक्वांग और कबौ घाटियाँ पार करते हुए अठारहवीं सदी लुसाई हिल्स में आकर बसे थे।’’
‘‘कुछ साल बाद इन गांवों को दुबारा बसाया गया। 1985 में मिजोेरम को अलग राज्य बनाना पड़ा। 1987 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ समझौते के बाद लालडेंगा को कांग्रेस का मुख्यमंत्री हटाकर मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। गाँवों का सामुदायिक जीवन सेना नष्ट कर चुकी थी। अपराध बेतहाशा बढे़ और आधा मिजोरम उजड़ कर तीन शहरों में बस गया। मिजोरम में उग्रवादियों समेत लगभग हर आदमी को किसी न किसी प्रकार की क्षति का मुआवजा दिया गया जिसके नतीजे में भ्रष्टाचार मिजोरम का पर्याय बन गया है। अब आईजाल को भारत का सबसे मंहगा शहर माना जाता है जहाँ नशेडियों की तादाद बहुत ज्यादा है।’’5 ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ उपन्यास का समय लालडेंगा का विद्रोह हैं। वैसे तो इस उपन्यास में बहुत सारे पात्र हैं। पर मुख्य नायक रूआलखूमा है। जिसके बहादूरी की चर्चा मिजोरम में ही नहीं पडोसी देशों में भी होने लगी थी। रूआलखूमा ने मिजोरम में फौज के छक्के छुडा दिए थे। फौज उसके नाम से ही कांपती थी। रूआलखूमा के एन्काउंटर के समय जो संवाद हुआ उसमें वह कहता है कि ‘‘मेरा हाथ खोल दो’’ ‘‘मैं एक मुक्त प्राणी की तरह मरना चाहता हूं’’ इस प्रसंग से यह पता चलता है कि वह कितना बडा योद्धा था कि मरने के समय भी फौज के सामने झुका नहीं । ठीक उसी तरह संवाद करता है जैसे राजा पोरू ने सिकंदर से किया था।
आदिवासी समाज अपने रीति-रिवाजों और रहन-सहन को लेकर मुख्यधारा के समाज से काफी भिन्न रहा है। अलग-अलग क्षेत्रों के आदिवासी अपने-अपने स्वरूप में मुख्यधारा के समाज से भिन्न हैं। पर मुख्यधारा के समाज से उनकी अपनी अलग पहचान है। आदिवासी समाज को देखा जाए तो कहीं न कहीं सांस्कृतिक रूप से मुख्यधारा के समाज से मजबूत हैं। जहां तक दलितों से उनकी तुलना की बात करे तो दलित समाज से कही ज्यादा उनका अच्छा इतिहास रहा है। अपने समुदाय और क्षेत्र में उनकी अपनी राजसत्ता रही है। श्यामाचरण दुबे का कहना है कि ‘‘जनजातियों के सामाजिक संगठन के स्वभाव और उसकी जटिलता में बड़ी भिन्नता पायी जाती है। भारत में अधिकांश भागों में आदिवासी समूहों में पुरूष की प्रधानता है। वहीं दक्षिण और उत्तर पूर्व में स्त्री प्रधान समाज रहा है।’’ इस प्रकार हम दावे के साथ यह बात कह सकते है कि मुख्यधारा के समाज में जितनी दैयनिय स्थिती स्त्रीयों की रही है उसकी तुलना में आदिवासी समाज में स्त्रीयों की स्थिती काफी बेहतर रही है।
‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ उपन्यास में भी अगर देखा जाए तो स्त्री की आर्थिक और सामाजिक स्थिती अच्छी नहीं हंै। लेकिन उपन्यास में लेखक ने मिजों स्त्री पात्रों का जिस प्रकार से दिखाया है वो यर्थाथ के करीब नही दिखाई देता है। यह उपन्यास मिजोरम के स्त्री समाज को सम्मान की नजर से नहीं देखता जो उपन्यास की सबसे बड़ी कमी है। दरसल लेखक श्रीप्रकाश मिश्र मिजोरम में मिजो विद्रोह के समय सरकार के खुफिया विभाग के अंग रहे है। इस कारण भी ऐसा हो सकता है। उपन्यास को पढते समय जो बात खटकती है वो स्त्रियों के साथ किए गए दुष्कर्म का विवरण है। जिसकी चर्चा बहुत ही गंदे शब्दों में की गयी है। लेखक उत्तर-प्रदेश के देवरिया जिले के निवासी है इसका भी प्रभाव हो सकता है। देवरिया में खास कर सवर्ण समाज के लोग गैर सवर्ण समाज की स्त्रीयों के लिए जिस तरह की भाषा का प्रयोग राजमर्रा की जिन्दगी में करते है, ठीक उसी प्रकार श्रीप्रकाश मिश्र भी वैसे ही शब्दों का चयन करते है। साथ ही बहुत सारे भोजपूरी अपशब्दों का चयन करते हैं। उदाहरण के लिए ‘‘इस इलाके के इतिसाह में यह पहला मौका था कि साइलो की पंचायत में कोई गैर-साइलो सभा अध्यक्ष बना था और यह श्रेय गांव के बूढे़ जमदुग्गीलाल को मिला था। वह सताया हुआ आदमी था और सोच रहा था कि इस साइलो ने हमारी जाने कितनी विवाहिताओं, कुमारियों को ‘‘गाभिन’’ किया तो पंचायत नहीं बैठी और इसकी बीवी गाभिन हो गई तो पंचायत बैठी है।
पंचायत बोली ‘‘इसकी सजा दोला को दस कोड़े और सौ रूप्या है।’’
दोला बोला ‘‘मैं राल्ते कौम का हूँ। लुशेई कानून मुझ पर नहीं लगता।’’
अकसर ही चुप रहने वाले बूढ़े ने कहा, ‘‘जुर्म लुशेइयों के बीच करेगा, लुशेइयों के साथ करेगा और आइन बधारेगा रल्ते का? अरे दस कोड़े के साथ इसे बीस जूता भी मारना चाहिए और जूते का पैसा भी लेना चाहिए।’’... हर मासिक के बाद लुशेई लड़की पवित्र हो जाती है।’’6 इस प्रकार के शब्दों का चयन कर उपन्यासकार आखिर क्या कहना चाहता है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस उपन्यास में जगह जगह स्त्रियों के प्रसंग हैं जो मिजोरम की यथास्थिती से कम मेल खाते है। वहां की स्त्रीयों के बारे में कहा जाता है कि वो जिस भी पुरूष से प्रेम करतीं हैं उसके साथ जीवन भर निर्वाह करतीं है। आज जिस प्रकार पुलिस व सभ्य समाज के लोग यह आरोप लगातेे हंै कि नक्सली और माओवादी लोग अपने साथ रहने वाली स्त्रियों के साथ शारीरिक और दैहीक शोषण करते है। आरोप चाहे जो लगता रहा हो पर ज्यादा तर मामले में पुलिस और सेना के जवान देखे गए हैं। उदाहरण के लिए छत्तिसगढ की सोनी सोरी के मामले को देख सकते है। ‘‘कुछ दिन बाद कैंप से चलते वक्त खूमा ने कहा था, ‘‘कामी जब तक मैं नही आता हूं यही रहना। कैंप में थोडी दिक्कत तो होगी, किंतु कुछ दिनों में अभ्यसत हो जाओगी।’’
पर कामी को कोई दिक्कत न हुई। पूरा सेक्सन दिनभर उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटता और रात होते ही कोई न कोई उसे आगोश में ले लेता। सभी भूखे थे-कोई महीने से तो कोई वर्षों से। किंतु वे खाने पर एक साथ नहीं टूटते। अपनी बारी के दिन का इंतजार करते और मौका मिलने पर वे अपनी तृप्ति से अधिक कामी की तृप्ति का ख्याल रखते और मन ही मन खूमा को दुआ देते इस इंतजाम के लिए। और कामी रोज यही नापती की इस सुख की गहराई कितनी है? है भी कि नही ? उसे कैंप में मर्द बदलने की ऐसी आदत पड़ी कि जीवन भर वह किसी एक मर्द से संतुष्ट होकर न रह पाई।
और फिर हर मैथुन पर उसे झा (वाई) की याद आती। शुरू में याद आने पर उसके ललाट पर पसीना चुहचुहा आता, सांस तेज चलने लगती, आंखे मुंद जातीं मुठिठ्यां भिच जातीं और वह दांत पीसकर रह जाती।... अब मुठिठ्यां नहीं भिचती और एक दिन तो आंख मुंदने पर वह मुस्करा उठी। लगा झा यहीं कहीं खड़ा है । फिर जो भी मर्द उसके पास आया, झा ही लगा। और जब महीनों बाद खूमा कैंप लौटा तो उसने आंखें मटका कर पहला ही प्रश्न किया ‘‘झा को मार डाला’’
‘‘नहीं’’
खुमा एक कसूरवार सिपाही तक को नहीं मार पाया था। मारा था तो एक बेकसूर सीधे सादे वाई (गैर मिजो) को बड़ी कायरता से । उसका मन ग्लानि से भर गया।’’7 झा का कामी और जोरमी सें दोनों प्रेमप्रसंग चलता है। जोरमी झा के बच्चे की मां बनने वाली होती है। लेकिन झा मानने से इनकार कर देता है। इसी प्रसंग से क्रोधित हो कर कामी झा से बदला लेने की ठानती है और रूआलखूमा से उसकी हत्या करवाना चाहती है। इस संदर्भ को पढ कर मिजोरम का यह परिदृश्य उभरता है कि सरकार के आदमी और मिजों विद्रोही दोनों ने ही वहां की स्त्रीयों का भयानक शारीरिक शोषण किया। यह कितना सच है? क्या मिजो समाज पुलिसिया समाज कि तरह स्त्रियों के मामले में बर्बर है?
लेखक ने स्त्रियों के संदर्भ में एक प्रसंग में लिखा है -‘‘सभी लोग इकट्ठे हँस पड़े। कामी आपातमस्तक जल गई! आखि रवह जोवा से कम-से-कम 12 वर्ष बड़ी है। गाँव की सबसे सिनियर नुला है। उससे इस तरह की बात नही की जा सकती। वह दाँत पीस कर घूम गई। ‘‘गारत गिरे मुए पर। सिपाही अभी ही पकड़े ले जाएं। मन-ही-मन जोवा को कोसती वह दहलापकड़ खेलने बैठ गई। नुथलुई रौपारी अपने स्तनों और कूल्हों को एक साथ हिलाती हाथ चमकाकर बोली, ‘‘जोवा के आगोश में एक बार बैठ ही जा कामी, तुझे मेमने का मजा मिलेगा और जोवा को ‘‘बहिला’’ बूढ़ी भैंस का।’’8 इसी क्रम में एक और प्रसंग है - मीजो में बासा गांव में एक साइकिया नाम का आदमी रहता है। जोरमी बोली ‘‘छुटटा बैल की तरह सुबह ही सुबह क्यों घूमने लगे? भलाई इसी में है कि बासा में भी न रहों। कैंप में जाकर रहो।’’... उधर जोरमी भी गर्भ की बोझ से गहबर कांतिहीन हो गई थी।...जोरमी उसी स्वर में बोली सभी मुझे रंडी कहते है।9..उधर कामी को लेकर खूमा को डर हो जाता कै कि कामी कहीं वेश्या न बन जाए इसी डर से उसे डोपा वापस छोड जाता है। झा के गुनाह की सजा साइकिया को भूगतनी पडती है। जंगल से विद्रोही आकर सरेआम उसे गोली मार देते हैं। उपन्यास में कही तारतम्यता नहीं है। लेखक कहानी कहते कहते किसी और प्रसंग को छेड देता है। स्त्री को लेकर लेखक की यौन कुंठा और सवर्ण मानसिकता ने कन्टेन्ट को विकृत कर दिया है।
उपन्यास का अंत कुछ इस प्रकार होता है। मिजों विद्रोहियों की पराजय होती हैं, सरकार द्वारा शांति-वार्ता की चर्चा होती है लेकिन वह असफल हो जाती है। बहुत अधिक संख्या में विद्रोही मारे जाते है जो बच जाता है वो जंगलों में चला जाता है। माइकल का तबादला गोवा हो जाता है। डोपा में माइकल की पोस्ट-इनचार्ज के रूप में नियुक्ति हुई रहती है। पुई की मृत्यु के बाद पूरा गांव शोकाकुल हो जाता है। ठेकेदार कृष्णन कहता है कि गांव से संबंध सुधारने का बहुत अच्छा मौका है। मिजो विद्रोह में चर्च के पादरियों का हाथ होने की अशंका जताई जाती थी। चर्च की सह पर सी.आई.ए यहां सक्रिय थी। माइकल ही एक ऐसा व्यक्ति है जो इन परिस्थितियों से लड कर यहां का माहौल सुधार सकता था। उसके तबादले से शांति-प्रयास खटाई में पड़ जाते हैं। नयी लड़ाई शरू होने की आशंका बढ़ जाती हैं। माइकल डोपा में बड़ा लोकप्रिय हो गया था। उसके स्थानान्तरण से डोपा के लोग दुखी थे। उन्होंने उसे रोकना भी चाहा। माइकल जब विदा ले रहा होता हैं उस समय कामी ने रूआलखूमा की लिखी कविताओं की डायरी माइकल को देती है। माइकल उसे अपने साथ लेजाना चाहता हैं, किंतु कामी कहती है, ‘इस गांव को और इस जंगल को मेरी जरूरत है। मिजोरम को हमेशा ऐसा ही नहीं रहने देना है। उपन्यास में मिजों और भोजपूरी शब्दों का खूब प्रयोंग किया गया है। स्थानीय बोली-बानी आंचलिकता का सबसे मजबूत पक्ष है। आंचलिकता में लिखा गया उपन्यास तथ्यों से भरपूर है। कुल मिलाकर यह एक रोचक उपन्यास है।
संदर्भ-
1. अनिल यादव, वह भी कोई देस है महाराज, अंतिका प्रकाशन गाजियाबाद, 2012, पृष्ठ-47
2. वही, पृष्ठ-47
3. यशवंत कोठारी, आदिवासी असंतोष: कारण और निवारण, रचनाक्रम, मई 2010
4. गोपाल प्रधान, हिन्दी उपन्यासों में नार्थईस्ट, समकालीन जनमत, सितंबर 2007
5. अनिल यादव, वह भी कोई देस है महाराज, अंतिका प्रकाशन गाजियाबाद, 2012, पृष्ठ-47,48
6. श्रीप्रकाश मिश्र, जहाँ बाँस फूलते हैं, यस पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2011, पृष्ठ-70
7. वही, पृष्ठ-82, 83
8. वही, पृष्ठ-255
9. वही, पृष्ठ-86