Saturday, December 7, 2013

पत्रकारिता में हुए बदलाव को लेकर देशबंधु दैनिक के संपदाक व साहित्यकार ललित सुरजन से सुभाष गौतम की बातचीत। 
 प्र01- हिन्दी समाचार पत्रों पर उदारीकरण का प्रभाव एवं उसके पश्चात हिन्दी पत्रकारिता में आये बदलाव को आप कैसे देखते है ?
मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार के समय आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत हुई। यद्यपी इसकी हल्की शुरूआत राजीव गांधी की सरकार के समय में हो चुकी थी। आर्थिक उदारीकरण एक भ्रामक संज्ञा है। आर्थिक उदारीकरण एकाधिकारवाद की ओर लेजाता है। इसका मीडिया पर प्रभाव पडा, इसके समानान्तर संचार और मुद्रण का विकास भी हुआ। इन दोनों के परिणाम स्वरूप पत्रकारिता एक पूंजीसघन व्यापार बन गया। जब बडी मात्रा में पूंजी की जरूरत पड़ने लगी तो पत्रकारिता में स्वामित्व का चरित्र भी बदला जिसके चलते पत्रकारिता का स्वरूप पूरीतरह बदल गया।
 प्र02- उदारीकरण के पश्चात अखबार के चरित्र में जो दुष्परिणाम हमें देखने को मिल रहें हैं उसके लिए दोषी कौन ?
पूंजीे पत्रकारिता को संचालित करने लगी है। पत्रकारिता में जिसने पुंजी लगाई है उसको मुनाफा चाहिए। मुनाफा कमाने की चिंता में कुछ भी त्याज्य या निषेध नहीं रहा। प्राथमिक तौर पर तो मीडिया स्वामि हैं जो इसके लिए उत्तरदायी हैं लेकिन पत्रकारों की जो बिरादरी है उसे भी किसी सीमा तक दोषी मानता हूँ। मुझे कहते हुए अफसोस हो रहा है कि मीडिया मालिकों के साथ-साथ किसी सीमा तक पत्रकारों ने भी मूल्यों से किनारा कर लिया। उन्हें जब खडे होकर विरोध करना चाहिए था तब वे पूंजी के दबाव अथवा पूंजी के आकर्षण के सामने झूक गए। इसके अपवाद हैं लेकिन वह संख्या सिमित है और प्रभाव भी सिमित हैं।
 प्र03- उदारीकरण के दौर के बाद पाठक भी बढे़ अखबार भी बढे़ पर कंटेन्ट में बहुत कुछ नहीं है। इसका कारण क्या है ?
मेरी थोडी यहां पर असहमती है। हिंदी अथवा भाषाई पत्रकारिता में पाठक संख्या बढ़ने का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है वह सत्य से परे है। अखबार बढे हैं दस्तावेजों में ग्राहक संख्या और पाठक संख्या भी बढ़ी है लेकिन यह ग्राहक संख्या मार्केटिंग तकनीक से जुटाई गई है। इस लिए वास्तविकता से दूर है। मैं तो ग्राहक उसे मानता हूं जो अखबार की पूरी कीमत देकर खरीदने की इच्छा रखता है। यह पाठक संख्या भी सतही है जो पेज थ्री जैसी अवधारणओं से हासिल की गई है। ऐसे पाठक अखबार में सिर्फ अपना फोटों देखते हैं या अपने से संबंधित खबर देखते है। देश दुनिया की खबरों में उनकी दिलचस्पी नहीं है इस प्रवृत्ति के चलते कंटेन्ट या कहें कि विषयवस्तु की तरफ अब ध्यान नहीं दिया जाता। यह कटू सत्य है कि हम अब पाठकों को बहलाने मात्र का काम कर रहे है। सूचनाएं देना उसकी व्याख्या करना उसके माध्यम से लोक शिक्षण करना इन तीन बुनियादी उद्देश्यों को छोड अब पत्रकारिता मनोरंजन का माध्यम बन कर रह गई है। 
 प्र05- देशबन्धु अखबार विकास की खबरों को कितना महत्व देता है। हिन्दी के अन्य समाचार पत्रों में इसकी स्थिति क्या है ?
देशबंधु आज भी अपनी पुरानी रीति-नीति पर चल रहा है। संसाधनों के अभाव में हम उतना नहीं कर पा रहे है जितना चाहते है फिर भी आज हिन्दी में संभवतः मुद्दों की पत्रकारिता करने वाला देशबंधु ही है। आप चाहे तो मेरे इस दावे को खारिज कर सकते है। मैं दूसरे समाचारपत्रों पर क्या टिम्पणी करूं।
 प्र06- हिन्दी समाचार पत्रों में हासिये का समाज कहां है ?
हिन्दी समाचारपत्रों में हासिए के समाज के लिए लगभग नहीं के बराबर स्थान है। एक समय था जब अखबारों के बीच खबरों को लेकर होड होती थी। तब सभी अखबारों में जो भले ही संख्या में कम थे या प्रसार संख्या में कम थे विकास के प्रश्न पर रिपोर्टिंग की जाती थी संपादकीय लिखी जाती थी वह दौर बीत गया आज अखबार का पाठक और लक्ष्य शहरी अर्ध शहरी उच्च मध्यवर्ग है उसकी अहंकार जनित स्वपनों का वाहक बनकर रह गया है। आज के अखबारों के लिए वंचित समाज या हासिए का समाज नहीं है। जब कोई बडी दुर्घटना हो त्रासदी हो जिसे एक खौफनाक तस्वीर के रूप में बेचा जासके। हासिए के समाज के प्रति अखबारों की सहानुभूति पूरी तरह से समाप्त हो गई है। मैं जब हासिए की समाज की बात करता हूं, दलित, आदिवासी अन्यवंचित समूह इन सभी से है। इसमें किसान व मजदूर भी शामिल है। इनके लिए कल्याणकारी राज्य होने के नाते अरबों खरबों की योजनाएं बनती हैं किंतु उन पर अमल हो रहा है या नहीं इसका परिक्षण करने में आज की पत्रकारिता की कोई दिलचस्पी नहीं है। किसी योजना या कार्यक्रम में भ्रष्टाचार की बात उठे तो उसे इसलिए उछाला जाता है कि एक तो वह इसलिए की वह खबर बिकती है। दुसरे मीडिया में ऐसे लोग है जो ऐसे भ्रष्टाचार में खुद को शामिल करने का संदेश भेजना चाहते है।
मैं छत्तिसगढ में रहता हूं आप जानते हैं कि वहां तीस बरस से नक्सलवाद सक्रिय है। खासकर बस्तर में हमारा मीडिया नक्सलियों के खात्में के लिए सेना भेजने की वकालत तक करता है लेकिन आदिवासियों को जिस तरह से छला गया है उनकी अस्मिता और गरिमा पर आघात किए गए है इस की बात मीडिया सामान्य तौर पर नहीं करती है।
 प्र07- हिन्दी समाचार पत्रों में स्त्रिी उपभोक्ता और उपभोग की स्थिती पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?
आप के सवाल के जो भावना है जो दर्द है मैं उसकों साझा करता हूं। भारत ही नही विश्व में कोई भी देश, समाज ऐसा नहीं है जो स्त्री को खुले मन से बराबरी का दर्जा देता हो जिसमें उसे उप भोग न माना जाता हो। आधुनिक मीडिया ने इस दुराग्रह को मजबूत करने का काम किया है। यह बात सिर्फ विज्ञापनों में प्रस्तुत स्त्री की नहीं है बल्कि हर कदम पर मीडिया ऐसा कोई मौका नहीं छोडता जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे की छवि के रूप में पेश न किया जाता हो। सच पूछिए तो औरत की गिनती भी हमें हासिए के समाज में करना चाहिए शायद फर्क इस बात का है कि अपेक्षाकृत सुविधा संपन्न समाज की औरते जाने-अंजाने में खुद ही उस पारंपरिक परिभाषा में ढल जाती है।
 प्र08- समाचारों की अंर्तवस्तु पर बाजार का प्रभाव ? वहीं बाजार में प्रतिश्पर्धा में अच्छी चीजें क्या हैं ?
पहले तो यह जान लिजिए की आज जब हम बाजार की बात करते है तो पंूजीवाद शोषणकारी यंत्र के रूप में विद्यमान रहा है। बहरहाल बाजार पत्रकारिता को आज दो तरिको से प्रभावित कर रहा है। एक तो वर्तमान मीडिया अपने आप में बाजार का अंग है। उसमें जो पूंजी लगी है वह कोई पत्रकार की नहीं बल्की कोई कारोबारी ही लगा सकता है उसका उद्देश्य अखबार से मुनाफा कमाने तक सिमित नहीं बल्की अखबार को अपने दूसरे उद्यमों में प्रगती के लिए भी इस्तेमाल करता है। इस तरह से इस प्रक्रिया में अखबार सिर्फ समाचार देने का माध्यम नहीं बल्की भयादोहन करने  अथवा पारस्परिक समझौता करने के उपकरण के रूप में भी इस्तेमाल  करता है। इसका असर निश्चित रूप से अखबारों की अंतरवस्तु पर पडता है।
दूसरा अखबार का बाजार से जो सिधा संबंध है वह भी अंतरवस्तु को प्रभावित करता ही है। अखबार में मोटे तौर पर वही छपता है तो बिकता है फिर वह कोई खैफनाक कथा या हारर स्टोरी क्यों न हो फिर वो सामाग्री कितनी भी जुगुप्सा पैदा करने वाली क्यों न हो उसे स्थान दिया जाता है। अगर मैं ठिक समझ रहा हूं तो अखबारों के बाजार में प्रतिस्पर्धा में अच्छी बातों का मुद्दा उठा है। अखबारों ने आपसी होड में स्वाभाविक है कि कुछ बुनियादी मसले भी सामने आते हो उन पर बहस छिड़ती हो लेकिन आज से तीस साल पहले अगर ऐसी बहसे नियमित स्वरूप होती थी तो आज वे अपवाद स्वरूप हैं। इनके लिए प्राथमिकता के साथ जो जगह दी जानी चाहिए नहीं दी जाती तथा बहस को एक निर्णायक मोड पर ले जाने से बहुत पहले बीच में ही छोड दिया जाता है। एक मुद्दा उठता है कुछ दिन चर्चा में रहता है फिर अचानक गायब हो जाता है। एक निर्णायक मोड या तार्किक परिणाम के पहले छोड दिया जाता है।
 प्र09- समाचार पत्रों का आर्थिक प्रबंधन कैसे बदला है ?
हिंदी अखबार की जो परंपरा हैं उसमें पहले सामन्यतः पत्रकार ही अखबार निकालते थे अब कार्पोरेट घराने अखबार के मालिक है और पत्रकार इनके वेतन कर्मचारी हैं क्योंकि आधुनिक मशीनों और उपकरणों का निवेश होता है। इसलिए मालिक की स्वभाविक चिंता सबसे पहले अपने निवेश को सुरक्षित रखने की होती है। एक स्वतंत्र मालिक पत्रकार जो खतरे उठा सकता था वह व्यापारी मालिक के लिए संभव ही नहीं है। मैं देशबंधु के बारे में कुछ बताना चाहुंगा, मेरे पिता स्वर्गीय मायाराम सुरजन 1959 में मित्रों से उधार लेकर 25 हजार रूपए कि कुल पंूजी से अखबार की स्थापना की थी। मात्र नौ हजार रूपए में एक सेकैंड हैंड छापा मशीन अखबार शुरू करने के लिए पर्याप्त थे। अमर उजाला, नवज्योति, नवभारत (नागपुर) आदि तमाम पत्र इसी तरह सिमित पूंजी से शुरू हुए। आज पांच करोड से कम में अखबार निकालने की सोची भी नहीं जा सकती।
 प्र010- वर्तमान में प्रसार व विज्ञापन की दिशा क्या है ?
दोनों के बारे में जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा है। प्रसार को लेकर मिथक गढ़ा गया है कि प्रसार दिन-दूनी रात-चैगुनी बढ रही है। सच्चाई यह है कि कम कीमत इंविटेशन प्राइज, इनामी योजना आदि प्रलोभनो के बल पर अखबार बाजार में पहुंच तो रहे हैं। लेकिन पूरी कीमत देकर अखबार खरीदने में बृद्धि नहीं हुई है। अखबार वाले अपने बारे में चाहे जो कहें मीडिया विश्लेषक भी जब इस मिथक को यर्थाथ मान लेते है तो तकलीफ होती है।
विज्ञापनों का जहां तक प्रश्न है इतने सारे अखबार निकलने लगे हंै। विज्ञापन पाने के लिए गलाकाट होड़ मची है। विज्ञापन दाता इस स्थिति का फायदा उठाकर अपनी शर्तो पर विज्ञापन छपवा रहे हंै। ऐसा कहूं तो गलत नहीं होगा कि अखबार अपने को विज्ञापन दाताओं के सामने लाचार और कमजोर पा रहे हैं।
 प्र011- समाचार पत्रों की भाषा व लेआउट पर उदारीकरण का प्रभाव ?
समाचारपत्रों की रूप सज्जा पहले के मुकाबले अच्छी हुई है। इसमें नई तकनीकि का योगदान है। लेकिन इस कथित उदारीकरण ने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को नष्ट करना शुरू कर दिया है। एक नकली भाषा गढी जा रही है। जिसके चलते हमारी अगली पीढियाँ अपने सांस्कृतिक वैभव को समझने से वंचित रह जाएंगी। चुंकि अखबारों की संख्या में जिस गति से बढोतरी हुई है उसी अनुपात में प्रक्षिशित पत्रकारों की कमी भी महसूस की जा रही है। इसका भी अवांक्षित असर भाषा पर पड़ा है।
 प्र012- समाचारों का स्थान निर्धारण आज कैसे हो रहा है ?
जो प्रमुख खबरे समाचार एंजेंसी के माध्यम  से आती है उनका स्थान निर्धारण ठीक-ठीक हो जाता है। लेकिन अतीत में जिस तरह विकास-परक खबरों को महत्व देकर छापा जाता था वह चलन अब बंद हो गया है। राजनैतिक व व्यापारिक हितो से जुडी खबरों को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। टी.वी. चैनलो पर जिस रूप में खबरे पेश होती हैं वे भी प्राथमिकता और स्थान निर्धारण पर अंजाने में प्रभाव डालती है।
 प्र013- हिन्दी समाचार पत्र अंग्रेजी भाषा व स्थानीय भाषा के रंग से कितना प्रभावित है ?
मैंने अंग्रेजी का जिक्र उपर किया है मैं उसे अवांक्षित मानता हूँ। स्थानीय या जनपदिय भाषा का असर पडना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। चूंकि इधर काॅलेज में हिन्दी के पठन-पाठन में गिरावट आई है। उसके चलते किसी भी अखबार में हिन्दी का शुद्ध रूप देखने को नहीं मिलता। नए पत्रकारों की हिन्दी वैसी नहीं है जैसी कि बीस-पच्चीस साल पहले होती थी। इसलिए इन दिनों अखबारों में जनपदिय भाषा से प्रभावित रूप का चलन बढा है। इसे व्याकरण और वर्तनी दोनों में देखा जा सकता है। शब्दों के चयन में व्याकरण और वर्तनी में फर्क है। बिहार और उत्तर प्रदेश के अखबरो की भाषा नहीं जमती है

Saturday, June 15, 2013

संवेदना और पीडा
सुभाष गौतम
युवा कहानीकार अल्पना मिश्र की कहानी संग्रह ‘‘क़ब्र भी क़ैद औ जं़जीरे भी’’ में कहानीकार ने  अपने नीजी अनुभव और अपने आस-पास की समस्याओं को कहानी का विषय बनाया है। इस संग्रह की लगभग सभी कहानीयों में गांव के आम आदमी के दुख-दर्द और संघर्ष को दिखाया गया है, जो वास्तविकता के बेहद निकट जान पडता है। इस संग्रह की अधिकतर कहानियों में स्त्री की पीडा और उसका संघर्ष दिखाया है। पहली कहानी ‘गैरहाजिरी में हाजिर’ यह पहाड में आये दिन दुर्घटनाग्रस्त होने वाली यात्री बसों में मरने वाले यात्रीयों के परिवार से उपजी कहानी है। यह कहानी ठीक उसी प्रकार है जैसे जाने वाले तो चले जाते है पर पहाड तो पहाड ही  रहता है। इस कहानी में पहाडी परिवार का जीवन और उनके संघर्ष को दिखाया गया है। जिस प्रकार पहाडों के नीचे बहुत सारे राज दबे होते है उसी प्रकार वहां के लोग अपने सीने में बहुत से दुख दर्द छिपाये हुए हैं वे इसके लिए मानो अभिशप्त हो। ‘‘हमने पहले कभी पहाड को इस नजर से नहीं देखा था। खूबसूरत वादियां हमें लुभाती थीं।’’ लेखिका  ने पहाड की खूबसूरती के परे जाकर पहाड के दर्द को इस कहानी में बयान किया है। 
दूसरी कहानी ‘गुमशुदा’ एक संवेदनशील औरत की कहानी है जिसकी संवेदना और मानवता को उसका पति नजरअंदाज करता है। इंशान कुछ पाने की चाह में मानवता और संवेदना को पिछे छोडता जा रहा है। इस में टीवी चैनलों द्वारा समाज में फैलाए जाने वाले अंधविश्वास को भी निशाना बनाया है। तीसरी कहानी ‘रहगुज़र की पोटली’ जिसमें पोटली कम रहगुजर का जिक्र अधिक है। यह कहानी भी स्त्री विषय पर केंद्रीत है। इस कहानी की जो सबसे खास बात है वह यह कि एक गांव की स्त्री दूसरी शहरी स्त्री से स्वयं की तुलना कर उसके आत्मनिर्भर और सशक्त होने को लेकर कैसी सोच रखती है और किस नजरिए से देखती है।  इन तमाम पहलूओं पर प्रकाश डाला गया है। चैथी कहानी ‘महबूब जमाना और जमाने में वे’ कहानी में खबरिया चैनलों और आमआदमी के खौफ को दिखाया गया है। जब भी कोई आतंकी घटना या शहर में कोई विस्फोट होता है तो उसे इलेक्ट्रानिक मीडिया किस नजरिए से देखता है और उस खबर को लेकर पुलिस एक आम आदमी खास कर एक समुदाय विशेष के साथ कैसा बर्ताव करती है। इन सब सवालों को बडे की मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इस आतंकी घटना में उत्तर प्रदेश का कोई छोटा कस्बा हमे दिख जाएगा। इन घटनाओं के चलते मुसलमानों का जिना मुश्किल हो गया है। यह कहानी बहुत पहले लिखी गई है मगर वतर्मान समय में प्रासंगिक नजर आती है। पांचवी कहानी ‘उनकी व्यस्तता’ में स्त्री प्रताड़ना और समाज की एक सच्ची तस्वीर दिखाई है। लेखिका ने एक बहादुर लडकी जो ससुराल की प्रताडना से तंग आकर अर्धनग्न अवस्था में पुलिस के पास जाती है। कहानी में पात्र को बहुत ही सशक्त दिखाया है। यह कहानी हमें जादूई यर्थाथ की कहानी लगती है पर विमर्श के लिहाज से स्त्री के एक सशक्त पहलू को दर्शाती है। छठी कहानी ‘मेरे हमदम, मेरे दोस्त’ इस कहानी संग्रह की सबसे मजबूत कहानी है। घर में दैत्य रूपी पत्ती और दफ्तर में गीदड रूपी सहकर्मी के बीच एक स्त्री सुबोधीनी के मानसिक प्रताड़ना की कहानी है। सुबोधीनी एक तलाकशुदा स्त्री है जिसे हरपल मुश्किलों का सामना करना पडता है। एक स्त्री का जीवन कितना कठिन होता है चाहे वह आर्थिक रूप से समर्थ ही क्यों न हो। एक शिकारी से छुटकारा पाती है तो आगे दूसरा शिकारी खडा मिलता है। सातवी कहानी ‘सड़क मुस्तकि़ल’ जो सडक पर होने वाले छोटे मोटे विवादों की कहानी है। विवाद छोटा है पर लेखिका की इस कहानी को सबसे संवेदशील कहानी कह सकते है। इस कहानी में एक बुढिया है जो एक गरीब ड्राइवर को ठग लेती है। अपनी बात को मनवाने के लिए इतना तांडव करती है कि लोग उसकी बातों में आकर गरीब ड्राइवर को ही दोषी मान लेते है। आठवीं कहानी ‘पुष्पक विमान’ यह कहानी एक ऐसे इंशान की है जो गरीबी के चलते गांव छोड़कर शहर आता है पेट पालने के लिए शहर में हेरोईन और स्मैक बेचने के लिए तैयार हो जाता है। सवाल यह है कि भूख और बेरोजगारी इंशान को इस कदर मजबूर कर देती हैं कि वह गिरे से गिरा काम करने लगता है। आखिरी कहानी ‘ऐ अहिल्या’ यह दो सहेलियों की कहानी है एक बिंदास रहने वाली, दूसरी भोली भाली है।

कहानी संग्रह:  क़ब्र भी क़ैद औ’ जं़जीरें भी
लेखिका: अल्पना मिश्र
मूल्य: 200
पृष्ठ: 119
प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

जहाँ बाँस फूलते हैं: जनजातीय संघर्ष और विद्रोह
सुभाष कुमार गौतम
भारतीय इतिहास में यह उल्लेख मिलता है कि आज़ादी की पहली लडाई अंग्रेजों से आदिवासियों ने लड़ी थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उम्मीद की गई थी कि अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की शुरूआत करने वाले आदिवासियों की स्थिति में काफी परिवर्तन आएगा। पर हुआ ठीक इसके उल्टा उनके इतिहास को भूला कर उन्हें विकास की मुख्यधारा से वंचित कर दिया गया। जिसकों लेकर आदिवासियों में इस असंतोष के विरोध में प्रतिरोध के स्वर बुलंद होते रहें। यह असंतोष कभी नक्सलवाद तो कभी माओवाद जैसे विद्रोह के रूप में दिखें। पूर्वोत्तर भारत में यह असंतोष नागा विद्रोह और मिजों विद्रोह के रूप में उभर कर सामने आया।  
श्रीप्रकाश मिश्र का उपन्यास ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ का विषय 1968 में लालडेंगा के विद्रोह पर केन्द्रीत है। अनुभव एवं स्मृतियों के अधार पर लिखा गया यह उपन्यास बहुत ही दिलचस्प है। इस उपन्यास की शुरूआत ईसाई उत्सव से शुरू होती है और अंत इसके ठीक विपरित मिजो विद्रोह में मारे गये विद्रोहियों के शोक से होता है। मिजोरम में मिजों जनजातियों में यह मान्यता रही है कि मिजोरम में जब बाँस फूलते हैं तो वह अकाल पडने का संकेत होता है। कुछ लोगों में यह भी मान्यता है कि मिजोरम में बाँस फूलते हैं तो उस बाँस के फूल को चूहे खाते हैं और उनसे बहुत सारे चूहें पैदा होते हंै, जो वहां की फसलों को नष्ट कर देते है। ‘‘पूर्वोत्तर में ज़मीन पर जो कुछ भी हैं उसमें सबसे अधिक बाँस और सुपारी दिखाई देते हैं। बाँस यहाँ की जिं़दगी में, शरीर में खून ले जाने वाली धमनियों की तरह शामिल है। मेघालय में सिंचाई की नालियों की तरह, मिजोरम के सुदूर गाँवों में बरसाती पानी को घर तक लाने वाली पाइप लाइन, नागालैंड में चाकू की तरह और कई इलाकों में तो थाली-कटोरी की भी तहर इस्तेमाल किया जाता है। उसके फूलों के विध्वंस की ताक़त भयानक है। यह बजती हुई बाँसुरी के अचानक किसी स्वर पर गरदन उतारने वाली तलवार में बदल जाने जैसा अजूबा लगता है।’’1 
मिजोरम का प्रमुख उत्पाद बाँस है, बाँस फूलने की परिघटना को अकाल की सूचना से जोड़ कर देखा जाता है। इसके लिए मिजो में भाषा में ‘माउटम’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘‘ये फूल बिरले आते हैं लेकिन जब आते हैं तो प्रकृति नया असंतुलन पैदा करती है। चूहे इन फूलों को खाते हैं जिससे उनकी प्रजनन शक्ति असामान्य ढंग से बढ़ जाती हैं। लाखों की संख्या में पैदा हुए चूहे खेतों की फसलें, घरों में रखा अनाज, फल, सब्जियाँ समेत जो सामने आता है सब चट कर जाते हैं। साल बीतते-बीतते अकाल पड़ जाता है। आदिवासी बूढ़ों का कहना था कि अगले तीन साल में इस इलाके में ज्यादातर बाँस की कोठियों में फूल आएंगें। उससे पहले अगर सारे बाँस जला नहीं दिए जाते तो तबाही तय है।’’2 
इस प्रकार मिजों विद्रोह के प्रमुख कारणों में बाँस के फूलने से आए दूर्भिक्ष भी रहा होगा। उसके साथ एक और कारण मिजोरम के प्रति उपेक्षा का भाव था। कुछ लोग इसकी चर्चा ईसाई विद्रोह के नाम से करते है। जब बात हो रही हो मिजों विद्रोह की तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘‘आदिवासी असंतोष के प्रमुख कारण आर्थिक और सामाजिक रहे हैं। ईसाई मिशनरियों तथा धर्म परिवर्तन की घटनाएं भी एक कारण रहे है। बाहरी लोगों ने इनके जीवन और जीवनपद्धति तथा इनकी परंपराओं में घुसपैठ की, इन आदिवासियों ने हथियार उठा लिए। जब-जब इनका दमन और शोषण हुआ ये चुप नही रहे। इनकी मजबूरियों का फायदा उठाने की हर कोशिश का उन्होनें विरोध किया।’’3 श्री प्रकाश मिश्र के उपन्यास ‘जहाँ बाँस फूलते है’ आदिवासी असंतोंष से उपजे मिजो विद्रोह की पृष्ठभूमि को समझने और जानने में सहायक सिद्ध होता है। रामचंद्र शुक्ल ने अपने एक लेख ‘उपन्यास’ में लिखा ‘‘बहुत से लोग उपन्यास का आधार कल्पना बतलाते हैं। पर उत्कृष्ट उपन्यासों का आधार शक्ति है न कि केवल कल्पना’’ आगे अनुमान के साथ यथार्थ का संबंध स्पष्ट करते हुए ‘‘ऐतिहासिक उपन्यास अनूमानमूलक और सत्य हैं। उच्च श्रेणी के उपन्यासों में वर्णित छोटी-छोटी घटनाओं पर यदि विचार किया जाए तो जान पडे़गा कि वे यथार्थ में सृष्टि के असंख्य और अपरिमित व्यापारों से छंटे हुए नमूने हैं।’’4 श्रीप्रकाश मिश्र अपने उपन्यास के प्राक्कथन अंश में लिखते हंै कि ‘‘यह उपन्यास ऐतिहासिक नहीं है। कहीं इक्का-दुक्का वास्तविक व्यक्तियों के नाम आए भी है तो कथा को विश्वसनीय बनाने के लिए। अगर किसी के जीवन के टुकड़े से कोई अंश इत्तेफाक करता मिलेगा तो सिर्फ इस लिए कि कल्पना की दिवार कहीं-न-कहीं यथार्थ की बुनियाद पर ही बनती है। फिर भी यह उपन्यास आम पाठक को पूर्वोत्तर भारत की समस्या समझने की खासी सामाग्री देगा।’’ इस प्रकार ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ उपन्यास कल्पना की जमीन पर यर्थाथ की इमारत खडा करने की एक कोशिश मात्र है। जो मिजो विद्रोह की समस्या और सरकार के रहस्यों को उदघाटित करने का प्रयास मात्र है। यह उपन्यास उन रहस्यों पर से पर्दा उठाने का काम करता है जो मिजो समस्या और विद्रोह के कारण बने। पूर्वोत्तर भारत के विषय में हिन्दी में की गई लगभग सभी रचनाएँ चाहे वह उपन्यास हो या यात्रा विवरण या  कथा सभी के विषयवस्तु ऐतिहासिक है।
मिजो विद्रोह से पहले नागा विद्रोह भारत की आजादी के बाद सन् 1947 में आरंभ हो गया था। जिस विद्रोह को सन् 1997 में करीब 50 दौर की वर्ता के बाद संघर्षविराम दिया गया। इस पर सहमति गृहमंत्रालय के हस्तक्षेप से बनी। मिजोरम के पडोस में एक तरफ नागा विद्रोह चल ही रहा था, इधर लालडेंगा ने मौके का सही फायदा उठाया मिजो विद्रोह की शुरूआत कर दी। ‘‘सन् 1959 में बाँस के फूल खाकर उन्मत्त चूहों ने खेतों, जंगलों, बस्तियों पर धावा बोल दिया, मौतम (अकाल) की नौबत आ गई। मिजो कछार के गांवों की तरफ़ भागने लगे लेकिन स्थानीय आबादी और असम पुलिस ने वापस ठेल दिया। मिजों नेताओं ने असम सरकार से गुहार लगाई। जब तक प्रशासनिक मशीनरी हरकत में आती वहां अगले पचीस साल तक चलने वाले रक्तपात की पुख्ता नींव पड़ चुकी थी। सरकार से निराश लोगों ने आपातकालीन संगठन बनाए। इन्हीं में से एक मिजो फेमाइन फ्रंट (एमएफएफ) था जिसे सेना में हवलदार रैंक के क्लर्क रहे लालडेंगा ने बनाया था। पूर्व सैनिकों और युवा वालंटियरों को एक नेटवर्क तैयार कर लालडेंगा ने दूरदराज के गांवों तक अनाज भेजना शुरू किया। कभी भारत की फ़ौज में रहे रिटायर्ड बूढ़े रसद के साथ एक संदेश भी ले जाते थे, ‘दिल्ली और असम की सरकारों को भूख से मरते मिजो लोगों की परवाह नहीं है इस लिए अब अलग देश के लिए लड़ाई छेड़ने का वक्त आ गया है।’ एमएफएफ एक दिन मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) में बदल गया और अलग मिजो राष्ट्र मांगने लगा। भारत सरकार ने इसे एक क्लर्क की सनक समझा और दरकिनार कर दिया।’’ लालडेंगा और उनके लडके आईएसआई से संपर्क साध कर पूर्वी पाकिस्तान के चटगांव पहुंच गए। वहां से हथियार व गुरिल्ला युद्ध की टेªनिंग लेकर मीजोरम की पुलिस चैकियों पर हमले करने लगे। फरवरी 1966 की एक रात उन्होंने ‘आपरेशन जेरिको’ के जरिए आईजाल के रेडियो स्टेशन, टेªजरी और थाने पर कब्जा कर देश को स्तब्ध कर दिया। ईसाई आबादी का समर्थन पाने के लिए इस हमले को लालडेंगा ने धार्मिक रंग दे दिया। मिथकों के अनुसार हजरत जोशुआ ने परमपिता के आदेश पर जेरिको के किले की दिवारें गिरा दी थीं ताकि उनके भक्तों को अपना वतन मिल सके।’’
’’आईजाल पर कब्ज़ा पाने के लिए किसी उग्रवादी संगठन के खिलाफ एयर फोर्स के हेलीकाप्टरों का इस्तेमाल पहली बार किया गया था। अगले पाँच साल तक सेना प्रोटेक्टेड प्रोग्रेसिव विलेज(पीपीवी) बसाती रही और उग्रवादी छापामार युद्ध चलाते रहे। पीपीवी की तुलना यहां हिटलर के नाजी कैंपों से की जाती है। उग्रवादियों को जनता से काटने के लिए मिजोरम के सारे गाँव उजाड़ कर सड़कों के किनारे टीन की चादरों के नीचे बसाये गए जहाँ रात में कफ्र्यू होता था। बिना आई कार्ड दिखाए कोई आ-जा नहीं सकता था। सेना की सतत परपीड़क चैकसी के चलते निजी जिंदगी क्या होती है लोग भूल गए। दमन के कारण दिल्ली से मोहभंग और बढ़ा। उधर बर्मा के जंगलों में एमएनएफ की सात बटालियनें खड़ी हो चुकी थीं और लालडेंगा अब चीन जाकर चाऊ एन लाई से बात कर रहे थे। मीजो अपनी जाति को चीन की एक गुुफा चिनलुंग से उत्पन्न बताते हैं। सदियों के सफर में वे वहां से तिब्बत, बर्मा की हक्वांग और कबौ घाटियाँ पार करते हुए अठारहवीं सदी लुसाई हिल्स में आकर बसे थे।’’ 
‘‘कुछ साल बाद इन गांवों को दुबारा बसाया गया। 1985 में मिजोेरम को अलग राज्य बनाना पड़ा। 1987 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ समझौते के बाद लालडेंगा को कांग्रेस का मुख्यमंत्री हटाकर मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। गाँवों का सामुदायिक जीवन सेना नष्ट कर चुकी थी। अपराध बेतहाशा बढे़ और आधा मिजोरम उजड़ कर तीन शहरों में बस गया। मिजोरम में उग्रवादियों समेत लगभग हर आदमी को किसी न किसी प्रकार की क्षति का मुआवजा दिया गया जिसके नतीजे में भ्रष्टाचार मिजोरम का पर्याय बन गया है। अब आईजाल को भारत का सबसे मंहगा शहर माना जाता है जहाँ नशेडियों की तादाद बहुत ज्यादा है।’’5 ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ उपन्यास का समय लालडेंगा का विद्रोह हैं। वैसे तो इस उपन्यास में बहुत सारे पात्र हैं। पर मुख्य नायक रूआलखूमा है। जिसके बहादूरी की चर्चा मिजोरम में ही नहीं पडोसी देशों में भी होने लगी थी। रूआलखूमा ने मिजोरम में फौज के छक्के छुडा दिए थे। फौज उसके नाम से ही कांपती थी। रूआलखूमा के एन्काउंटर के समय जो संवाद हुआ उसमें वह कहता है कि ‘‘मेरा हाथ खोल दो’’ ‘‘मैं एक मुक्त प्राणी की तरह मरना चाहता हूं’’ इस प्रसंग से यह पता चलता है कि वह कितना बडा योद्धा था कि मरने के समय भी फौज के सामने  झुका नहीं । ठीक उसी तरह संवाद करता है जैसे राजा पोरू ने सिकंदर से किया था।
आदिवासी समाज अपने रीति-रिवाजों और रहन-सहन को लेकर मुख्यधारा के समाज से काफी भिन्न रहा है। अलग-अलग क्षेत्रों के आदिवासी अपने-अपने स्वरूप में मुख्यधारा के समाज से भिन्न हैं। पर मुख्यधारा के समाज से उनकी अपनी अलग पहचान है। आदिवासी समाज को देखा जाए तो कहीं न कहीं सांस्कृतिक रूप से मुख्यधारा के समाज से मजबूत हैं। जहां तक दलितों से उनकी तुलना की बात करे तो दलित समाज से कही ज्यादा उनका अच्छा इतिहास रहा है। अपने समुदाय और क्षेत्र में उनकी अपनी राजसत्ता रही है। श्यामाचरण दुबे का कहना है कि ‘‘जनजातियों के सामाजिक संगठन के स्वभाव और उसकी जटिलता में बड़ी भिन्नता पायी जाती है। भारत में अधिकांश भागों में आदिवासी समूहों में पुरूष की प्रधानता है। वहीं दक्षिण और उत्तर पूर्व में स्त्री प्रधान समाज रहा है।’’ इस प्रकार हम दावे के साथ यह बात कह सकते है कि मुख्यधारा के समाज में जितनी दैयनिय स्थिती स्त्रीयों की रही है उसकी तुलना में आदिवासी समाज में स्त्रीयों की स्थिती काफी बेहतर रही है। 
‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ उपन्यास में भी अगर देखा जाए तो स्त्री की आर्थिक और सामाजिक स्थिती अच्छी नहीं हंै। लेकिन उपन्यास में लेखक ने मिजों स्त्री पात्रों का जिस प्रकार से दिखाया है वो यर्थाथ के करीब नही दिखाई देता है। यह उपन्यास मिजोरम के स्त्री समाज को सम्मान की नजर से नहीं देखता जो उपन्यास की सबसे बड़ी कमी है। दरसल लेखक श्रीप्रकाश मिश्र मिजोरम में मिजो विद्रोह के समय सरकार के खुफिया विभाग के अंग रहे है। इस कारण भी ऐसा हो सकता है। उपन्यास को पढते समय जो बात खटकती है वो स्त्रियों के साथ किए गए दुष्कर्म का विवरण है। जिसकी चर्चा बहुत ही गंदे शब्दों में की गयी है। लेखक उत्तर-प्रदेश के देवरिया जिले के निवासी है इसका भी प्रभाव हो सकता है। देवरिया में खास कर सवर्ण समाज के लोग गैर सवर्ण समाज की स्त्रीयों के लिए जिस तरह की भाषा का प्रयोग राजमर्रा की जिन्दगी में करते है, ठीक उसी प्रकार श्रीप्रकाश मिश्र भी वैसे ही शब्दों का चयन करते है। साथ ही बहुत सारे भोजपूरी अपशब्दों का चयन करते हैं। उदाहरण के लिए ‘‘इस इलाके के इतिसाह में यह पहला मौका था कि साइलो की पंचायत में कोई गैर-साइलो सभा अध्यक्ष बना था और यह श्रेय गांव के बूढे़ जमदुग्गीलाल को मिला था। वह सताया हुआ आदमी था और सोच रहा था कि इस साइलो ने हमारी जाने कितनी विवाहिताओं, कुमारियों को ‘‘गाभिन’’ किया तो पंचायत नहीं बैठी और इसकी बीवी गाभिन हो गई तो पंचायत बैठी है। 
पंचायत बोली ‘‘इसकी सजा दोला को दस कोड़े और सौ रूप्या है।’’
दोला बोला ‘‘मैं राल्ते कौम का हूँ। लुशेई कानून मुझ पर नहीं लगता।’’
अकसर ही चुप रहने वाले बूढ़े ने कहा, ‘‘जुर्म लुशेइयों के बीच करेगा, लुशेइयों के साथ करेगा और आइन बधारेगा रल्ते का? अरे दस कोड़े के साथ इसे बीस जूता भी मारना चाहिए और जूते का पैसा भी लेना चाहिए।’’... हर मासिक के बाद लुशेई लड़की पवित्र हो जाती है।’’6 इस प्रकार के शब्दों का चयन कर उपन्यासकार आखिर क्या कहना चाहता है। यह बात बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस उपन्यास में जगह जगह स्त्रियों के प्रसंग हैं जो मिजोरम की यथास्थिती से कम मेल खाते है। वहां की स्त्रीयों के बारे में कहा जाता है कि वो जिस भी पुरूष से प्रेम करतीं हैं उसके साथ जीवन भर निर्वाह करतीं है। आज जिस प्रकार पुलिस व सभ्य समाज के लोग यह आरोप लगातेे हंै कि नक्सली और माओवादी लोग अपने साथ रहने वाली स्त्रियों के साथ शारीरिक और दैहीक शोषण करते है। आरोप चाहे जो लगता रहा हो पर ज्यादा तर मामले में पुलिस और सेना के जवान देखे गए हैं। उदाहरण के लिए छत्तिसगढ की सोनी सोरी के मामले को देख सकते है। ‘‘कुछ दिन बाद कैंप से चलते वक्त खूमा ने कहा था, ‘‘कामी जब तक मैं नही आता हूं यही रहना। कैंप में थोडी दिक्कत तो होगी, किंतु कुछ दिनों में अभ्यसत हो जाओगी।’’
पर कामी को कोई दिक्कत न हुई। पूरा सेक्सन दिनभर उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटता और रात होते ही कोई न कोई उसे आगोश में ले लेता। सभी भूखे थे-कोई महीने से तो कोई वर्षों से। किंतु वे खाने पर एक साथ नहीं टूटते। अपनी बारी के दिन का इंतजार करते और मौका मिलने पर वे अपनी तृप्ति से अधिक कामी की तृप्ति का ख्याल रखते और मन ही मन खूमा को दुआ देते इस इंतजाम के लिए। और कामी रोज यही नापती की इस सुख की गहराई कितनी है? है भी कि नही ? उसे कैंप में मर्द बदलने की ऐसी आदत पड़ी कि जीवन भर वह किसी एक मर्द से संतुष्ट होकर न रह पाई।
और फिर हर मैथुन पर उसे झा (वाई) की याद आती। शुरू में याद आने पर उसके ललाट पर पसीना चुहचुहा आता, सांस तेज चलने लगती, आंखे मुंद जातीं मुठिठ्यां भिच जातीं और वह दांत पीसकर रह जाती।... अब मुठिठ्यां नहीं भिचती और एक दिन तो आंख मुंदने पर वह मुस्करा उठी। लगा झा यहीं कहीं खड़ा है । फिर जो भी मर्द उसके पास आया, झा ही लगा। और जब महीनों बाद खूमा कैंप लौटा तो उसने आंखें मटका कर पहला ही प्रश्न किया ‘‘झा को मार डाला’’
‘‘नहीं’’
खुमा एक कसूरवार सिपाही तक को नहीं मार पाया था। मारा था तो एक बेकसूर सीधे सादे वाई (गैर मिजो) को बड़ी कायरता से । उसका मन ग्लानि से भर गया।’’7 झा का कामी और जोरमी सें दोनों प्रेमप्रसंग चलता है। जोरमी झा के बच्चे की मां बनने वाली होती है। लेकिन झा मानने से इनकार कर देता है। इसी प्रसंग से क्रोधित हो कर कामी झा से बदला लेने की ठानती है और रूआलखूमा से उसकी हत्या करवाना चाहती है। इस संदर्भ को पढ कर मिजोरम का यह परिदृश्य उभरता है कि सरकार के आदमी और मिजों विद्रोही दोनों ने ही वहां की स्त्रीयों का भयानक शारीरिक शोषण किया। यह कितना सच है? क्या मिजो समाज पुलिसिया समाज कि तरह स्त्रियों के मामले में बर्बर है? 
लेखक ने स्त्रियों के संदर्भ में एक प्रसंग में लिखा है -‘‘सभी लोग इकट्ठे हँस पड़े। कामी आपातमस्तक जल गई! आखि रवह जोवा से कम-से-कम 12 वर्ष बड़ी है। गाँव की सबसे सिनियर नुला है। उससे इस तरह की बात नही की जा सकती। वह दाँत पीस कर घूम गई। ‘‘गारत गिरे मुए पर। सिपाही अभी ही पकड़े ले जाएं। मन-ही-मन जोवा को कोसती वह दहलापकड़ खेलने बैठ गई। नुथलुई रौपारी अपने स्तनों और कूल्हों को एक साथ हिलाती हाथ चमकाकर बोली, ‘‘जोवा के आगोश में एक बार बैठ ही जा कामी, तुझे मेमने का मजा मिलेगा और जोवा को ‘‘बहिला’’ बूढ़ी भैंस का।’’8 इसी क्रम में एक और प्रसंग है - मीजो में बासा गांव में एक साइकिया नाम का आदमी रहता है। जोरमी बोली ‘‘छुटटा बैल की तरह सुबह ही सुबह क्यों घूमने लगे? भलाई इसी में है कि बासा में भी न रहों। कैंप में जाकर रहो।’’... उधर जोरमी भी गर्भ की बोझ से गहबर कांतिहीन हो गई थी।...जोरमी उसी स्वर में बोली सभी मुझे रंडी कहते है।9..उधर कामी को लेकर खूमा को डर हो जाता कै कि कामी कहीं वेश्या न बन जाए इसी डर से उसे डोपा वापस छोड जाता है। झा के गुनाह की सजा साइकिया को भूगतनी पडती है। जंगल से विद्रोही आकर सरेआम उसे गोली मार देते हैं। उपन्यास में कही तारतम्यता नहीं है। लेखक कहानी कहते कहते किसी और प्रसंग को छेड देता है। स्त्री को लेकर लेखक की यौन कुंठा और सवर्ण मानसिकता ने कन्टेन्ट को विकृत कर दिया है। 
उपन्यास का अंत कुछ इस प्रकार होता है। मिजों विद्रोहियों की पराजय होती हैं, सरकार द्वारा शांति-वार्ता की चर्चा होती है लेकिन वह असफल हो जाती है। बहुत अधिक संख्या में विद्रोही मारे जाते है जो बच जाता है वो जंगलों में चला जाता है। माइकल का तबादला गोवा हो जाता है। डोपा में माइकल की पोस्ट-इनचार्ज के रूप में नियुक्ति हुई रहती है। पुई की मृत्यु के बाद पूरा गांव शोकाकुल हो जाता है। ठेकेदार कृष्णन कहता है कि गांव से संबंध सुधारने का बहुत अच्छा मौका है। मिजो विद्रोह में चर्च के पादरियों का हाथ होने की अशंका जताई जाती थी। चर्च की सह पर सी.आई.ए यहां सक्रिय थी। माइकल ही एक ऐसा व्यक्ति है जो इन परिस्थितियों से लड कर यहां का माहौल सुधार सकता था। उसके तबादले से  शांति-प्रयास खटाई में पड़ जाते हैं। नयी लड़ाई शरू होने की आशंका बढ़ जाती हैं। माइकल डोपा में बड़ा लोकप्रिय हो गया था। उसके स्थानान्तरण से डोपा के लोग दुखी थे। उन्होंने उसे रोकना भी चाहा। माइकल जब विदा ले रहा होता हैं उस समय कामी ने रूआलखूमा की लिखी कविताओं की डायरी माइकल को देती है। माइकल उसे अपने साथ लेजाना चाहता हैं, किंतु कामी कहती है, ‘इस गांव को और इस जंगल को मेरी जरूरत है। मिजोरम को हमेशा ऐसा ही नहीं रहने देना है। उपन्यास में मिजों और भोजपूरी शब्दों का खूब प्रयोंग किया गया है। स्थानीय बोली-बानी आंचलिकता का सबसे मजबूत पक्ष है। आंचलिकता में लिखा गया उपन्यास तथ्यों से भरपूर है। कुल मिलाकर यह एक रोचक उपन्यास है।

संदर्भ-
1. अनिल यादव, वह भी कोई देस है महाराज, अंतिका प्रकाशन गाजियाबाद, 2012, पृष्ठ-47
2. वही, पृष्ठ-47
3. यशवंत कोठारी, आदिवासी असंतोष: कारण और निवारण, रचनाक्रम, मई 2010
4. गोपाल प्रधान, हिन्दी उपन्यासों में नार्थईस्ट, समकालीन जनमत, सितंबर 2007
5. अनिल यादव, वह भी कोई देस है महाराज, अंतिका प्रकाशन गाजियाबाद, 2012, पृष्ठ-47,48
6. श्रीप्रकाश मिश्र, जहाँ बाँस फूलते हैं, यस पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2011, पृष्ठ-70
7. वही, पृष्ठ-82, 83
8. वही, पृष्ठ-255
9. वही, पृष्ठ-86

विद्रोह, समर्पण और समाज

सुभाष कुमार गौतम

वरिष्ठ इतिहासकार सुधीर चन्द्र की पुस्तक ‘‘रख्माबाई स्त्री अधिकार और कानून’’ गुलाम भारत के समय की एक ऐतिहासिक घटना का विश्लेषण है यह बालविवाह जैसी सामाजिक कुरितियों के खिलाफ एक स्त्री के विद्रोह की कहानी है । सन् 1984 में रख्माबाई नामक स्त्री ने अपने पति के साथ रहने से इसलिए इन्कार कर दिया था क्योकि जिस समय उनकी शादी हुई उस समय वो अपरिपक्व थीं, जिसे वह विवाह नहीं मानती थी। ’‘रख्माबाई में एक साथ लक्षित ‘विद्रोह’ और ‘समर्पण’ में कानून, जनमानस और सामाजिक बदलाव के बीच सतत चलता कार्य-कारण सम्बंध देखा जा सकता है।’’ यह पुस्तक इन्हीं अनसुलझे सवालों की गुत्थी को समझने का माध्यम है। वहीं रख्माबाई और दादाजी भीकाजी के वैवाहिक जीवन के विवाद का लेखक ने बहुत बारीकी से समाजशास्त्रीय अध्ययन किया है। जब कोई व्यक्ति शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है तो उसे उसकी कीमत चुकानी पडती है। स्त्री मुक्ति के इस संघर्ष में भी यही हुआ, बाल बिवाह जैसी कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाने वाली रख्माबाई को आहुति देनी पडी। वैसे तो यह विद्रोह शुरूआती दौर में सिर्फ रख्माबाई की अपनी समस्या से उपजा विद्रोह था पर धीरे धीरे वह पूरे हिन्दू समाज तथा अन्य समाज की स्त्रीयो से जुडे प्रश्न के रूप में सामने आया। रख्माबाई के मुकदमे में इतने पेंच थे कि वह दिन प्रति-दिन उलझता चला गया। लेखक देशी परम्पराओं और उपनिवेशीय कानून-व्यवस्था के संयुक्त दमन के विरोध में रख्माबाई के संकल्प को देखते है। जिस प्रकार समाज के संवेदनशील व्यक्ति को संवेदनशीलता की कीमत चुकानी पडती है। रख्माबाई ने जो भी कीमत चुकाई उसका आगे चल कर लाखों करोडों स्त्रीयों को लाभ मिला। 
इस पुस्तक में रख्माबाई का कम उनके और उनके पति दादाजी भीकाजी के बीच मुकदमे से जुडे सवालों का जिक्र अधिक किया गया है। आखिर रख्माबाई ने यह असाधारण विद्रोह क्यों किया इस प्रश्न पर विचार करने के लिए यह पुस्तक हमे विवश करती है। एक स्त्री होने के नाते उसे जिस प्रकार के कष्टों का सामना करना पडा था वो कितना असहनीय था, अगर उनके सौतेले पिता और नाना साथ न देते तो क्या हस्र हुआ होता। पति से अलग होने के बावजूद रख्माबाई अपने तथाकथित पति की मृत्यु के पश्चात एक विधवा का जीवन जीने लगती हंै। लेखक चुंकी गांधी दर्शन से प्रभावित व्यक्ति हैं इस लिए इस घटना को अपने उपसंहार में राम-राज से जोड कर देखते है, जो बात पाठक को खटक सकती है। रामायण की घटना का जिक्र करे तो हम देखते है कि सीता के समर्पण और त्याग अनदेखा करते हुए राम समाज के खातिर सीता को नहीं अपनाते है। रख्माबाई का विवाद उसे ठीक विपरित था। रख्माबाई का पति उसे जब अपने साथ ले जाना चाहता है उस समय रख्माबाई विद्रोह करती है और उसके साथ रहने से माना कर देती पर सवाल यह है कि आखिर उसकी मृत्यु के बाद वो विधवा का जीवन क्यो जीती है ? आखिर रख्माबाई ने पुनः विवाह क्यों नहीं किया? वहीं दूसरी ओर दादाजी भीकाजी ने समझौते के बाद एक दूसरी स्त्री से विवाह करने में जरा भी संकोच नहीं किया। इस पूरे प्रकरण को देखकर लेखक यह महसूस करते हैं कि कानून के सहारे सामाजिक समस्याएं नहीं सुलझ सकती। खास कर स्त्री पुरूष विवाद। लेखक का इशारा है कि सामाजिक समस्याओं का निदान हमें समाज में ही ढूंढना होगा। तथ्यों से भरपूर यह पुस्तक स्त्री विमर्शकारों के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी। वैसे मूल पुस्तक अंग्रेजी में है, यह हिन्दी अनुवाद है।

पुस्तक- रख्माबाई स्त्री अधिकार और कानून
लेखक- सुधीर चन्द्र
अईएसबीएन-978-81-267-2337-9
पेज-223
मूल्य- 400
प्रकाशन-राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

स्त्री स्वाधीनता और आत्मनिर्भरता की कहानी

सुभाष कुमार  गौतम
सुचित्रा भट्टाचार्य का उपन्यास ‘छिन्नतार’ खास कर मध्यवर्ग को केंद्र में रख कर लिखा गया उपन्यास है। छिन्नतार का अर्थ टूटा हुआ तार होता है। यह उपन्यास टूटे हुए रिस्तों कि एक सशक्त गाथा है। यह बेहद ही दिलचस्प उपन्यास है। आज के समय में स्त्री विमर्श पर जो उपन्यास लिखे जा रहे है, उनमें स्त्री-पुरूष संबंध या त्रिकोंणीय प्रेम संबंध ही केंद्रीय विषय होता है। लेकिन ‘छिन्नतार’ उपन्यास इन सब से हट कर लिखा गया उपन्यास है। इस के केंद्र में मुख्यतः चार पात्र है दो स्त्री दो पुरूष। उपन्यास में लेखिका ने स्त्री चरित्र को बहुत ही सशक्त रूप में पेश किया है। स्त्री चरित्र में रिति और तापसी है। पुरूष पात्र शुभमय और सोमदत्त हैं। शुभमय और रिति के दाम्पत्य जीवन के इर्दगीर्द यह कहानी घूमती है। शुभमय पेशे से जज है। जो बेहद कर्तव्यनिष्ठ और अपने पेशे के प्रति इमानदार है। शुभमय और रिति दोनों कालेज के दिनों में एक दूसरे को पसंद करते है और आगे चलकर उनका प्रेम शादी में तब्दील हो जाता है जैसा की बांग्ला समाज में होता रहा है। दोनों का दंापत्य जीवन बहुत ही सुखी चल रहा होता है उनके घर में एक बेटी का जन्म होता है मगर यह खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकती उनकी बेटी मुनिया की अचानक मृत्यु हो जाती है उनके जीवन में शोक के बादल छटने का नाम नहीं लेते उपर से डाक्टरी जांच में यह भी पता चल जाता की रिति कभी मां नही बन पाएगी। दुख्रः की तीखी चोट सहने के बाद, रिति कविता-लेखन की ओर दोबारा लौट आती है। अपनी मृत बेटी मुनिया को भूलने के लिए ही रिति कविता का सहारा लेती है। इसी बीच उसे धुम्रपान की लत भी पड़ जाती है। शुभमय के तबादले के तीन महीने बाद, रिति अचानक अपनी मां के पास कोलकाता चली जाती है। जहां उसने अपना बुटीक का कारोबार शुरू किया है। कोलकाता में उसके कुछ साहित्यिक दोस्त मीलते है। यह पडाव एक तरह से रिति के लिए दुखों की दुनिया से निकलने में सहायक सिद्ध होता है तो दुसरी तरफ शुभमय के लिए अकेलापन घातक सिद्ध होता है। शुभमय छ¨टे-से शहर में सरकारी क्वार्टर में रहने लगता है जहां वह बैरे, खानसामे अ©र च©कीदार¨ं के बीच एकाकी जीवन बिता रहा है। 

कोलकाता में रिति को अचानक अपने बुटीक के लिए स्थान बदलने का ख्याल आता है और उसे जब पैसों की जरूरत पडती है, तो वह शुभमय से पैसों की डिमान्ड करती है। शुभमय अभावग्रस्त होने के बावजूद रिति की मदद के लिए अपने भाईयों से पैसे की मांग करता है किन्तु वहां से उसे निराशा ही हाथ लगती है। उसूल¨ं पर चलनेवाले जज के रूप में मशहूर शुभमय को अपनी नैतिकता ताक पर रख कर चंद्रचूड जैसे भ्रष्ट वकील से पैसे उधार लेने पर मजबूर होना पड़ता है। इस उपन्यास में मौजूद घटनाक्रम से यह बात साफ जाहिर होती है कि न्यायालय जैसी संस्था को भ्रष्ट लोग कैसे प्रभावित करते है और जज को किस प्रकार गलत फैसलेे के लिए मजबूर कर देते है। इस पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। न्यायालय में मौजूद भ्रष्टाचार को बहुत ही अच्छे ढंग से लेखिका ने प्रस्तुत किया है। शुभमय के जीवन में इस घटना के बाद उथल-पुथल मच जाती है। एक ओर रिति कोलकाता में अपने बुटीक के बिजनेस को लेकर कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो जाती है और दूसरी तरफ शुभमय एकाकीपन के चलते तापसी नामक गरीब युवती के करीब आ जाता है। तापसी एक बच्चें की मां है और उसका पति उसे छोड़ चुका है। जिससे शुभमय प्रेम करने लगता है। दूसरी तरफ कोलकाता में रिति का अपने कवि मित्र सोमदŸा के प्रति प्रेम पनपने लगता है। लेकिन इस उपन्यास का अंत कुछ इस प्रकार होता है कि सोमदŸा को छोड़कर तापसी वापस अपने मायके चली जाती है। दूसरी तरफ रिति सोमदŸा के संपर्क में आने के बाद ही  शुभमय की अहमियत को समझ पाती है कि उसके लिए वह कितना अनमोल है। और सोमदŸा को छोड़कर वापस अपने बुटीक के व्यवसाय में मसगूल हो जाती है। इसमें लेखिका ने स्त्री आत्मनिर्भरता के तरफ इशारा किया है जो स्त्रीस्वाधीतना का सबसे मजबूत पहलू है। यह उपन्यास पाठक और समाज के सामने बहुत सारे ऐसे प्रश्न छोड़ जाता है जो मध्यवर्गीय समाज के लिए आज विचारणीय है। छिंतार बांग्ला से हिंदी में अनुदित किया गया उपन्यास है। इसका अनुवाद सुशीला गुप्ता ने बहुत बारीकी से किया है।

उपन्यास-छिन्नतार
लेखिका- सुचित्रा भट्टाचार्य
पेज-288
मूल्य- 225
प्रकाशन-पेंगुइन प्रकाशन

कामरेड, कथाकार और आलोचक

सुभाष गौतम
कथाकार अरूण प्रकाश का जन्म बिहार के बेगूसराय जिले में निपनियां गांव में 22 फरवरी 1948 में हुआ था। माता का नाम कुंती देवी, जो पेशे से शिक्षिका थी, पिता रूद्रनारायण झा एक राजनीतिक व्यक्ति थे। अरूण प्रकाश आठ वर्ष के थे तो माता कुंती देवी का देहावसान हो गया था। उनके पिता सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव थे और 1968 में राज्यसभा सांसद हुए। अरूण प्रकाश की प्रारंभिक शिक्षा मंझौल से हुई थी। ग्रेजुएशन करने के लिए शाहपुर-पटोरी के आचार्य नरेन्द्रदेव महाविद्यालय में दाखिला लिए थे। पर बिमार होने के कारण पढाई पूरी नहीं कर पाए और बीच में ही पढ़ाई छोडनी पडी, फिर बेगूसराय के जी.डी. काॅलेज में केमेस्ट्री आॅनर्स में दाखिला लिया पर याहां भी सफलता हाथ नही लगी। सन् 1968 में पूसा इंस्टीट् यूट आॅफ मैनेजमेंट, दिल्ली से उन्होने होटल मैंनेजमेंट (स्नातक) में दाखिला लिया। उसी बीच उनके पिता की हत्या हो गई और अरूण प्रकाश पर संकट का पहाड टूट पडा। एक तरफ घर की जिम्मेदारी तो दुसरी तरफ कैरियर था। लेकिन यह संकट कुछ की समय में दूर हो गया जब उनहे नौकरी मिली। 1971 में होटल मैंनेजमेंट की पढ़ाई पूरी करेने के बाद दिल्ली स्थित होटल क्लेरिजेज में पहली नौकरी बेयरे के रूप में शुरू किया जिसे तीन माह में छोड कर लोदी होटल चले गए वहा भी बेयरे का काम किया। 1972 में पटना के  चले गये जहां होटल नटराज में अस्टिेंट मैंनेजर बन गये और वेटर की जिंदगी से मुक्ति मिल गई। पुनः एक साल वाद 1973 में बरौनी फर्टिलाइजर में असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी मिल गई। मैनेजर होने के साथ बरौनी में सी. पी. आई. के मजदूर संगठन एटक के साथ मिलकर कुछ दिन बीड़ी मजदूरांे, कारखाना मजदूरों के लिए काम किया। 1986 में हिंदुस्तान फर्टिलाइजर में हिन्दी अधिकारी नियुक्त होर चैदह वर्ष वाद फिर दिल्ली आना हुआ और दिल्ली की संस्कृति में अरूण प्रकाश रच-बस गये। 1990 में हिंदुस्तान फर्टिलाइजर से वीआरएस लेकर पत्रकारिता के क्षेत्र में कूद पडे़ और दैनिक जागरण से एक पत्रकार के रूप में शुभरंभ किया, पर एक वर्ष में ही वाहा से नौकरी छोड दी और 1991 में राष्ट्रीय सहारा में कुछ माह नौकरी की फिर 1992-93 में समय-सूत्रधार पाक्षिक में वरिष्ठ सहायक संपादक रहे। 1993 से 2008 तक फ्रिलांसिग करते रहे यहीं नहीं वे जीवन के आखिरी दिनों में भी फ्रिलांसिग किया। 2004 से 2008 तक का साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के संपादक का सफर तय किया। 
अरूण प्रकाश ने लेखन की शुरूआत अंग्रेजी कविता से की थी, एक-दो कविताएं पटना के एक अंग्रेजी पत्र में प्रकाशित भी हुईं थी। उनका ये भी माना था कि कविता में वो सारी बाते नहीं कह सकते कहानी के माध्यम से वो सारी बाते कही जा सकती हैं। 1978 में ‘रक्त के बारे में’ पहली कविता पुस्तिका प्रकाशित हुई जो आखिरी दिनों में उनके बिस्तर पर तकिए के निचे देखने को मील जाती थी। उनकी पहली कहानी ‘छाला’ 1971 में ‘कहानीकार’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई जिसके लिए उन्हे 30 रूपए का पारिश्रमिक मनिआॅर्डर द्वार प्राप्त हुआ था। ‘छाला’ कहानी के प्रकाशित होने के बाद वे इतना उत्साहित हुए कि उसी वर्ष दो और कहानियां लिख ‘सनडे’ और ‘दोनांे तरफ’। ‘छाला’ कहानी का पात्र एक दफतर में काम करेने वाला निम्न दर्जे का कर्मचारी है। जो हमेशा अभाव में रहता है। सस्ते जूते पहनने के कारण उसके पाव में छाला पड जाता है। जिसके कारण वो पीडित है पर पदोन्नती का समाचार पाकर सारे दर्द भूल जाता है, और उस दिन वह दोगूना काम करदेता है। ‘सनडे’ कहानी असफलता और सफलता की दौड में मानवीय रिस्तों के खत्म होने की संभावनाओं की कहानी है। यह कहानी दो बेरोजगार दोस्त की है जब दोनों बेरोजगार अवस्था में रहते है तो हीरा-मोती की तरह एक दुसरे से गुथे रहते है, पर उनमें से एक दोस्त जब सफल हो जाता है। सफल होने वाला दोस्त कहता है कि अब तो सनडे को ही मिलाना होगा। इस कहानी में इन्हीं दो दोस्तों की समस्याओं और पीड़ा को उजागर किया गया है। इनमें से सबसे मजबुत कहानी ‘दोनों तरफ’ है जो पुरूष के नजर में स्त्री विषय को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानी है। इन कहानियों में पूर्वी प्रदेश का पिछड़ा समाज खास कर साधारण-जन का प्रतिनिधत्व करते हैं। 1972 में दो कहानियां ‘सुनबहरी’ और ‘कुबड़े पेड’ प्रकाशित हुईं। सुनबहरी कहानी ठेठ गांव की पृष्ठभूमि से जुडी हुई कहानी है। इस कहानी में स्त्रीविमर्श का सशक्त रूप देखने को मिलता है। काहानी का पात्र ‘भजन’ रेलवे में पहरादार के रूप में काम करने वाला व्यक्ति है, जिसकी पगार 75 रूपए है। भजन की पगार इतनी कम और परिवार का खर्च इतना अधिक है वो हमेशा अभाव में रहता है। एक तरह से उसकी हालत नंगा क्या नहाए गा और क्या निचोडेगा की होती है। उसका पिता बिमार है जिसके दवा-दारू की नहीं जुटा पता उपर से उसकी मां अपने सूनबहरी (हाथ पाव सून्न होना) के दवा-दारू के लिए घर में तांडव मचा रखी है। वहीं अरूण प्रकाश ‘कुबड़े पेड’ कहानी लिखते समय गांव की पृष्ठभूमि से उठकर एकाएक दिल्ली शहर के करोल बाग पहुच जाते है। यह कहानी दिल्ली के करोल बाग स्थित एक दाम्पति की है, उनका जीवन पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने में गुजर जाता है। कभी अपने बारे में गहराई से नही सोचते बस वो बडे़ होने का फर्ज निभाते रहते हैं। धीरे-धीरे उनके जीवन को निरसता ने घेर तेता है। सहज होने का प्रयास भी वे करते हैं मगर उनका जीवन उस कुबडे पेड़ की भांति है जिसमें फुनगियां तो निकल सकती है, मगर कोई बहुत बड़ा बदलाव नही आ सकता है। वे कुबडे पेड़ सरीके जीवन जीने केलिए अभिशप्त  हैं। इस कहानी में शहरी जीवन की सच्च देखने मिलता है।
उनकी काहानियों में जादूई यर्थाथ नहीं है वे वास्तविक समाज का दर्शन कराते है।  सच और सच्च के आसपस की कहानी को लिखते है। उनकी कहानीयों में किसी खास जाती का नहीं बल्कि पिछडे हुए समाज के लोगों प्रतिनिधत्व देखने को मिलता है। उनकी कहानियां 80 के दशक की देश काल परिस्थियों का साक्षात्कार करती हैं। अरूण प्रकाश जिन पात्रों की कहानी लिखते है वे हमें समाज में किसी न किसी रूप में देखने को मिल जाते है। उनकी कहानियों में यर्थाथ है वास्तविकता है। काल्पनिक आधार पर काहानियां नहीं लिखते थे। 1986 में प्रकाशित कहानी ‘‘बेला एक्का लौट रहीं है’’ एक आदिवासी महिला के संघर्ष की कहानी है, स्त्री समाज में हमेशा से ही पीडि़त व शोषित रही है। वह अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक मुश्किले उठाती है। वह सम्मान से जीना चाहती है। वह आत्मनिर्भर होना चाहती है। वह पढ़ना चाहती है, मगर उसे अपने घर से ही विद्रोह का सामना करना पड़ता है। बोला एक्का भी अपनी शिक्षा के दौरनान पिता की उपेक्षा छेलती महिला है। आरक्षण हो या जातिगत आरक्षण वह अपने लिए सम्मान चाहती है। कहानी की पात्र बेला एक्का नौकरी करने बेगूसराय जातीं हैं तो अपनी नैतिकता को बचाने का हस संभव प्रयास करती हंै, मगर यह पुरूष प्रधान समाज की घृणित मानसिकता के चलते उसे नौकरी से इस्तिफा देना पड़ता है। शिक्षा के प्रति मिस बेला एक्का के पिता की उदासीनात से यह बात खुलकर सामने आती है कि किस प्रकार दलित, पिछणी जाति के लोगों को कदम-कदम पर अपमान का घंूट पीना पड़ता है। वे कितने ही पढ़ लिख जाए, अधिकारी बन जाए, जति का दंश उन्हे हर हाल में झेलना पड़ता है। उन्हें हर पल अपने सम्मान व स्वभिमान के साथ समझौता करना पडता है। जो नहीं समझौता करते उन्हें पद छोडना पडता है। इस कहानि में बेला एक्का समझौता नहीं करती और अपने सम्मान व स्वाभिमान को बचाने के लिए नौकरी छोड़ देती है। इस कहानी में स्त्री अस्मिता के प्रश्न को जोरदार तरीके से उठाया है।
अरूण प्रकाश की सबसे चर्चीत कहानी 1985 में प्रकाशित ‘‘भैया एक्सप्रेस’ है। यह कहानी पूरबिया लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। भैया एक्सप्रेस बिहार और पूर्वी-उत्तर प्रदेश की कहानी है। इस क्षेत्र के लोग ज्यादातर अपनी रोजी-रोटी की तलाश में पंजाब प्रेदश में काम करने जाते है, इन प्रदेशों में काम करने के पीछे एक और महत्वपूर्ण बात कि यहां नगद मजूरी मीलती है। इस कहानी में रामदेव नामक अपने भाई को खोजने जाता है तो पंजाब गया रहा है। रामदेव जिस समय पंजाब जाता है उस समय पंजाब में अशांति का वतावरण रहता है। यह कहानी एक पूरबीयां भैया/मजूर का यात्रा वृतांत है। 1988 में ‘जल-प्रान्तर’ कहानी आई जो रिपोर्तार्ज की शैली में लिखी गई है। बाढ़ का इतना सुक्षम और हृदय बिदारक वर्णन अभी तक किसी ने नहीं किया है। इस कहानी को पढते हुए लगता है जैसे कि पाठक स्वयं बाढ में घिर गया है। इस कहानी में अरूण प्रकाश की वाम विचाधारा की भी सोंधी महक भी मिहलती है। उनकी सबसे अंतिम दो कहानी ‘कम गोबर’ और ‘स्वर्ग का पता’ ‘‘बया’’ पत्रिका के अप्रैल-जून 2012 के बिषेश अंक में प्रकाशित हुई। कम गोबर कहानी दो राजपूत भाईयों के बिच जमीन बटवारे और प्रगति कि कहानी है। दो भाईयों में एक दिवाकर पढ़ा-लिखा और दूसरा केदार कम पढ़ा-लिखा इंशान है। पढ़ा-लिखा दिवाकर इस घमण्ड में किसानी का काम नहीं करता क्यों कि उसे लगता कि मैं तो पढ़ा-लिखा हूं, यह काम अनपढ़ों का है। केदार इसके बिपरीत है, वह खेती-बाड़ी का सारा काम स्वयं करता है और प्रगति कर जाता है। यह कहानी हरिशंकर परसाई की शैली में लिखी गई कहानी है। जिसमें व्यंग्य और प्रहसन के माध्यम से गांव के दो परिवारों की स्थिति को दिखाया है। ‘स्वर्ग का पता’ कहानी मानव विकास की चरम अवस्था को ध्यान में रख कर लिखी गई कहानी है। इस कहानी में यह दिखाया गया है कि मानव जब सभी भौतिक सुख-सुविधाओं को भोग लेगा, विकास की सारी यात्राएं पूरी कर लेगा तो फिर क्या बचे गा। इन्ही सवालों को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानी है-‘‘मोक्ष और स्वर्ग की बात सुन-सुनकर मांगुर को लगता कि वह भी जल्दी स्वर्ग पहुंच जाता तो अच्छा था। लेकिन मांगुर मर नहीं रहा था। वह अपना भोजन अब भी जुटा लेता था। तैरने से नियमित व्यायाम हो जाता था। इसलिए मांगुर का स्वास्थ्य अच्छा था। एक बात और थी कि मांगुर को मरना नहीं आता था अब बगै़र मरे तो स्वर्ग जाया नहीं जा सकता था....’’ इस कहानी में दो दोस्त होते है झिंगुर और मांगुर, झिंगुर मर जाता है। पृथ्वी पर यह अफवाह रहती है कि स्वर्ग में बहुत मजे हैं। वहा कुछ करना नहीं पडता सोचते ही सब सामने हाजिर हो जाता है। इसी लालच में मांगुर भी कैसे-कैसे जुगाड से मर जाता है पर जब वह मृत लोक में मृत लोगों से मिलता है तो उसे बहुत निराशा होती है। क्यों कि मरे हुए सभी लोग स्वर्ग का पता ढूंढ रहें है। फिर वो निराश होकर पृथ्वी पर आना चाहता है। अरूण प्रकाश ने कुल मिलाकर लगभग 40 कहानियां लिखीं हैं।
 अरूण प्रकाश क्या साहित्य, क्या पत्रकारिता, क्या फिल्म हर फिल्ड के एक धुरंधर खिलाड़ी थे, वे परफेक्सन (संपूर्णता) पर बहुत जोर देते थे। महत्वपूर्ण टीवी सिरियल ‘युग’ और ‘चंद्रकांता’ के लिए पटकथा लेखन का काम किया। उनके द्वारा लिखी गई कहानी-संग्रहः भैया एक्सप्रेस (1992), जल-प्रांतर (1994), लाखों के बोल सहे (1995), मँझधार किनारे (1996), विषम राग (2003), स्वपन-घर (2006) प्रकाशित हैं। उनका उपन्यास कोंपल-कथा (1991) में प्रकाशित है। अरूण प्रकाश कथाकार, उपन्यासकार, कवि, अनुवादक, पटकथा-लेखक होने के साथ-साथ एक बहुत ही सुक्षम दृष्टि वाले आलोचक भी थे। इस बात का प्रमाण आप को उनकी 2012 में प्रकाशित पुस्तक ‘‘गद्य की पहचान’’ से मीलती है। यह अपने ढंग की आलोचना की मात्र पुस्तक है जिसमें जेनर और फार्म को लेकर अरूण प्रकाश में अदभूत काम किया है। इसके आलावा एक आलोचाना की पुस्तक ‘‘उपन्यास के रंग’’ के साथ-साथ अन्य पुस्तकें प्रकाशनाधीन है। अरूण प्रकाश पिछले चार साल से श्वास की बिमारी से ग्रस्त जो 18 जून 2012 को भैया एक्सप्रेस के लेखक भैया (पूरबिया) चले गये।