Monday, June 30, 2014

                                              पर्यावरण, मनुष्य और मानवाधिकर 
                                                            
युवा पत्रकार स्वतंत्र मिश्र की पुस्तक ‘जल जंगज और जमीन उलट-पुलट पर्यावरण’ जो पर्यावरण को मानवाधिकार का मुद्दा बना कर लिखे गए आलेखों का संकलन है। इस पुस्तक में कुल 43 आलेख जो विविधतापूर्ण हैं। इन सभी आलेखों में पर्यावरण  और हाशिए के समाज की चिन्ता है। लेखक पर्यावरण को जिस नाजुक और संवेदनशील ढंक से देखते है उसकी मिशाल हमें बहुत कम मिलती है। यह पुस्तक गांधीवादी कवि स्व. भवानीप्रसाद मिश्र कि अमूल्य कविता ‘सतपुड़ा के जंगल’ को समर्पित है, जो पर्यावरण संकट पर लिखी गई थी। पर्यावरण बचे गा तो हम बचेंगे, पर्यावरण बचाओं जीवन बचाओ। मनुष्य को पर्यावरण संकट से उबरने के लिए पर्यावरण को ही स्वीकर करना होगा।
आज विकास के नाम पर क्या हो रहा है किसी से छुपा नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों कि लूट, गरीब आदिवासीयों का विस्थापन, पर्यावरण की अनदेखी आदि हमें देखने सूनने को मिल रही है। किसान व मजदूर आये दिन आत्महत्या कर रहें हैं वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक आपदाएं जैसे ग्लोबल वार्मिंग, प्रदूषण, भूकंप, बाढ़, भूस्खलन, सूखा व अनियमित वर्षा से जनजीवन त्रस्त है। इस प्रकार की सारी आपदाएं  पर्यावरण  असंतुलन के कारण है। इन सभी असंतुलन को लेखक प्रकृति के अंधाधुन दोहन का परिणाम मानते है। विकास के नाम पर जंगल काटकर कंकरीट के जंगल खडे़ किए जा रहे है। जगह-जगह ऊंची इमारते बना दी गई है। इसका दुष्परिणाम आमजन को ही भुगतना पड़ता है। इस पुस्तक का पहला आलेख हाल में हुए उŸाराखण्ड की त्रासदी के लेकर लिखा गया है। जिसका शिर्षक ‘लोगों का गुस्सा बादल की तरह फटेगा’ है। इस आलेख में शिलशिलेवार तरीके से उŸाराखण्ड की त्रासदी की समस्या की जड़ में जाकर पंूजीवादी विकास के माॅडल से होने वाले नुकसान की बहुत बारीकी से लेखक ने चर्चा किया है। लेखक उत्तराखण्ड की इस त्रासदी को कार्पोरेट क्राईम की नजर से देखते है। 
‘उदारीकरण में उदारता किस के लिए’ नामक आलेख में वैश्वीक, आर्थिक उदारीकरण के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों किसानों की जमीन पर जबरन कब्जा कर बेचे जाने की संगीन अपराध और किसान आत्महत्या के पीछे की राजनीति की पोल खोलते है। इस संग्रह का एक और महत्वपूर्ण आलेख जो उŸाराखण्ड की त्रासदी से जुडा हुआ है। ‘डूबता टिहरी, तैरते सवाल’ आलेख में परियोजनाओं के चलते जंगल की बर्बादी और स्थानीय लोगों के विस्थापन के सवाल को उठाया है। यही नहीं इस विस्थापन से होने वाले सामाजिक सांस्कृतिक खतरे के तरफ इशारा भी किया है। ‘कहां जाएं किसान ?’ यह आलेख व्यवस्था के सामने एक बडा सवाल खड़ा करता है। वैसे तो यह आलेख नंदीग्राम व सिंगुर के जनआंदोलन के संदर्भ में है लेकिन देश में अधिकांश किसान इस प्रकार की समस्या से ग्रस्त है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों व औद्योगिक घरानों के सामने सरकार किसानों कि अनदेखी कर रही है इसका परिणाम भूखमरी और आत्महत्या आदि के रूप में देखने को मिल रहा है। ‘सरकारी उपेक्षा के शिकार रिक्शे’ नामक आलेख को पढ़ कर मुझे बनारस का एक संस्मरण याद आता है। पिछले साल प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह से मैंने पर्यावरण और परिवहन पर चर्चा किया तो काशीनाथ सिंह ने कहा कि ‘मेरा बस चले तो इन पेट्रोल की गाडियों में आग लगा दूं और शहर में सिर्फ रिक्सा चलने कि इजाजत दू।’ इस संग्रह में यह लेख इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि रिक्शेवाले और आम नागरीक दोनों के हित के साथ पर्यावरण बचाने का हित भी इसमे छिपा है। इस प्रकार अंतिम आदमी भी बचे गा रिक्सा भी बचे गा पर्यावरण भी बचे गा।
‘अस्तित्व के लिए लड़रहें हैं आदिवासी’ व ‘निशाने पर जनजातियां’ दोनों ही आलखों में झारखण्ड, छतिसगढ, ओडिसा जैसे आदिवासी बहुल प्रदेशों मंे सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संसाधनों कि लूट और सलवा जुडूम के नाम पर बेजुबान आदिवासियों की बर्बर हत्या की निन्दा करते है। कुल मिलाकर यह पुस्तक मनुष्य रूपी विध्वसंकारी जीव को प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने की हिदायत देती है। विकास के नाम पर प्रकृति को क्षत-विक्षत किए जाने से उपजे दुष्परिणाम के तरफ इशारा करते हैं। साथ ही सरकार की नाकामी को भी उजागर किया है। समय रहते मनुष्य पर्यावरण संकट को लेकर अगर संवेदनशील नहीं हुआ तो यह हमारे अगामी जीवन और भविष्य के लिए खतरे का सबसे बडा संकेत है। यह पुस्तक हमें यह बताती है कि पर्यायावण का विकल्प पर्यावरण ही है।
पुस्तकः   जल, जंगल और जमीन उलट-पुलट पर्यावरण
लेखकः   स्वतंत्र मिश्र
प्रकाशकः स्वराज प्रकाशन
मूल्यः    295 रूपये

नोट- यह समीक्षा प्रभात खबर में प्रकाशित है.
(    सुभाष गौतम)
नोट- यह समीक्षा प्रभात खबर में प्रकाशित हैं.

                                                             कविता के विकास का संकेत

‘राजेश जोशी स्वपन और प्रतिरोध’ पुस्तक कवि राजेश जोशी की रचना और व्यक्तित्व पर लिखे गए आलेखों का संकलन है। जिसमें अनेक विद्वाने ने उनकी रचनाओं के संदर्भ में अपना मत प्रकट किया है। इन आलेखों में कवि रोजेश जोशी की कविताओं की व्याख्या विविध रूप में की गयी हैं। जिसका संपादन और चयन नीरज ने किया है। नीरज कवित के मर्म को समझने वाले आकादमिक व्यक्तियों में से एक हैं, जो कविता को सराहते है और उसपर गहन चिंतन मनन करते है। युवाओं में कविता के प्रति इतनी रूची बहुत कम देखने को मिलती है। इस पुस्तक के दो खंड हैं,  इसमें लगभग चालीस विद्वानों के आलेख हैं जो राजेश जोशी और उनकी कविताओं को केंद्र में रख कर लिखे गए हैं।
नीरज पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं-‘‘विकासमानता की इतनी बड़ी ताकत के कारण ही संभवतः राजेश जोशी ने सबसे अधिक स्मरणीय कविताएं लिखी हैं। ये स्मरणीय कविताएं मात्र ‘मंच लुटू’ नहीं हैं। इनमें सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति कई स्तरों पर हुई है।’’ इस पुस्तक को पढ़ने के पश्चात जो महत्वपूर्ण बात सामने आती है वह यह है कि राजेश जोशी अपनी कविताओं में देश, काल परिस्थतियों को चिंतन के  केंन्द्र में रखकर अपनी कविताएं रचते-गढते है। जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जैसी गंभीर समस्याओं पर चोट करतीं हंै।
इस पुस्तक का पहला आलेख ‘‘आंतरिक-राजनीति और राजनीतिक-आत्म का सृजनशील संदर्भ’’  हिन्दी के महत्वपूर्ण आलोचक नित्यानंद तिवारी का है। इस आलेख में वे रघुवीर समकक्ष राजेश जोशी को देखते है। साथ ही उनकी कविताओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने कि कोशिश करते है। इस प्रकार वे बाबा नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय जैसे महत्वपूर्ण कवियों की कतार में राजेश जोशी को पाते हैं। वही उनकी कविताओं में लोक कथाओं, लोकगीतों के इस्तेमाल को उनकी विशेषता कहा है। आगे इस लेख में राजेश जोशी की कविता ‘माँ कहती है’, ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘हमारे समय के बच्चे’ और ‘रैली में स्त्रियाँ’ कविता की गहनता से विवेचना करते हुए लिखा है कि ‘‘राजेश की कविताओं का एक दुर्लभ गुण है कि उसमें समझ के कई स्तर हंै।’’ साथ ही उनकी कविताओं कि तुलना भक्तिकाल की कविताओं से करते हैं।
दूसरा आलेख ए. अरविंदाक्षन का जिसका शिर्षक ‘‘बहुलार्थी यर्थाथ के पुनर्वास की कविता’’ है। इसमें आलेख में राजेश जोशी द्वारा सृजित कविता संसार में लोक से लेकर उत्तर आधुनिक समाज जैसे विषयों की चर्चा कि गई है। कविता ‘‘चांद की वर्तनी’’ पर बात करते हुए अरविंदाक्षन लिखते हैं कि ‘‘कवि कर्म पर जोर देने वाली... कविता अपने भीतर उसी लोक को समेट रही है। आंसू, दुख और चुप्पी के लिए कवि को शब्द ढँूढना पड़ रहा है। यहाँ शब्दों के अन्वेषण का तात्पर्य कविता में अनुभवों को अनुभूति में परिवर्तित करना और उसको सार्थक ढंग से अभिव्यक्त करना भी है। यही कविता की खोज है और जीवन की भी।’’ इस प्रकार इस आलेख में इनहोने बहुत ही सूक्षम चिजों का विश्लेषण किया है।
तीसरा आलेख नंदकिशोर नवल का है, जो संस्मरण की शक्ल में है। इस आलेख में कवि राजेश जोशी की चर्चा कम करते हैं पर भारत भारद्वाज और नंदकिशोर नवल ने अपनी चर्चा अधिक की है। इसी क्रम में चैथा आलेख विश्वनाथ त्रिपाठी का है। जो संस्मरणात्मक होते हुए भी महत्वपूर्ण है। राजेश जोशी की कविता में बिम्ब, प्रतीक के माध्यम से बात कहने की कला की प्रशांसा किया है, साथ हिन्दी कविता और ऊर्दू कविता की बारीकियों को भी बताते हंै।
इस पुस्तक के दूसरे खंड में कवित्रि अनामिका और महान कवि केदारनाथ सिंह के आलेख भी हैं, जो बेहद महत्वपूर्ण हंै। साथ ही इस संग्रह में अजय तिवारी के दो आलेख पहला आलेख ‘तर्कहीनता से लड़ता हुआ स्वप्न’ जिसमें राजेश जोशी की बहुत सी कविताओं की गहन व्याख्या की गयी है। उनकी रचना की चर्चा करते हुए वे  लिखते हैं कि ‘‘प्रयोग की धुन में ऐसी बहुत-सी चीजें हर दौर में राजेश के यहाँ आती हैं और समय के साथ तिरोहित हो जाती हैं। साथ ही युवा कवियों के लिए उनकी कविता को संघर्ष की दिशा बताते हंै।’’ यह आलेख बहुत ही संतुलित और बौद्धिकता से भरा हुआ है, इनका दूसरा आलेख ‘रूचि की कैद से परे’ में राजेश जोशी की पुस्तक ‘एक कवि की नोटबुक’ की चर्चा की है। कुल मिलाकर यह पुस्तक राजेश जोशी और उनकी कविता को समझने के लिए एक महत्पूर्ण पुस्तक है, जिसके लिए नीरज जी बधाई के पात्र हंै।
(सुभाष कुमार गौतम) 

पुस्तकः राजेश जोशी स्वप्न और प्रतिरोध
संपादकः नीरज
मूल्यः 795
पृष्ठः 356
प्रकाशकः स्वराज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली.
नोट- यह पुस्तक समीक्षा शुक्रवार के जनवरी अंक में प्रकाशित हैं.

Sunday, March 16, 2014

व्यक्तिगत क्रान्ति के बिना कोई भी सामाजिक क्रान्ति अधूरी 
उत्सव का अर्थ होता है उत्कर्ष, एक व्यक्ति का नहीं इस पूरे समाज का। मैं कविता की छात्र हूं और इसलिए मुझे अपना यह पूरा जीवन एक अद्भुत प्रतीक व्यवस्था की तरह दिखता है। प्रकाश भी प्रतीक है और लक्ष्मी भी प्रतीक है। बिहार में दिवाली के एक दिन पहले स्त्रीयां सवेरे जल्दी उठ जाती है और पूरे घर में सूप फटफटाती घूमती है और ये कहती है कि ‘लक्ष्मी पैइसे दारिद्र भाग’े। हमारा समाज ऐसा समाज है जहां दारिद्र सभी घरों से भाग नहीं पाया है इसलिए नहीं कि लोग पुरूषार्थ नहीं करते बल्कि इसलिए क्योंकि हमारा समाज भेदभाव की संरचना से जकड़ा हुआ एक ऐसा समाज है जहां सबको अपनी संभावनाओं के विकास का अवसर नहीं मिलता। बिहार या ज्यादातर प्रदेशों के कस्बों, गांवों और महानगरों में विस्थापित, बेरोजगार, ऐसी कई अकेली स्त्रीयां और वृ़द्ध हैं जिनको जीवन में उनके भीतर जो संभावनाएं थी उनके विकास का अवसर समाज ने दिया नहीं, उनके जीवन का दारिद्र्र भागा नहीं लेकिन उन्हांेने संघर्ष छोड़ा नहीं, लक्ष्मी की अराधना ठीक है। भारतीय प्रतीक व्यवस्था में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरूषार्थो में एक अर्थ भी है, लेकिन अर्थ कैसा, अर्थ जो दूसरे का हक छीन के पाया जाता है वैसा अर्थ नहीं, जो कमाया जाए अपने पुरूषार्थ से वैसा अर्थ, उस कमाने के लिए अवसर होने चाहिए। समाज कभी भी सभी युवकों को अवसर नहीं देता न साधनांे की बराबरी है न अवसरों की बराबरी है ऐसे में लक्ष्मी किसी किसी के घर में अतिथि होती है। जहां होती है वहां प्राचुर्य कैसे धन का होता है कालेधन का भी हो सकता है। चूंकि लक्ष्मी की सवारी उल्लू है इसलिए उसको विवेक नहीं होता, वो कहीं भी बैठ जाता है और यहां तो हर साख पर उल्लू बैठा है अंजामें गुलिस्ता क्या होगा। प्रकाश और अंधेरा सभी धर्मों में मनोवैज्ञानिक संघर्ष का प्रतीक है। अभी हमारा यह संघर्ष बहुत लम्बा चलने वाला है क्योंकि वर्गो, वर्णो, क्षेत्रियताओं, नस्लों और धर्मो के बीच दोस्ताना अभी बना नहीं है, हम एक दोस्तना समाज चाहते है और असली दीवाली तब होगी जब प्रकाश सबके घर जाएगा और लक्ष्मी, पुरूषार्थ से अर्जीत की हुई लक्ष्मी किसकी से छीन के अर्जित की हुई लक्ष्मी नहीं सबके घर में होगी।
दिया तो एक बहुत बड़ा प्रतीक है। भारतीय चिंतन धारा है सत,रज,तम तीनों गुणों का प्रतीक है। सृष्टि चलाने के लिए कहते हैं कि तीनों चाहिए, तामसिक गुण जो तेल में व्यक्त होता है, राजसी गुण भी चाहिए जो कि बाती में व्यक्त होता है, प्रज्जवलित रहता है हमेशा और उसके बाद सात्विक गुण भी चाहिए जो प्रकाश में व्यक्त होता है। तीनों का समीकरण व सामायोजन ही जीवन है एक तो इसलिए दिए का स्नेहिल प्रकाश माहादेवी की कविताओं से लेकर, वेदों से लेकर , यहां तक कि हमारे आस-पास सबकी कविताओं में दिया है, अज्ञेय ने भी लिखा है ‘यह दीप अकेला स्नेह भरा इसको भी पंक्ती को देदो। अज्ञेय को लोग कहते है कि वे व्यक्तिवादी है लेकिन इस कविता से स्पष्ट हो जाता है कि वो व्यक्ति भी सामाजिकता को निवेदित है। मेरे मन में दीप को लेकर दो उत्कट क्षण याद आते हैं। दो ऐसी दीपावलीयां जबकि दिया एक दम दूसरी तरह से जला था। पहली बार दीपावली के दिन मैं एक वर्किंग वूमेन हाॅस्टल में गयी थी। वहां मैंने अकेली स्त्रीयों से कुछ गपसप की, जिनके पास जाने को कोई घर नहीं था, करने को कोई काम नहीं था। वो अकेले रहके अपने अकेले कमरे में मोमबती जलाए हुए हैं एक लड़की किसी साड़ी में हेम कर रही थी। बाहर अंधेरा बरस रहा था और वहां पर बाहर जो चाहरदिवारी दी वहां एक नेपाली दरबान था जो अपने लाईटर से दो मोमबत्ती जला गया था। मैं दिवाली में उन दो मोमबत्ती का प्रकाश नहीं भूलती। वहां गेट पर एक चाय का ढाबा चलता था, वहां एक छोटू था, वो अनाथ बच्चा होगा उसके पास भी जाने के लिए कोई जगह नहीं होगी तो वो वहां बैठे चुपचाप ऐसे देख रहा था कि दूसरे लोग कैसे पटाखे छोड़ रहे हैं। मै तो वह दृश्य किसी भी दीवाली में भूल ही नहीं पाती। मुझे लगता है कि यह हमारा ऐसा समाज हुआ चला जा रहा है जो अभाव से, या किसी भी तरह जिसका जीवन पटरी से उतर गया है उसके प्रति संवेदनाओ का दीप हम नहीं जलाते, सबसे बड़ा दीप संवेदनाओं का दीप होता है और हम उनके घर जाएं उनसे मिले जिनके जीवन में किसी तरह अंधेरा फैला दिया है हम लोगों ने, सामाजिक विदु्रपताओ ने, विसंगतियों ने, या प्राकृतिक आपदाओं ने, तो ही हमारे सही दीवाली मन सकती थी।
दूसरी दीवाली जो मुझे याद है बिस्फोट हुआ था सरोजनी नगर में मैं बच्चों के साथ गयी हुई थी वहां पर मैंने एक चायवाले को एकदम सामने से उड़ते हुए देखा, वो दिवाली मुझे याद दिला गई, मां बचपन में एक दिया निकालती थी जो घूरे पर रखा जाता था जम का दिया उसको कहते थे, वो दिवाली के एक दिन पहले निकाला जाता था घूरे पर रखा जाता था दक्षिण की ओर मुंह करके, उसको देख कर औरते गाती थी, सारी बीमारी सारा कर्जा मृत्यु का कोप, असामयिक मृत्यु दूर हो जाए घर से, यह सब गाकर लौट आती थी। लेकिन अब हम ऐसे युग में रहते हैं जहां सबके पाॅकेट में क्रेडिट कार्ड है, तो ऋण अब तो शर्म की कोई बात ही नहीं रह गयी है, तो ऋण का शोधन क्या, और मृत्यु तो ऐसी चीज़ है कि आप सिर पर कफन बांध कर निकलते है। इतनी असुरक्षाएं है हमारे समाज में कि जैसे कोई घर से बाहर निकलता है मां भगवान-भगवान करके देव मनाने लगती हैं कि वह शाम को सही ढ़ग से वापस आ जाए, क्योंकि असुरक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं। इसलिए भक्ति भाव भी बढ़ गया है, क्योंकि हारे को हरिनाम, इसतरह से हम एक ऐसे समाज में रहें है उसमें प्रकाश चित्तकबरा हो गया है, हम सब चित्तकबरे हो गये हैं, और हम चितकबरें धब्बेदार वजूद को अगर धोके सबके लिए प्रकाश, अवसर व साधन सुलभ नही करेंगे तो ये हमारी दीवाली बडी अटपटी होगी। आज भी मैं देखती हूं कि बड़ी-बड़ी गाडियों में बडे़-बडे़ व्यावसायिक तोहफे लेकर गाडियां इधर-उधर दौड़ती रहती है और बगल से कोई बच्चा उन गाडियों का शीशा पोंछता हुआ गुजर जाता है उनसे बचता हुआ, तो ये ऐसा समाज है जो अकेले आदमी को और भी अकेला करता है, परेशान आदमी को दिवाली के दिन और भी अकेला लगता है। क्योंकि इस त्यौहार का मूल रूप है कि मिलकर बैठकर सांझेदारी से सारी बाते की जाए, हम उससे अलग हो गये है। मुझे ये सब चीजे दिवाली में विडम्बनाओं की कड़ी लगती है।
दिवाली सिर्फ लक्ष्मी से होकर नहीं जाता, माक्र्स ने ठीक ही कहा है कि आर्थिक संसाधन तो सबके पास होने ही चाहिए, क्योंकि, आर्थिकता व भौतिकता भी जीवन का हिस्सा ही है, हम शरीर भी है मन भी है आत्मा भी है। लेकिन सिर्फ लक्ष्मी से छीनी हुई लक्ष्मी से, गलत संसाधनों से कमाई गई लक्ष्मी से, किसी के जीवन में उजाला नहीं होता। जो गलत ढ़ग से पैसे कमाता है उसकी आत्मा में अंधेरा हो जाता है, जो अवसरों की कमी के कारण पैसे नहीं कमा पाता उसके जीवन में अंधेरा हो जाता है। धर्म के साथ अर्थ, काम, धर्म का मतलब यहां नैतिकता से है, नैतिकता से कमाया हुआ धन सबको बराबरी से दिया गया धन, बाटा गया अवसर और साधन यही असली दिवाली के सूत्र है।
लक्ष्मी का अर्थ होता है मंगलकारी स्त्री चेतना। हर लड़की जिसके जन्म पर लोग मंुह लटका लेते है वो एक लक्ष्मी ही है आपके जीवन में। आप जब आंख बंदकर सोचेंगे तो आपको याद आएगा कि आपके जीवन के सुखद क्षण कौन से हैं तो सुखद क्षणों की कल्पना करते वक्त आपके दिमाग में कोई न कोई स्त्री चेहरा याद आएगा। दादी, नानी, मामी, प्रेमिका, बहन, बेटी, या मां। लेकिन औरते जब आंख बंद करके सोचेंगी कि उनके जीवन का सबसे सुखद क्षण कब आया तो जरूरी नहीं है कि पुरूषों से संबन्धित सारे क्षण उन्हें सुखद ही लगते हो बहुत भयानक क्षण भी उनकी आंखो में आएंगे वैसे औरते लक्ष्मी हैं उनका अनादर करके जिस समाज में देवियों को लोग पूजते है और हाड-मांस की लडकियों का अनादर करते हैं उस समाज में फिर से हमें नये तरीके से चीजों की व्याख्या करनी चाहिए।
मुझे यकीन है मैं आशावादी तो हूं। मुझे युवाओं में बहुत आस्था है और उनकी मूलचेतना में भी। स्त्रीयों में, रिटायर्ड लोगों में, स्कूल टीचरों में, छोटे पद से रिटायर्ड लोगो उनमें मुझे बहुत ज्यादा आदर्श की चेतना दिखती है। मुझे साहित्य में बहुत आस्था है, साहित्य में यदि मंचन किया जाए, टीवी में साहित्यिक कृतियों पर आधारित कार्यक्रम दिखाये जाएं, नुक्क्ड़ नाटक साहित्यिक कृतियों पर खेले जाएं। कविता हर जगह विज्ञापन के पोस्टर के सामांनांतर लगा दिए जाएं और जीवन में जो भीतर के अंधेरे हैं, भीतर प्रकाश व अंधेरे में एक मनोवैज्ञानिक संघर्ष हमेशा चलता रहता है, उसमें हम प्रकाश की ओर जाएंगे। आज के समय में साहित्य ही धर्म का स्थानापन्न है, जो साहित्यिक मूल्य है वही आध्यात्मिक मूल्य है। साहित्य पढ़ा हुआ आदमी के बारे में मैं दावे के साथ यह कह सकती हूं कि एक सीमा से ज्यादा नीचे नहीं गिर सकता, क्योंकि उसके भीतर हमेशा एक दिया जलता रहता है, उसके आदर्शो का, शुद्धियों का, अच्छे चरित्र जिनके बारे में वह पढ़ता है, वे उसकी कल्पना के स्थायी नागरिक बन जाते हैं तो उनके काम पर, आंच पर वह जीवन को ढ़ालता है। गेटे कहता था कि दुनिया का कोइ खराब काम नहीं है जो मैं नहीं कर पाऊं लेकिन फिर भी वह नहीं कर पाता है। आदमी कल्पना कर सकता है कि मैं कर सकता हूं लेकिन जब करने पर आए तो साहित्य रोकेगा। आज के जीवन में साहित्य का महत्व कम हो गया है इसलिए भी मूलचेतना तिरोहित हो रही है। जितने भी सीने स्टार हैं, उनको मैं कहती हूं कि वे अपने ग्लैमर का सदुपयोग करें, जैसे विद्याबालन ने शौचालयों का प्रचार करना शुरू कर दिया है। चाहे शबाना आजमी हो, अमिताभ बच्चन हो या तब्बू हैं साहित्यिक मंचन द्वारा दुनिया में अलख जगाना चाहें, दुनिया में हर जगह जो जहां है अगर वह चाहे तो, भीतर की मूल चेतना जगाने वाला, भीतर का दीप जलाने वाला साहित्य हर जगह प्रसारित करें तो मुझे लगता है कि बहुत हद तक हमारा मनोवैज्ञानिक अंधेरा दूर होगा। अपनी व्यक्तिगत क्रान्ति के बिना कोई भी सामाजिक क्रान्ति अधूरी है। यदि मैं अपने भीतर ही क्रान्ति नहीं करती तो बाहर की क्रान्ति की मैं वाहक नहीं हो सकती।
अनामिका जी से सुभाष गौतम की बातचित

उत्सव का अर्थ होता है उत्कर्ष, एक व्यक्ति का नहीं इस पूरे समाज का। मैं कविता की छात्र हूं और इसलिए मुझे अपना यह पूरा जीवन एक अद्भुत प्रतीक व्यवस्था की तरह दिखता है। प्रकाश भी प्रतीक है और लक्ष्मी भी प्रतीक है। बिहार में दिवाली के एक दिन पहले स्त्रीयां सवेरे जल्दी उठ जाती है और पूरे घर में सूप फटफटाती घूमती है और ये कहती है कि ‘लक्ष्मी पैइसे दारिद्र भाग’े। हमारा समाज ऐसा समाज है जहां दारिद्र सभी घरों से भाग नहीं पाया है इसलिए नहीं कि लोग पुरूषार्थ नहीं करते बल्कि इसलिए क्योंकि हमारा समाज भेदभाव की संरचना से जकड़ा हुआ एक ऐसा समाज है जहां सबको अपनी संभावनाओं के विकास का अवसर नहीं मिलता। बिहार या ज्यादातर प्रदेशों के कस्बों, गांवों और महानगरों में विस्थापित, बेरोजगार, ऐसी कई अकेली स्त्रीयां और वृ़द्ध हैं जिनको जीवन में उनके भीतर जो संभावनाएं थी उनके विकास का अवसर समाज ने दिया नहीं, उनके जीवन का दारिद्र्र भागा नहीं लेकिन उन्हांेने संघर्ष छोड़ा नहीं, लक्ष्मी की अराधना ठीक है। भारतीय प्रतीक व्यवस्था में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरूषार्थो में एक अर्थ भी है, लेकिन अर्थ कैसा, अर्थ जो दूसरे का हक छीन के पाया जाता है वैसा अर्थ नहीं, जो कमाया जाए अपने पुरूषार्थ से वैसा अर्थ, उस कमाने के लिए अवसर होने चाहिए। समाज कभी भी सभी युवकों को अवसर नहीं देता न साधनांे की बराबरी है न अवसरों की बराबरी है ऐसे में लक्ष्मी किसी किसी के घर में अतिथि होती है। जहां होती है वहां प्राचुर्य कैसे धन का होता है कालेधन का भी हो सकता है। चूंकि लक्ष्मी की सवारी उल्लू है इसलिए उसको विवेक नहीं होता, वो कहीं भी बैठ जाता है और यहां तो हर साख पर उल्लू बैठा है अंजामें गुलिस्ता क्या होगा। प्रकाश और अंधेरा सभी धर्मों में मनोवैज्ञानिक संघर्ष का प्रतीक है। अभी हमारा यह संघर्ष बहुत लम्बा चलने वाला है क्योंकि वर्गो, वर्णो, क्षेत्रियताओं, नस्लों और धर्मो के बीच दोस्ताना अभी बना नहीं है, हम एक दोस्तना समाज चाहते है और असली दीवाली तब होगी जब प्रकाश सबके घर जाएगा और लक्ष्मी, पुरूषार्थ से अर्जीत की हुई लक्ष्मी किसकी से छीन के अर्जित की हुई लक्ष्मी नहीं सबके घर में होगी।
दिया तो एक बहुत बड़ा प्रतीक है। भारतीय चिंतन धारा है सत,रज,तम तीनों गुणों का प्रतीक है। सृष्टि चलाने के लिए कहते हैं कि तीनों चाहिए, तामसिक गुण जो तेल में व्यक्त होता है, राजसी गुण भी चाहिए जो कि बाती में व्यक्त होता है, प्रज्जवलित रहता है हमेशा और उसके बाद सात्विक गुण भी चाहिए जो प्रकाश में व्यक्त होता है। तीनों का समीकरण व सामायोजन ही जीवन है एक तो इसलिए दिए का स्नेहिल प्रकाश माहादेवी की कविताओं से लेकर, वेदों से लेकर , यहां तक कि हमारे आस-पास सबकी कविताओं में दिया है, अज्ञेय ने भी लिखा है ‘यह दीप अकेला स्नेह भरा इसको भी पंक्ती को देदो। अज्ञेय को लोग कहते है कि वे व्यक्तिवादी है लेकिन इस कविता से स्पष्ट हो जाता है कि वो व्यक्ति भी सामाजिकता को निवेदित है। मेरे मन में दीप को लेकर दो उत्कट क्षण याद आते हैं। दो ऐसी दीपावलीयां जबकि दिया एक दम दूसरी तरह से जला था। पहली बार दीपावली के दिन मैं एक वर्किंग वूमेन हाॅस्टल में गयी थी। वहां मैंने अकेली स्त्रीयों से कुछ गपसप की, जिनके पास जाने को कोई घर नहीं था, करने को कोई काम नहीं था। वो अकेले रहके अपने अकेले कमरे में मोमबती जलाए हुए हैं एक लड़की किसी साड़ी में हेम कर रही थी। बाहर अंधेरा बरस रहा था और वहां पर बाहर जो चाहरदिवारी दी वहां एक नेपाली दरबान था जो अपने लाईटर से दो मोमबत्ती जला गया था। मैं दिवाली में उन दो मोमबत्ती का प्रकाश नहीं भूलती। वहां गेट पर एक चाय का ढाबा चलता था, वहां एक छोटू था, वो अनाथ बच्चा होगा उसके पास भी जाने के लिए कोई जगह नहीं होगी तो वो वहां बैठे चुपचाप ऐसे देख रहा था कि दूसरे लोग कैसे पटाखे छोड़ रहे हैं। मै तो वह दृश्य किसी भी दीवाली में भूल ही नहीं पाती। मुझे लगता है कि यह हमारा ऐसा समाज हुआ चला जा रहा है जो अभाव से, या किसी भी तरह जिसका जीवन पटरी से उतर गया है उसके प्रति संवेदनाओ का दीप हम नहीं जलाते, सबसे बड़ा दीप संवेदनाओं का दीप होता है और हम उनके घर जाएं उनसे मिले जिनके जीवन में किसी तरह अंधेरा फैला दिया है हम लोगों ने, सामाजिक विदु्रपताओ ने, विसंगतियों ने, या प्राकृतिक आपदाओं ने, तो ही हमारे सही दीवाली मन सकती थी।
दूसरी दीवाली जो मुझे याद है बिस्फोट हुआ था सरोजनी नगर में मैं बच्चों के साथ गयी हुई थी वहां पर मैंने एक चायवाले को एकदम सामने से उड़ते हुए देखा, वो दिवाली मुझे याद दिला गई, मां बचपन में एक दिया निकालती थी जो घूरे पर रखा जाता था जम का दिया उसको कहते थे, वो दिवाली के एक दिन पहले निकाला जाता था घूरे पर रखा जाता था दक्षिण की ओर मुंह करके, उसको देख कर औरते गाती थी, सारी बीमारी सारा कर्जा मृत्यु का कोप, असामयिक मृत्यु दूर हो जाए घर से, यह सब गाकर लौट आती थी। लेकिन अब हम ऐसे युग में रहते हैं जहां सबके पाॅकेट में क्रेडिट कार्ड है, तो ऋण अब तो शर्म की कोई बात ही नहीं रह गयी है, तो ऋण का शोधन क्या, और मृत्यु तो ऐसी चीज़ है कि आप सिर पर कफन बांध कर निकलते है। इतनी असुरक्षाएं है हमारे समाज में कि जैसे कोई घर से बाहर निकलता है मां भगवान-भगवान करके देव मनाने लगती हैं कि वह शाम को सही ढ़ग से वापस आ जाए, क्योंकि असुरक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं। इसलिए भक्ति भाव भी बढ़ गया है, क्योंकि हारे को हरिनाम, इसतरह से हम एक ऐसे समाज में रहें है उसमें प्रकाश चित्तकबरा हो गया है, हम सब चित्तकबरे हो गये हैं, और हम चितकबरें धब्बेदार वजूद को अगर धोके सबके लिए प्रकाश, अवसर व साधन सुलभ नही करेंगे तो ये हमारी दीवाली बडी अटपटी होगी। आज भी मैं देखती हूं कि बड़ी-बड़ी गाडियों में बडे़-बडे़ व्यावसायिक तोहफे लेकर गाडियां इधर-उधर दौड़ती रहती है और बगल से कोई बच्चा उन गाडियों का शीशा पोंछता हुआ गुजर जाता है उनसे बचता हुआ, तो ये ऐसा समाज है जो अकेले आदमी को और भी अकेला करता है, परेशान आदमी को दिवाली के दिन और भी अकेला लगता है। क्योंकि इस त्यौहार का मूल रूप है कि मिलकर बैठकर सांझेदारी से सारी बाते की जाए, हम उससे अलग हो गये है। मुझे ये सब चीजे दिवाली में विडम्बनाओं की कड़ी लगती है।
दिवाली सिर्फ लक्ष्मी से होकर नहीं जाता, माक्र्स ने ठीक ही कहा है कि आर्थिक संसाधन तो सबके पास होने ही चाहिए, क्योंकि, आर्थिकता व भौतिकता भी जीवन का हिस्सा ही है, हम शरीर भी है मन भी है आत्मा भी है। लेकिन सिर्फ लक्ष्मी से छीनी हुई लक्ष्मी से, गलत संसाधनों से कमाई गई लक्ष्मी से, किसी के जीवन में उजाला नहीं होता। जो गलत ढ़ग से पैसे कमाता है उसकी आत्मा में अंधेरा हो जाता है, जो अवसरों की कमी के कारण पैसे नहीं कमा पाता उसके जीवन में अंधेरा हो जाता है। धर्म के साथ अर्थ, काम, धर्म का मतलब यहां नैतिकता से है, नैतिकता से कमाया हुआ धन सबको बराबरी से दिया गया धन, बाटा गया अवसर और साधन यही असली दिवाली के सूत्र है।
लक्ष्मी का अर्थ होता है मंगलकारी स्त्री चेतना। हर लड़की जिसके जन्म पर लोग मंुह लटका लेते है वो एक लक्ष्मी ही है आपके जीवन में। आप जब आंख बंदकर सोचेंगे तो आपको याद आएगा कि आपके जीवन के सुखद क्षण कौन से हैं तो सुखद क्षणों की कल्पना करते वक्त आपके दिमाग में कोई न कोई स्त्री चेहरा याद आएगा। दादी, नानी, मामी, प्रेमिका, बहन, बेटी, या मां। लेकिन औरते जब आंख बंद करके सोचेंगी कि उनके जीवन का सबसे सुखद क्षण कब आया तो जरूरी नहीं है कि पुरूषों से संबन्धित सारे क्षण उन्हें सुखद ही लगते हो बहुत भयानक क्षण भी उनकी आंखो में आएंगे वैसे औरते लक्ष्मी हैं उनका अनादर करके जिस समाज में देवियों को लोग पूजते है और हाड-मांस की लडकियों का अनादर करते हैं उस समाज में फिर से हमें नये तरीके से चीजों की व्याख्या करनी चाहिए।
मुझे यकीन है मैं आशावादी तो हूं। मुझे युवाओं में बहुत आस्था है और उनकी मूलचेतना में भी। स्त्रीयों में, रिटायर्ड लोगों में, स्कूल टीचरों में, छोटे पद से रिटायर्ड लोगो उनमें मुझे बहुत ज्यादा आदर्श की चेतना दिखती है। मुझे साहित्य में बहुत आस्था है, साहित्य में यदि मंचन किया जाए, टीवी में साहित्यिक कृतियों पर आधारित कार्यक्रम दिखाये जाएं, नुक्क्ड़ नाटक साहित्यिक कृतियों पर खेले जाएं। कविता हर जगह विज्ञापन के पोस्टर के सामांनांतर लगा दिए जाएं और जीवन में जो भीतर के अंधेरे हैं, भीतर प्रकाश व अंधेरे में एक मनोवैज्ञानिक संघर्ष हमेशा चलता रहता है, उसमें हम प्रकाश की ओर जाएंगे। आज के समय में साहित्य ही धर्म का स्थानापन्न है, जो साहित्यिक मूल्य है वही आध्यात्मिक मूल्य है। साहित्य पढ़ा हुआ आदमी के बारे में मैं दावे के साथ यह कह सकती हूं कि एक सीमा से ज्यादा नीचे नहीं गिर सकता, क्योंकि उसके भीतर हमेशा एक दिया जलता रहता है, उसके आदर्शो का, शुद्धियों का, अच्छे चरित्र जिनके बारे में वह पढ़ता है, वे उसकी कल्पना के स्थायी नागरिक बन जाते हैं तो उनके काम पर, आंच पर वह जीवन को ढ़ालता है। गेटे कहता था कि दुनिया का कोइ खराब काम नहीं है जो मैं नहीं कर पाऊं लेकिन फिर भी वह नहीं कर पाता है। आदमी कल्पना कर सकता है कि मैं कर सकता हूं लेकिन जब करने पर आए तो साहित्य रोकेगा। आज के जीवन में साहित्य का महत्व कम हो गया है इसलिए भी मूलचेतना तिरोहित हो रही है। जितने भी सीने स्टार हैं, उनको मैं कहती हूं कि वे अपने ग्लैमर का सदुपयोग करें, जैसे विद्याबालन ने शौचालयों का प्रचार करना शुरू कर दिया है। चाहे शबाना आजमी हो, अमिताभ बच्चन हो या तब्बू हैं साहित्यिक मंचन द्वारा दुनिया में अलख जगाना चाहें, दुनिया में हर जगह जो जहां है अगर वह चाहे तो, भीतर की मूल चेतना जगाने वाला, भीतर का दीप जलाने वाला साहित्य हर जगह प्रसारित करें तो मुझे लगता है कि बहुत हद तक हमारा मनोवैज्ञानिक अंधेरा दूर होगा। अपनी व्यक्तिगत क्रान्ति के बिना कोई भी सामाजिक क्रान्ति अधूरी है। यदि मैं अपने भीतर ही क्रान्ति नहीं करती तो बाहर की क्रान्ति की मैं वाहक नहीं हो सकती।
लेखिका अनामिका जी से दीवाली के अवशर पर बातचित पर आधारित यह आलेख प्रभात खबर में प्रकाशित हो चूका है.


वरिष्ठ चित्रकार व लेखक अशोक भौमिक से सुभाष कुमार गौतम की बात-चीत

पेंटिंग के क्षेत्र में आप का कैसे आना हुआ, इसकी प्रेरण कहा से मिली ?
आम तौर पर होता है कि घरांे में महिलाएं तीज त्योहारों में अल्पना आदि के चित्र बनातीं है ठीक वैसे हीं मेरी माँ भी बनाती थीं, पर अल्पना आदि के अलावा चित्र भी बहुत अच्छा बनाती थीं। चित्रकला की प्रारंभिक पे्ररण व शिक्षा मुझे अपनी माँ से मिली।
हाल में आप की पुस्तक ‘आकाल की कला और जैनुल आबेदिन’ प्रकाशित हुई हैं, जेैनुल आबेदिन एक अरसे से भुला दिए गए थे, उनका ख्याल कैसे आया?
मैं जब चित्र प्रसाद के उपर काम कर रहा था, उसी दौरान मुझे जैनुल आबेदिन के बारे में पता चला। 2005 में लाहौर गया था, उस समय जैनुल आबेदिन के चित्रों का एक एल्बम देखने का मौका मिला, जो अकाल के उपर था। ठीक उसी के बाद बंगला देश जाने का मौका मिला था। वहीं मुझे एक किताब मिली ‘जैनुल आबेदीन की जिज्ञासा’। यह जै़नुल अबेदीन की जीवनी नहीं थी बल्कि लेखक ने उनके चित्रों, समय और उनकी समझ पर एक गम्भीर व्याख्या प्रस्तुत की थी। इसके साथ-साथ मैंने उनके अधिक से अधिक चित्रों को देखा व समझना शुरू किया। जैनुल आबेदिन को महज इस बात के लिए भूला दिया गया क्यों कि वह भारतीय चित्रकार नहीं थें। 1947 की उनकी चित्र श्रृखला अकाल पर आधारित है जिसे उन्होंने कलकत्ते में बनाया था। उनके तमाम चित्रों में दुमका के आदिवासियों के जीवन का चित्रण हुआ है। 
प्रतिरोध की कला को सामने लाने का आपका क्या मकसद है?
आज चित्रकला में दो तरह के प्रतिरोध की जरूरत हैं। एक कला के माध्यम से सत्ता संस्कृति का प्रतिरोध, जिसमें सत्ता के अक्रामक चेहरे के खिलाफ जनाता को गोलबंद करने के लिए कला का प्रयोग किया जाए। दूसरा एक प्रतिरोध वह होता है जहां धनिक वर्ग व उच्च वर्ग द्वारा एक ख़ास किस्म की रूची को प्रोत्साहित करने वाली कला के खिलाफ छोटे शहरों कस्बों के कलाकारों की प्रतिबद्ध और जन पक्षधर कलारचना के जरिए किया गया प्रतिरोध। आज उदारिकरण के दौर में मेट्रो आर्ट का विकास हो रहा है, पर मैं मानता हूँ कला आम प्रेमियों के प्रोत्साहन से ही जिन्दा रह सकती है, केवल कला बाज़ार कला को जीवित नहीं रख सकती। आज कला के लिए संकट का दौर है जहाँ यकायए आम कलाप्रेमी कला दीर्घाओं से धकिया दिए गए है।   
आप ने कला पर हिंदी में स्वतंत्र पुस्तक लिखी, रचनात्मक लेखन पर पहला उपन्यास ‘मोनालिशा हँस रही थी’ तो वह भी कला की दुनिया पर इसकी प्रेरणा कहा से मिली?
जिस दुनिया को आप जानते हैं उन्हीं के संबंध में आप लिखते हैं। घोडा तो उन्ही कोड़ों के बारे में बात करेगा जो उसी पीठ पर निशान बनाते हैं। जिन परिस्थितियों को देखा था, समझा था, स्वतः मेरे मन में इच्छा थी कि मैं लोगों को उस के बारे में बताउ, सचेत करू। इस उपन्यास को लिखने में मुझे पन्द्रह साल लगे। मेरे मन मे पहले से उपन्यास लिखने की इच्छा थी। मैं विज्ञान का छात्र था मैने अंगे्रजी के उपन्यासकारों को खूब पढता था। आरंभिक दिनों में समरसेट माॅस व बांग्ला उपन्यासकार शंकर मेरे प्रिय थ। मोनालिस हँस रही थी की प्रेरण कला जगत से लम्बे जुड़े रहने से ही नहीं बल्कि आज़ादी के बाद तक विशेष काल खण्ड को करीब से देखने से भी मिली। 
आप पेंटिंग और साहित्य को किस रूप में देखते हैं?
दोनों अलग विधाएँ है। मैं नहीं समझता कि कलाओं के अंतर्संबंध जैसी कोई चीज होती है।  एक कला रूप दुसरे का विकल्प होता है न कि विस्तार। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता, कहानी और नाटकों के बीच अंतर्संबंाध खोजा जा सकता है पर उनकी चित्रकला उनके साहित्य कर्म के विकल्प के रूप में स्वतंत्र पाते है। 
साहित्य लेखन में आप की रूचि कैसे बनी हैं ?
हाईस्कूल तक पहुचते-पहुचते मैंने शरतचंद्र को पढ़ लिया था। इंटरमीडिएट में आते-आते रविन्द्रनाथ थाकुर की रचनाओं की आलोचना करनी शुरू कर दिया था, हालांकि यह सब बहुत बचकाना ही था। मैंने ओ हेनरी, मोपांसा, समरसेट माॅम, गोर्की की कहानियों को समग्र में पढ़ने की कोशिश की थी। एक ओर काॅफका, कामु और सात्र्र पढ़ा तो दूसरी तरफ चालू किस्म के उपन्यास भी खूब पढ़े। पर मैं मुक्तिबोध को अपना साहित्य गुरू मानता हूँ। 
अभी तक आप ने किन-किन भाषाओं में लिखा है ?
मैंने हिन्दी और अंगे्रजी में लिखा है। बांग्ला मुझे बहुत अच्छी नहीं आती, इस लिए उसमें कविताएं लिखीं हैं। मेरी रचनाओं में खास कर कहानियों का गुरूमुखी और उडि़या में अनुवाद हुआ है और चित्रप्रसाद पर लिखी रचनाओं का दक्षिण भारती भाषाओं में हुआ है।  
आप की ज्यादातर पेंटिंग में ब्लैक रंग का प्रयोग होता है ं?
यह कहूं कि यह जीवन के अंधकार व कलुष को व्यक्त करता है तो यह धोखा देना होगा। दर असल मैं सफेद कागज़ पर काले पेन से चित्र बनाता था। मेरे जीवन का बहुत लम्बा दौर 1974 से लकर 1990 तक केवल काले सफेद चित्रों का था। मरे चित्रों में आप को काला रंग स्वतंत्र नहीं मिले गा। आप की पेंटिंग में स्त्री छवि ज्यादा दिखतीं हैं जबकि पुरूष नहीं के बराबर हैं यह किय प्रकार का संकेत है?
यह स्वभाविक रूप से आया, सृष्टि किसने बनाया मुझे नहीं पता, शायद सर्व ज्ञानी पंडितों को पता हो! स्त्री को जिसने भी बनाया है यह बहुत ही भयानक किस्म का अन्याय है। पुरूष और स्त्री का निमार्ण इस प्रकृति में जिस तरह हुआ है, वह चरम वैमनस्य का प्रतिनिधित्व है। इस वैमनस्य के कारण मैं स्त्री को अलग ढंग से देखता हूँं। मुझे नहीं लगता की उनके नग्न चित्र बनाऊ। मुझे आश्चर्य होता है ईश्वर पर महिलाओं की आस्था को देख कर। महिलाएं उस ईश्वर पर कैसे भरोसा करतीं हैं जिन्होने उन्हें बनाया है, जिसे रचने में सरलतम संतुलन की भी तमीज़ तक नहीं है। मैं मानात हूँ, इस सृष्टि में एक दिन इस ईश्वर की मौत महिलाओं के हाथों ही होना है। अगर वे नहीं होतीं तो मह नहीं होते यह सृष्टि नहीं होती, बेचारा भगवान तो जंगलों में ख़ाक छानता मिलता।  
आप की पेंटिंग में चिडि़यां होती है, यह किस बात का प्रतिक है?
मेरे चित्रों में चिडि़याँ संकेत के रूप में आती है। एक चिडि़याँ के साथ स्त्री होती है जो एक अनंत संवाद में जुटी हुई हैं। मैं पुरूष होने के कारण उस भाषा को नहीं जानता, दो महिलाएं जो बात करती हैं मैं उस भाषा से अपरिचित हूँ। मेरे चित्रों में चिडि़याएँ शायद उस भाषा को समझती है।
आप की पेंटिंग में संगीत का समावेश भी दिखता है?
मुझे संगीत बहुत पसंद है इस लिए मैंने संगीतकार को केन्द्र में रख कर अनेक चित्र बनाए हैं।  मेरे चित्रों में संगीत अपने वर्ग से जुड़ कर आता है। ‘सडऋक के बच्चे’ श्रृंखला के चित्रों में ढफली, एकतारा, बांसुरी यहां तक की बिजली के खंभों पर पत्थर से जिस संगीत का जन्म होता है वह सड़क पर रहने वाले बच्चों का संगहत है। पेंटिंग के क्षेत्र में आने वाले नए कलाकारों के लिए संदेश?
मेरा यही संदेश है कि जो फैरी लोभ जैसे कोई आप को पदमश्री दिला दे रहा है, कोई आप की पेंटिंग लाखों में खरीद ले रहा है। इन सब जिजों से बचे। युवा चित्रकारों के लिए यह कठिन दौर है, उन्हें हर पल समाज के बदलते चेहरे को समझना होगा। सबसे जरूरी है अब कला दीर्घाओं में दर्शकों का इंतज़ार किए बगैर हमे अपने चित्रों को लेकर जनता तक पहुंचना होगा। 
 भविष्य की क्या योजना है?
पूरी गम्भीरता से कुछ मूर्ति बनाना चाहता हूँ। 2014 मार्च के महीने में मण्डी हाउस, ललित कला अकादमी की बाहरी दीवारें मुझे आकर्षित कर रही हैं। शायद बहुत जल्द आपसे वहीं मुलाकात हो।

यह साक्षात्कार नवभातर टाइम, १४ मार्च २०१४ में  प्रकाशित हैं.
सुभाष कुमार गौतम
मोबाई-9968553816

Wednesday, February 26, 2014

अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले का लाइव ड्रामा…

Subhash Gautam
15 फरवरी, 2014:   विश्व पुस्तक मेला का पहला दिन था. हिंदी के प्रकाशकों को हॉल नं 18 में ठेकाया दिया गया था… जैसे गांव में कुजातीय बियाह (विवाह) के बाद ऊढरी बहुरिया को कोने-अतरे में एक खटिया और दो मैला-कुचैला गुदरा देकर कहा जाता है कि इसे अपना ही घर समझिए पतोहू! तनिक सकेत है. ठीक उसी प्रकार से हिंदी के प्रकाशकों को “कबूतर खाना” में ठेकाया गया था. हॉल नं 18 में पाठकों को प्रकाशकों तक पहुंचते-पहुंचते इतना उंच-नीच हो जाता था  कि चार प्रकाशकों की पुस्तकें देखने और खरीदने के बाद जब पाठक निकलता था तो दम फूलने लगता था. इस हॉल में नीचे में पाठक पुस्तक देखने-खरीने में व्यस्त थे और स्टालों के ऊपर कबूतर खच-मच खच-मच की संगीत कर रहे  थे. माहौल फीका-फीका सा लग रहा था. प्रकाशक इस हॉल में मोटे-मोटे दीवार नुमा पिलर देखकर नेसनल बुक ट्रस्ट को कोस रहे थे. वहीं दूसरी तरफ सुबह कबूतरों लेंडी (बिट) पुस्तक से साफ करने में काफ़ी समय गंवा देते थे. हिंदी के कुछ प्रकाशकों को तो हॉल नं 10 हॉल नं 14 आदि में चकमक प्रकाशकों और अन्य भाषा के प्रकाशकों के बीच में ठेका दिया था.  जहां हिंदी के प्रकाशक चकचोनहरा गए थे. कई प्रकाशक तो अन्य भाषाओं के हॉल में एलाट की गई गुमटी में पुस्तक लगाने से इंकार कर दिया था  और आयोजक नेशनल बुक ट्रस्ट का बिरोध कर रहे थे. हिंदी लेखकों का कोना (आर्थर कार्नर) भी ऐसी जगह केने-अतरे में दिया था, जहाँ पर मंच के ठीक बगल में शौचालय घर था. इस लेखक मंच को देख कर ऐसा लग था कि  हिंदी के लेखक  लिखते कम निपटते (शौच) ज्यादा है.  हिंदी प्रकाशकों और लेखकों के साथ सौतेला व्यवहार का पहली शिकायत नहीं थी, इससे पहले भी हिंदी प्रकाशकों और लेखकों को उपेक्षित किया जाता रहा है.  इस हॉल नं 18 की एक और कहानी है कुछ लोग यहां हस्त रेखा देखे और जन्मपत्री बनाने वाली नक्षत्र संस्था को पूछते हुए आते हैं और गीता प्रेस के स्टाल से हनुमान चालीसा लेकर वापस चले जारहे थे. हिंदी प्रकाशकों की सहूलियत और सुविधा की नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा की गई इस अनदेखी के वावजूद अभी उम्मीद बची थी. हिंदी भाषी खोजते हुए आते थे वह  चाहे कोना-अतरा में हिंदी प्रकाशकों को ठेकाए या कबूतर खाना में. और वैसे भी हिंदी के पाठकों के विवेक और हिंदी से जुडे प्रेमियों पर निर्भर करता था  कि मेला कितना सफल रहेगा.
16 फरवरी, 2014:  दिन रविवार विश्व पुस्तक मेला प्रगति मैदान का दूसरा दिन था. हिंदी प्रकाशक नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा अपने साथ किए गए उंच-नीच को भुला के भोरे-भोरे दंतुअन-कुल्ला के बाद दू रोटी का पनपियाव कर के भागे-भागे पुस्तक मेला पहुंच रहे थे. प्रवेश द्वार पर टिकस खरीदने वाले लोगों की भीड़ देख कर प्रकाशक बहुत प्रसन्न हुए थे कि आज रविवार का दिन है. पुस्तक का रेला-ठेला ठीक चलेगा, पर यहां ठीक उल्टा था. कुछ पाठक खरीदने वाले तो थेड़े बहुत पाठक तसिलने वाले थे. तसिलाने वाले लोगों में खास कर रंगीन पत्रिकाओं के समीक्षक थे. जो कभी कुछ लिखते नहीं प्रूफ और नोकता-चीनी की सफाई करने वाले पक्षकार किस्म के मनई. हिंदी प्रकाशकों का हाल नं 18 में प्रवेश द्वार से घुसने पर चारो तरफ दीवार पर तंत्र-मन्त्र, योग-भोग वाले प्रकाशकों ने अपना बैनर-पोस्टर ऐसे चस्पा किया था जैसे गांव की गोसाई काकी देवाल पर चिपरी पाथती थीं. सबसे अधिक सम्मोहन वाला प्रकाशक गीता प्रेस रहा, जो हनुमान लंगोटी, राम-लखन धोती और खडाऊ पुस्तक के स्टाल में ऐसी भीड़ जुटान किया था जैसे प्रकाशक न होकर तरकारी बाजार का कुजडा हैं. दूसरी तरफ बनवारी लाल प्रकाशकों ने पुस्तकों को इस प्रकार सजाया था जैसे गोहरा पाथ के डाणा (इट नुमा) लगाया हो मानों सूखने केलिए छोड़ा गया है और अषाढ़ के महिना में उपयोग होगा. हिंदी के प्रकाशकों का धंधा गरम नहीं था पर नरम भी नहीं था कुल मिला के ठीक रहा. प्रभात प्रकाशन मान मार के बैठा था जैसे नरेन्द्र मोदी का इंतजार कर रहा हो कि कब सरकार बने और हम माल खपाएं. एक उत्तर कोना में सेमिनार हाल था जिसमे हंसी की पुचकारी विषय पर सेमिनार चल रहा था. लेखाकों का कोना दोपहर बाद ऐसे चल रहा था जैसे जाड़ा में मनई कौऊड़ा तापते हैं, साथ में कसी गंभीर समस्या पर बतकूचन करते हैं ठीक उसी प्रकार था. मेले के दौरान लेखकों में पुस्तकों की कम फेसबुक और टूटर नामक अवजार की चर्चा अधिक हो रही थी. एक साहित्यकार तो कह रहे थे कि फेसबुक ने लोगों के लेखक बना दिया है. छात्रों को प्रवेश के लिए पहचान-पत्र दिखाने पर 50% की दी जाने वाली छुट इस बार ख़त्म कर दिया है. टिकस खिड़की पर पूछने पर बाबु बोला कि केजरीवाल ने छुट ख़तम कर दिया है. प्रगति मैंदान में चाय 20 रुपया से शुरू होकर 80 रुपये तक की थी, जिसका मूल्य पूछकर लोग वापस चले आते थे, कुछ मज़बूरी में पीते भी रहे थे. पानी का नल तो ऐसे बंद पड़ा है जैसे रविश कुमार की रिपोर्ट बंद हो गई हो. जनता को अपना झुराइल गला तर करने केलिए मात्र 30 रूपये खर्च करना पड़ता है. इस साल प्रकाशित पुस्तकों में ज्यादातर पुस्तकें कविता की हैं.
17 फरवरी, 2014:   विश्व पुस्तक मेला का तीसरा दिन…  दिन सोमावर जो बनारसियन खातिर यह महात्म का दिन होता है. गेट नं 8 से लेकर हाता नं 18 तक हिंदी की गुमटियों तक पहुंचने के लिए ललका IMG_2048चटाई बिछा था. ठीक 1 बजे हाता नं 18 में अंदर ढूके तो पता चला कुछ गुलजार है. सामने देखा तो आलोचना के शंसाह नामवर दा विराजमान हैं. नामवर दा को तन्त्र-मन्त्र पुस्तकों के ग्राहक एक बार चिहा के देखता और किसी हिंदी के सजन से पूछता की ई कौन शायर हैं. उत्तर मिलते ही मूर्छित हो जाता था. मूर्छित होने के बाद भागल-भागल गीता प्रेस में संजीवनी पुस्तक खोजने लगता था. मेला घुमते समय एक दिलचस्प नजारा देखने को मिला. लगभग हर प्रगतिशील गुमटियों (स्टाल) के साथ एक तंत्र-मन्त्र, धर्म-कर्म की गुमटी देखने को मिली. ठीक उसी प्रकार जैसे मोदी सर्वधर्म संभव सभा में कुछ लोगों को जबरन जोलाहा टोपी पहना दिया जाता है. ज्ञानपीठ प्रकाशन, अंतिका प्रकाशन अदि के सामने कोई “स्वदेशी” प्रकाशन हैं, जो पुरे दिन गाय माता मूत्र का प्रचार बजा बजता रहता है. बिच बिच में यह निर्देश भी देता है की अगर गाय माता मूत्र उपलब्धता न होतो अपना भी सेवन कर सकते हैं. उनके लगाये गए पोस्टरों और पर्चो में भी भगवान है. कुछ प्रगतिशील गुमटियों में उपर से पानी टपक रहा है जैसे प्रगतिशील न होकर सीलन गुमटी बन गई है. प्रगतिशील प्रकाशकों के साथ होने वाला इस व्यवहार से प्रेरित होकर जनचेनता की मालिकिन व कवित्री कात्यायनी जी ने कल एक दरखास भी लिख दिया जिस पर प्रगतिशील प्रकाशक व प्रगतिशील जनता का हस्ताक्षर बाकि है. हर प्रगतिशील प्रकाशकों की गुमटियों के अगल-बगल से अनुमान लंगोटी गीत संगीत की छटा तो ऐसे बिखर रही है जैसे पुस्तक मेला न हो के शोर कल्ब हो गया हो. हाता नं 18 और 14 के सामने एक परती नुमा पार्क है जिसमें एक टोटी वाला नलकूप जहा मेलहा लोग उसका पानी मुह में लगते ही चिचिया के भागता है . ठीक वैसे ही जैसे “टाम एंड जेरी” अभिनय करते हैं. आधार प्रकाशन व स्वराज प्रकाशन का हाता नं 18 में गुमटी है और उनकी किताबों का लोकार्पण हाता नं 14 में हुआ. बहुत सारे लेखिका और लेखक की किताबों का लोकार्पण और चर्चा हुआ. खास कर दो लेखिकाओं का नाम लेना चाहूँगा जिनके लिए यह सिर्फ पुस्तक कोकर्पण नहीं था यह आयोजन ऐसा था जैसे बेटा का बियाह में नहछुआ के लिए धवरी-धवरी गांव में दुलहा की मतारी बुलावे खातिर हाथ जोड़ती अंचरा धर गोड लगती और गुहार करती ये काकी ये मौसी चली नहछुआ होने जरह है. यह लेखिका रंजना जैसवाल और अल्पना जी थी जो लेखिका कम इन्सान जायदा हैं. इसी तरह जयश्री राय और कविता जी भी हैं. कल के आयोजन में सबसे अधिक लेखिकाओं की पुस्तकों का कोकर्पण हुआ और उसपर टिप्पणी करने वाले पुरुष थे. शिल्पायन प्रकाशन के तरफ से हिंदी में साहित्येतर लेखन और प्रकाशन: दशा और दिशा विषय पर सत-गोटी हुई. हिंदी साहित्य का दाशा (दशा) तो ख़राब हैं, दिशा/रुख लेखकों ने अपना लेखा जोखा रखा… राजकम प्रकाशन के तरफ से जाने माने रंगकर्मी पुयुष मिश्र ने अपनी लिखी गीतों गायन किया साथ में हरमुनिया भी बजाये पर पर उसकी आवाज़ कम थी. सामने हनुमान लंगोट पुस्तक भंडार को देख कर मिश्र जी हतास हो गए थे या हरमुनिया का पर्दा मा छेदा हो गया था तनिक उसकी आवाज़ कम मिकल रही थी. अंत में मिश्र जी से लोगों ने सवाल नहीं उनकी तारीफ ही तारीफ की, एक जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय के छात्र ने तो तारीफ की हद करदी उसने कहा की जेएनयू में सबसे अधिक आपको सुना जाता है, मतलब पियूष मिश्र का फिलिम देखते हि नहीं है लोग… दूसरी बात की अगर मिश्र जी को जेएनयू में सबसे अधिक सुना जाता हैं तो यह क्रांतिकरी बिद्रोही भाई की तौहीनी है. शाम के समय विविके नन्द पर पुस्तक लिखने वाले लेखक श्री नरेंद्र कोहली जी का व्याख्यान हुआ एक संजन ने कहा की नरेद्र भाई कल शाम को दिल्ली आए आज चल कर यहाँ आये. केखाक कोना में नरेंद्र कोहली का भाषण था. शाम को प्रगति मैदान में अगर पिपिहरी बजा कर चौकीदार सब कोहली जी का भाषण बंद नहीं कराया होता हो शायद वो रात भर बोलते सबसे अंत में हाता नं 18 से उनको सुनने वाले और नरेंद्र जी निकले…
18 फरवरी, 2014:    विश्व पुस्तक मेला का चौथा दिन… प्रगति मैंदान मेट्रो स्टेसन और बहार सड़क में लगे बैनरों, पोस्टरों में पुस्तक मेला की कोई चर्चा नहीं. नेशनल बुक ट्रस्ट इससे पहले दो चार पोस्टर बैनर चस्पा कर दिया करता था, जिसे पिकनिक स्पाट को जाने वाले यात्री उतर कर पुस्तक मेला का दर्शन कर आते थे सो इस बार नहीं है. मेट्रो स्टेसन और बहार की सड़कों पर “अमेज़न डाट इन” का विधुतीय किपात पढ़ींए (इ बुक रीडर) का मशीन का विज्ञापन ज़रुर लगा है, जिसको जनता चिहा के देखती है. इस पोस्टर को देख कर एक दम्पति हाता नं 12 में पूछते पूछते पहुंचे. “अमेज़न डाट इन” के गुमटी से बीबी कोहना को भागी और बोली की 40 रुपिया भी गया और कुछु भेटाया भी नहीं. मेला में अगर आप लेखक/कवि है तो इस सदमे में मत रहिए की आप का भाषण/व्याख्यान/कविता संगीत मेला ठेला में कोई सुनने आयेगा. अपना श्रोता अपने साथ लेके चलिए. अगर आप दिल के कमजोर है तो मेला नहीं पार पईएगा दिल की बीमारी हो सकती है. आईए एक और बात बताते हैं. हाता नं 14 के सामने एक खाना-पान, चाय-साय का चौपाल लगा है. उस चौपाल पर लेग जाते है और चाय काफ़ी का दाम पूछ कर वाह से ऐसे भागते है जैसे किसी गुप्त क्लिनिक की दुकान से सभ्य आदमी पोस्टर देख के भागता है. चाय का दाम मात्र 70 रुपिया है. हाता नं 12 के सामने भी एक चाय की दुकान है जहां पर चाय काफ़ी का दम 30 रुपिया है. इस मामले को जानने केलिए हाता नं 12 में ढुक गया. एक पुस्तक बेचन वाली गुमटी देखि बहुत झालर मलार लगाया रहा और गुमटी के सामने ललका फीता से घेर दिया था और लिख दिया था नो इन्ट्री… मैंने कहा जब गुमटी लगाए भैया तो बेचते क्यों नहीं. आगे बढ़ा ओशो बाबा का गुमटी था एक सुंदर कन्या ललका पोसाक पहनी थी और किसी से गले ऐसे मिल रही थी, जैसे लोग विदाई के बाद भेट-घाट करते है. गनीमत थी की रो नहीं रही थी. मैंने सोचा इसका कोई करीबी या रिश्तेदार होगा. मैंने भी गुमटी में ढूका. उस गुमटी में चाकबादुर जैसे चिहा चिहा के देख रहा था. कि एक स्त्री ने मुझे ओशो की पुस्तकों के बारे में बताने लगी तभी भेट-घाट करने वाली युवती बिच में टपक पड़ी और बोली सन्यासी जी को मैं बता देती हूँ. सन्यासी जी को बातों-बातों में, आंखों आंखों में, ओशो के विषय में बिस्तर से बताया थोडा देर में अंदर ही अंदर उछ्नर होने लगी सोचने लगा कि कैसे पीछा छुडाऊ. खैर वह दिव्य छड आ ही गया जब मैं भनभना के भागने लगा. युवती बोली सन्यासी जी! गले मिलने के लिए मेरे कंधे तक उसके खुबसूरत हाथ पहुंचे ही थे कि मैं हड़बड़ी में हाथ जोड़ कर बोला माते फिर कभी आता हूँ और रोकेट की तरह वहा से उड़ा. बाप रे बाप यही लोग सन्यासी को बनबास बना देते हैं. सोचते हुए घर पंहुचा. अब किसी माजार पर जाने की ज़रुरत पड़ गई है…
19 फरवरी, 2014:   पांचवे दिन…  पुस्तक मेला के हाता नं 18 में अभी घुसबे किये थे कि दुरे से देखा कोई बुढा पहलवान दुगो नन्हा पहलवान अगले बगले लिए राजकम में दंगल के लिए जा रहे थे. जो जानेमाने पहलवान थे पर कभी मुकाबला नहीं करते और अगर इनसे कोई मुकाबला किया तो समझो जीवन भर दंगल का लायक नहीं रहा. दुआ सलाम हुआ, अब नन्हा पहलवानों में एक सिकिया पहलवान जुड़ गया. बाबा भोरे भोरे रेल से पहुंचे और नाहा-धो के पनपियाव करने के तुरत बाद चल पड़े थे. आज वो दूल्हा भी थे और समधी भी- “दुनिया को अपने… रखकर मस्ती में रहना… दुनिया और हम बजाए हरमुनिया” लेकिन आज मुरलिया वाले बाबा की इन्होंने पिपिहरी बजादी वैसे तो इसकी चर्चा बहुते जगह हो गई है. सुने में आया कि यह पुस्तक मा मुरलिया वाले बाबा की क्या इजरी पिजरी कर दिए हैं. भेदिया-धसान वाले भक्तों को पढ़ना चाहिए. लोग कहते है हीरा कहीं भी रहे चमकता ही है. निपटान को पूरब टोला के तरफ गया तो देखा की डायमंड पब्लिसिंग की गुमटी थी. शौचालय के बगल में जो चमक नहीं भभक रही थी. पूरे पुस्तक मेले में “नमो मन्त्र” से लेकर नमो मूत्र औषधि तक बिक रहा है. आशाराम जेल में मॉल उसका सेल में धका-धक चल रहा है. पुरुषों, स्त्रियों, युवा और युवतियों को सफ़ेद पोशाक पहनाकर काले कारनामे कराए जा रहे है. इसी प्रकार हिन्दयुग्म प्रकाशन के गुमटी में किसी सन्यासी ने ज़बरजती “नमो मन्त्र” औषधि की चार शीशी रखवा दिया है. इस शीशी को शैलेश जी जब जब देखते थे भनभना उठते थे. आज मनो हुंकार एवं फुफकार लेखक सम्मलेन भी हो रहा था, जिसमें कोई पोहटर बेनर नहीं था. जिन जिन को लेखक बनना था वो उस गुप्त रैली में बैठे थे. प्रथम लेखक नमो परियोजना 20 लाख की है जो “नमों और नरसंहार देश हित में” लिखी जानी है. ऊपर से एक लाख पुस्तक की खरीद-फ़रोख्त रायल्टी अलग से हैं. जैसे लेखक कोना-अतरा में फुफकार शुरु हुआ कुछ वामपंथी लमपंथी करने लगे. कुछ प्रगतिशील लेखकों को पता ही नहीं था की यह फुफकार लेखक सम्मलेन है, जिसमें किसी नमों मन्त्र-जंत्र कथा कहानी उपियास की चर्चा है जिसका खर्चा कर्ता-धर्ता कक्ष और भक्ष है. फिर प्रगतिशील लेखकगण फुफकार सुन कर धीरे धीरे ऐसे घिसकने लगे जैसे गाँव में आटा-पिसान देने के डर से लोग मदारी देखने के बाद घर में घुस जाते है. लेकिन एक हमरे भाई साहब थे उनको तो जंतर बांध दिया. पुस्तक मेला का सबसे महत्वपूर्ण स्थान मीडिया स्टडीज ग्रुप, जहा जन मिडिया पत्रिका मिलती है, वहां जो पहुंचता जड़ जमा लेता क्योंकि अनिल दा जब आते हैं एक खाची पकोड़ा-पकोड़ी, इस्कुट-बिस्कुट और रोटी में लगा के खाने वाला जाम-शाम लाते हैं. वहां चाय भी भेटा जाता है. फुल प्रूप जनता दरबार है. वहां आप मिडिया की कारगुजारी से लेकर कारखाना पर बहस-मुबाहिसे कर सकित हैं. अन्य किसी गुमटी में तो पानी और बिस्कुट भी नहीं भेटता है. शाम को दिल्ली के हसीन कवि प्रो. अशोक चकचक जो कुछ समय पहले भचकत रहें. क्योंकि साईकिल का स्वाद लेने सुबह सुबह निकले थे कि किसी कार वाले ने थोकरिया दिया था. मेला के समय स्वस्थ होके आज लाफिंग कवि कलीनिक का अकेले मजमा लगाए रहें साँझा तक. इस कवि ने अपना एक गुप्त राज भी बताया कि फेसबुक पर कसी महिला/पुरुष ने मुझे बेटा कहा और मुझे अति प्रसन्नता हुई. कृपया जनता से आग्रह हैं कि आप कविता पढ़ते समय न कहे वर्ना बच्चा स्कुल जाने लगेगा. इस हसीन कवि की कल्पना क्या तारीफ करू कल्पना इन्होंने कुकुर पर इतनी जबरजत कविता सुनाई की श्रोता कविता नामक हड्डी देख जाने का नाम ही नहीं ले रही थी संजोग की जरनेटर बताना पड़ा.
20 फरवरी, 2014:    मेले का छठा दिन… हाता नं 18 में अथर कार्नर पर राजकाल प्रकाश से प्रकाशित पुस्तक “तिनका तिनका तिहाड़” का लोकार्पण और परिचर्चा शुरू ही हुआ था कि किसी उजबक ने कान में मुह सटा के बोला ‘बहुते खर्चा भरा पोग्राम हैं जी, फुल-पत्ता सतरंगी खटिया (चारपाई) बहुते जबरजत है कुछ लोग तो यही सब देखन आया होगा’. दूसरा बोला बुडबक ‘तिहाड़ जेल का महिला कैदिया सब भेजवाई हैं सुश्री वर्तिका जी को आज बिहार करने के लिए. वैसे तो इस पुस्तक की संपादक/आथर विमला मेहरा भी थीं जो आथर कम पाथर ज्यादा लग रहीं थी. उनका व्यक्तित्व व संघर्ष झांक रहा था तो दूसरी अथर का छलक रहा था. यह किताब अद्भुत है. पहले देखि फिर संघर्ष के पश्चात वाचिए. इस किताब में एक अनूठा प्रयोग है दो पेज आपस में चिपके हुए है. जिसे पढ़ने केलिए पन्नो को खोलना होगा, ठीक वैसे ही जैसे किसी को रिहा किया जाता हैं. जिसका इस्तेमाल वर्तिका जी ने बताया. जनता ने चिहा के देखा और कहा यह तो ऐसे दिखा रहीं है जैसे सोटा (सर्फ़) का व्यवसाइक प्रचार (विज्ञापन) कर रहीं हैं. खरीदते समय इस कितव में पाठक सिर्फ फोटू देख सकित हैं अंदर का सामग्री नहीं बाच नहीं सकित हैं. इस किताब का पन्ना बिना ख़रीदे फाड़ दिए तो पुस्तक को खरीदना अनिवार्य हैं, वर्ना तिहाड़ का विहार करा दिया जायेगा. विमला जी ने थोडा बोला और पाठक ने ज्यादा समझा जैसे चिट्टी में लोग लिखते हैं “मई के मालूम की हम ठीक बानी थोडा लिखना जयादा समझाना” ठीक वैसे ही. दूसरी लेखिका ने अपने भाषण में कहा की “हमको माइक के सामने कुछ-कुछ होता है”. मंच पर एक भारी लेखक, पक्षकार, भाषा विज्ञानी जिन्होंने आजतक टीवी की भाषा को आम से खास बनाया इतने तारीफ के पुल बांधने के बाद एंकर चोकर के बोला यहां कबर वहिद नक्वी जी हमारे बिच हैं. भाई जब कबर ही खोदना था तो इतना तारीफ में टीला काहे खड़ा किए, साथ में सुश्री वर्तिका जी को भी एक्टिविस्ट बता. इस पुस्तक की रायल्टी/ पारिश्रमिक किसको दिया जायेगा यह बात मैंने नहीं सुनी क्योंकि यह सब बात सुन नहीं पता. जो इस पुरे आयोजन की सबसे अच्छी बात थी.  हाता नं 18 से बहार में रोज भोरे-भोरे फोर्टिस हास्पिटल का एम्बुलेंस हिंदी लेखकों को बीमार करने के इंतजारी में खडी रहती हैं. ठीक वैसे ही जैसे महापात्रों (महाबाभन) की बेगमे भोर में सील-बट्टा (सीलवट-लोढा) उलट कर कहतीं हैं कि हे महापात्र भगवान आज कोई बड़का जजमान परलोग सिद्धारे और सवा-सवा कुंटल चावल, दाल पिसान मिले घर के डेहरी में रखने की जगह भी न बचे. लेकिन संजोग की हिन्दी का बुजुर्ग लेखक भी बहुत चतुर हैं. पुस्तक मेला में आता ही नहीं है। जेब कटाने केलिए एनबीटी एमबुलेंस बुलाले या हास्पिटल…  हाता नं. 8 में साहित्य मंच बनाया गया है, जो दखिन कोना में स्थित हैं खास कर कुजात चर्चा के लिए. जहां से कोई हवा-बतास सवर्णों में न पहुच सके. इसी कुजात साहित्यिक मंच में दलित लेखक मोहन दास नैमिसराय कि पुस्तक ‘‘भारतीय दलित आंदोलन का इतिहस और भविष्य’’ पर चर्चा थी. लेखक न मोहन हैं, न दास हैं, न नेम हैं, वह सिर्फ व सिर्फ सराय हैं. सराय जी के सराय में हर वर्ग के लोगों का स्वागत होता है. वहा हर चिज दिखती है बिकती नहीं है- जैसे यह पुरस्कार मैंने लंदन में पाया था, इसे जर्मनी से लाने में बडा खर्च हो गया. पहले मैं चपल पहन के पैदल चलता था, साइकिल से चलता था अब कार से चलता हूं! यही उनका संघर्ष हैं. सराय के सराय में दलित लेखिका अनीता भारती को जब बुलाया गया तो बड़ा सोच विचार में थीं कि उनको इस सराय यात्रा में क्यों बुलाया जा रहा है पर पहुंचते उनको उनका जबाब मिल गया. दखिन टोला सराय में दलित ब्राहमण बजरंग बिहारी जी को संचालन दिया गया था. उनकी गति पवन सूत जैसी नहीं थी पूछत-पाछत पहुचे कोई कह रहा था कि नाम के सिर्फ हनुमान इनका बस चले तो संजीवनी पहाड़े फुक देंगे. इस आयोजन के वक्ता यह सोच के तय किया गया होगा की यह लोग अपने कुछ साथियों को बुलाएंगे या कुछ फलोवर पहुंच जायेंगे पर ऐसा हुआ नहीं. भगवान दास मोरवाल को भी बुलाया गया थायह सोच कर की रेत का खेत बढ़िया जोतते और हेंगाते है. वह भी मन मसोस के इस तेर के खेत में पहुचे थे पर उन्हें भी निराशा हाथ लगी. तुलसीराम के साथ जेएनयू से दस छात्र उनको सुनने आते थे उस समय कोई अटेंडेंट भी नहीं था. सराय जी से दो चार लोग आक्रांत थे इस लिए की वो भाषण देते हैं तो बाखोर लेते हैं लेकिन वह प्रकाशक के प्रति इतना कृतज्ञ थे कि कुछ बोल ही नहीं पाए. दलित भविष्य पर कम पुस्तक के भविष्य पर उन्होंने दो बात कहीं पहली बात-पुस्तक के विषय में समीक्षक लिखेंगे और दूसरी बात कि पुस्तक देश की प्रमुख पुस्तकालयों में पहुचेगी. सच कहा सराय जीने पाठक तो बोझा खरीदने से रही. अवजार खरीदने वाले पांच लोग बैठ के यह भाषण सुन रहे थे, हमको लगा पचमंगारा बियाह हो रहा है. पचमंगारा बियाह की स्थिति समन्वय के अंतर्गत हुए रंगमच पर चर्चा की भी थी. शाम को समन्वय के अंतर्गत नाटकीय/ नाच-गाना के विशेषज्ञों को भाषण लिए बुलाया गया था, पर यह समन्वय का आयोजन कम विनमय आयोजन ज्यादा था. दो विशेषग्य भाग पराए थे पहुंचे ही नहीं. ठोस वक्ता अमितेष जी दुगो लुहेड़ा श्रोता लेके पहुचे थे, वर्ना कोई सुनने वाला नहीं था और जिनको सुनने के लिए बुलाये थे ऊ लोग अफना-अफना के पुस्तक मेला खोज मारा समन्वय मंच नहीं मिला. किराया भारा भी बेकार चला गया. अमितेष जी से मुलाकात मेट्रो में चढ़ेसमय हुई. इस आयोजन में श्रोता की बात छोडिये वक्ता भी दुगों सुने कही से जुगाड़ा के लाना पड़ा. यह आयोजन दो ठोस और दो द्रव्य वक्ता मिल के निपटाए. पुस्तक मेला में आप को दफती चपकाए हुए भी कुछ लोग मिल जायेंगे वक्ता/विशेषग्य उपलब्ध हैं! यह काहे हुए की कहा करना है! भाषण. इंदौर से आए सत्यनारायण पटेल की पुस्तक का लोकार्पण था. जनता खचमच-खचमच किए रही, अब होगा की कब होगा, कोई बोला लोकार्पण पुरुष की मेट्रो ट्रैफिक में हैं पहुच ही रहे होंगे. सतु का परना सुखाईल जा रहा था. किसी ने कहा की गेट नं पिछवाड़े लोकार्पण पुरुष पहुंच गए हैं तब सतु का जान में जान आई. साँझ को दुलरुआ लेखक किसी स्त्री लेखिका के उपन्यास पर चर्चा किए जो खर्चा रहित था. कविता सुनने व देखने वालों भी भीड़ साँझ को अच्छी रही क्यों कि एफम गोल्ड की रेडियों फुकनर (उद्घोषक) लटकन झटकन कवीत्री ने भी अपनी कविता पढ़ी जो पढ़ नहीं पातीं है उन्होंने ऐसा खुद कहा. अंत में कविता के साथ बाजार का सेंसेक्स 7 दशमलव 48 बजे पर गार्डो की बजाई सिटी के साथ बंद हुआ.
21 फरवरी, 2014:   सातवां दिन… हाता नं 18 का आर्थर कार्नर पाथर नहीं गुलजार था. क्योंकि “बाग़-ए-बेदिल” का दिल-ए-नादान कल्बे कबीर (कृष्ण कल्पित) वहा शुक्रवार की नमाज़ आदा करने वाला पहला मुसलमान था. कल्बे कबीर को देखने सुनने भारी मात्र में लोगों का जुटान था लोग चिहा चिहा के “बाग़-ए-बेदिल” को देख रहे थे. यह पुस्तक पढ़ने और युद्ध में कपार फोरने दोनों में उपयोग गो सकती है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया के वामपंथी फरार थे. समय से न पहुंचने वालों को नमाज आदा करने की मनाही थी. पुस्तक “बाग़-ए-बेदिल” के विमोचन का मामला था इस लिए कवी/शायर अशद जैदी को कल्बे कवीर ने कैदी बना दिया था. डिजिटल पोइट्री /वर्चुअल पोइट्री के अवजार से कल्बे कबीर ने साहित्य जगत व पक्षकारिता के लोगों की इजरी-पिजरी से पेट-पिछवाडा ख़राब करने वाले पहले शायर/कवि हैं. दूसरी नमाज आदा करने कल्बे कबीर बाग़-ए-बेदिल पहुचे थे इसमें कोई शक नहीं वह पक्का मुसलमान हैं. जब छोटकुआ कवि अशोक पण्डे के साथ बाग़-ए-बेदिल मम्मान में बाग़-ए-बेदिल मज़ार पहुंचे. मटका पीर के ओह तीर डांक के पहुचे. पुस्तक मेला में लेखक लोग आंचा-पांचा, चमड़ी-दमड़ी के जुगाड़ में लगे हुए थे औए एक पंचमंगारा बियाह जैसे पांच लोगन के उपस्थिति में कल्बे कबीर बाग़-ए-बेदिल सम्मान से अशोक पण्डे को सम्मानित कर रहे थे. यह पुरस्कार साहित्य अकादमी के पुरस्कार से भी बड़ा था, क्योंकि इस सम्मन में अशोक पांडे को अल्कौसर, स्वेत लम्ब दंडित और “बाग़-ए-बेदिल” पुस्तक भेट दी गई. पुरस्कार वितरण के बाद इस पाक स्थल पर अशोक पण्डे को नमाज अदा कराइ गई और उन्हें एक मुसलमान का दर्जा देकर रिहा कर दिया गया. इस अवसर पर अजन्ता देव और अशोक पण्डे ने अपनी कविता भी पढ़ी. बाग़-ए-बेदिल की खोज कल्बे कबीर ही कर सकते हैं क्यों वो एक अच्छे पुरात्ववेत्ता कवि हैं. यह स्थल बहुत ही रमणीय हैं, गजोधर कवि जब कभी मौका मिले जरुर जाएं. किताबों के ऑन लाइन बाजार पर शैलेश भारत बासी ने चर्चा की जो अभी ठीक से आँफ हि नहीं हुए ऑन होने की सोच रहे हैं. राजकमल में पिता ऑफ़ व्यापार हैं तो बेटा व्यापार ऑन होने की सोच रहा है. वाणी प्रकाशन को तो छाडी दीजिए वो बाप बेटी कब ऑन होते कब ऑफ़ यह सिर्फ पुस्तकालयों को पता होता है. इस आयोजन में रंग लगाने रंगनाथ बीबी…. सी जी भी पहुंचे थे, मंच रंग रंग रहा. भरी दुपहरिया हाता नं 18 में अशोक बाजपेइ, मनेजर पण्डे, केदारनाथ जी “हिंदी साहित्य का अतीत और वर्तमान ” की चर्चा किया. इस चर्चा को सुनकर जनता भारी कन्फुज हो गई क्यों कि हिंदी वर्तमान है या भविष्य इसी में डिसफुज हो गई. नन्हा आलोचक/कथाकार संजीव कुमार जी इस आयोजन का संचल करते हुए कहा की मैं प्रश्न उछलूंगा और आप सभी बरिष्ठ जुझिए गा. अशोक बाजपेइ, मनेजर पण्डे, केदारनाथ जी प्रश्नो से जूझते कम कूदते ज्यादा नजर आए. नमो मूत्र औषधि भंडार से लौटते हुए संकट नोचन व्यक्ति ने मानेज पण्डे द्वारा छिनरा राम-लक्ष्मण की आलोचना करने पर भांग भभूत बन बैठा, पण्डे जी का तो जाने लेलिया होता, अगर जनता उसकी इजरी पिजरी नहीं करती. आथर कार्नर में चाकर कथाकार उदय प्रकाश साँझ के समय पालगोमरा के स्कूटर लेकर पहुच गए. एक-एक कल-पुरजा टायर से लेकर टूब तक के बारे में बता जो बेहद रोचक रहा. उन्होंने बतया की पलगोमारा का बचपन का नाम “ई” रहा, जवानी में “ऊ” रहा, गाँव में लोग “चू” कहते थे आब मैं ताल ठोक के अपने को पलगोमारा कहता हूँ. हम तो देखते भाग गए पालगोमरा का स्कूटर में सैलेंसर नहीं था. बहुत भोकार मारने वाला था. शुक्रवार के संपादक विष्णु नगर जी के गागर से निकली पुस्तक “जीवन भी कविता हो सकता है” का विज्ञापन विश्वनाथ त्रिपाठी ने अंतिका प्रकाशन के गुमटी में किया. वर्तिका तोमर नामक कवित्री की पुस्तक का विज्ञापन वर्तिका नंदा जी ने अंतिका प्रकाशन में किया. विष्णु नागर वैश्विक ताकतों के खिलाफ व्यंग भरी कवितओं जनता जनता को खरीद फरोख्त से आगाह किया. मीडिया स्टडीज ग्रुप के फुटपाथ पर देर से पहुंच, अनिल चमडिया दा ने ज्ञान मिला तो दिया पर पौड़ी के मरहूम रहना पड़ा. बाजार बेहद निराशा जनक रहा चस्पा चस्पा पुस्तक के जुगाड़ में पाठक भी देखे गए.
22 फरवरी, 2014:    आठवां दिन… हाता नं 18 का आर्थर कार्नर में आ गई थी हरियाली, कुछ आर्थर कतार भारी निगाह से तो कुछ कनखियां से देख रहे थे. गजोधर, चटोधर, सकोधर, भकोधर कवि लोगन DSC_0119पुस्तकन का लोकार्पण मानो अइसे कर रहे थे जैसे जुर्योधन द्वारा द्रोपदी माता चीरहरन. कार्नर में बैठी जनता द्रोपदी माता के इस चीरहरन पर थापर-थापर थपरी पिट रही थी. कुछ स्त्री-पुरुष लेखक-लेखिका तो अपने साथ थपरी बजाने वालन के भी लाई रही. जिनमें खास कर उनकी नौकरानियां शामिल थीं. इस संग्रह में उस पर भी चार कविता भी लिखी थीं. स्त्री-पुरुष कतारबद्ध होकर खड़े थे अपना अपनी पुस्तक का ठोंगा लेके अपनी पारी के इंतजार में. अपनी कविता संग्रह का अनावरण करने के बाद एक कवीत्री ने अपनी सहेली से कहा ये सखी हम तो कुछु बोली नहीं पाए, उनको देख के लाजा गई. दूसरी तरफ अंतिका प्रकाशन के गुमटी नं 88 में ननकुआ कवि (अरविन्द जोशी) एक चित्र खीचाने के साथ मित्र को सहयोग राशी के साथ अपनी कविता संग्रह “मैं एस्ट्रोनाट हूँ” पर हस्ताक्षर के साथ अन्तरिक्ष यात्रा पर ऐसे भेज रहा था. ननकुआ कवि किताब पर शियाही वाली कलम से हस्ताक्षर कर के फूक-मार के सूखाता फिर अपने सिने में चपकाता और संग्रह को देता तो लगता था की अपनी प्रेमिका को किसी को सौप रहा है. पुस्तक मेला के स्त्री-पुरुष कवि लेखक मंच नामक ग्रह पर बौडीया रहे थे और ननकुआ कवि अंतरीक्ष में रोकेट में बैठ के मौज मार रहा था. ननकुआ कवि के एक और परिचय उसने हमको अपना पाहून स्वीकार लिया मैंने भी लगे हाथों एक दूसरा पहाड़वाद शुरु किया हैं जिस को भी शामिल होना है इस पहाड़वाद में शामिल हो जाओ, अगला मुशायरा 21 मार्च को इंडिया हैबिटेट सेंटर में करना है, जिसमे ननकुआ कवि का बर-बरछा, तिलक-बियाह, गौऊना-दोंगा और विदाई भी करना है. क्यों कुल जमा अभी तक उत्तराखंड का यही पहाड़ी है जो मुझे अपना पाहून मानने को तैयार हुआ है, तो भाई हमको भी तो अपना रिश्ता निभाना है. वैसे ननकुआ कवि की पुस्तक का लोकार्पण रविकांत भाई और युवा कवि आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव ने अंतिका की गुमटी में किया, जितेन्द्र भाई हमरे आग्रह पर अपने बड़का भाई का फ़र्ज आदा किए. इसी गुमटी में लीलाधर मंडलोई काका ने मेरे कामरेड गुरु स्व.अरुण प्रकाश की पुस्तक “कहानी के फलक” पुस्तक का लोकार्पण किए. साँझा को लेखक मंच पर एक कवि टंच होक चढ़े, जैसे ही अपनी कविता पढ़ने केलिए जेब से कागज निकले की पीछे से आवाज आई, ससुरा नून-मसाला, धनिया-जीरा, सोठ-हरे मग्रैल का पुरजी निकाल रहा है क्या. कविता तो ऐसे पढ़ी जैसे अलवात मेहरारू कहर रही हो. कल पूरा दिन मेला में कविता ही कविता का संसार था. हाँस्य कवि फांस कवि बन गए थे. अभी तक कविता सुना के लोगों को हंसाया करते थे पर शनिवार को उनको कवियों ने कविता सुना-सुना के पका दिया. बाग-ए-बेदिल के लेखक कल्बे कबीर पुस्तक मेला छोड़ जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपनी कविता की सूक्तियां बाच रहे थे. हिंदी कवियों की कविता कल रही तेल में और ननकुआ कवि की ढेर सारी कविता संग्रह हस्ताक्षर के साथ सेल में, “या अदब तेरे कौसर में न तल्खी थी न मस्ती” इसी के साथ हिंदी साहित्य का बाजार बंद हुआ. नोट- अगर किसी के साथ उच्च-नीच हो जाए तो बनारस की ठंढई पीके भुला दीजिए. अइंचा-पइचा, इजरी-पिजरी का महिना है…
23 फरवरी, 2014:     विश्व पुस्तक मेले का नौवां यानी आखिरी दिन…  हाता नं 18 का लेखक मंच पर मौलवी साहब का भाषण हो रहा था, विषय “वेद और कुरान कितने दूर कितने पास” भाई जिसे लिखा ही गया है मनुष्य को बांटने केलिए, मौलवी जी वेद और कुरान को मिलाने चले थे. इतने में वहा की बत्ती होगई गुल. लेखक मंच पर शाम तक बत्ती नहीं जली सकी. हिंदी के लगभग सभी आयोजनों के वक्त बदल गए थे, क्यों की मेले में कोई जलवा नहीं राह गया था. वक्ता लोग जब नहीं आए तो किसी को खपाया गया किसी को ठेकाया गया. क्यों की आज नौवा था. इस लिए लेखक/लेखिकाओं का पांव भारी हो गया था. दिन भी तो रविवार था. कोई पति तो कोई पत्नी की कर रहे थे/थी सेकाई और दवाई. आज के दिन लेखक मंच में वक्तओं का ऐसा हाल रहा जैसे लानटेन का बर्नल कभी भक दे जलता था, तो कभी बुतात जाता था. वक्तओं में कोई अह्नुआइल, कोई भकुआइल, कोई भक-भकाइल रहा. “युवा लेखन” पर हो रहा था भाषण युवा लेखक तो ऐसे गोटिया के बइठल थे जैसे जुआ खेल रहे हों. सुनने वाले कोई नहीं था, कुछ जनता देखन वाली थी. जिनको यह भाषण गमकऊआ तेल के जैसे कापार के ऊपर से उर रहा था. शोषण  मीडिया (सोसल मीडिया) विषय पर गर्दा-गर्दी चर्चा हुई एक वक्ता ऐसे भी थे जो शोषण मीडिया की बात छोडिये पोषण मीडिया के कऊआ तक नहीं जानते थे. जेएनयू के बाबा ने अच्छा प्रवचन दिया. हडहवा महटर चार पोछिटा चेला के साथ भर बाजार घूम लिए और एक तरकारी भी नहीं ख़रीदे. छोटे प्रकाशकों के लिए पुस्तक आज तरकारी बाजार था. रेल का मॉल सेल में, अंतिका प्रकाशन ने भारी मात्र में कर दिया छुट उस पर भी उसे करना पड़ा पुस्तक लेजाने के लिए दो ऊंट. मध्य प्रदेश से आया था युवा लेखकों का गोल वो नहीं करते थे किसी किताब पर मोल, वो लेखक कम मदरसिया जयादा थे. सुनील और सत्यनारायण ने किताबों की गठरी तो ऐसे बाधी जैसे सतुआ-पिसान मोटरी हैं. आखिरी दिन सभी प्रकाशक अपना अपना सेल-तेल करने में व्यस्त थे इस लिए सेटर-चेटर किस्म के लेखक लोग कम देखने को मिले. अंत में लेखक मंच पर हो रहा था विदेश से आमंत्रि लेखकों का सम्मान वाही मंच के पीछे स्टेंड वाला बैनर ऐसे खड़ा किया गया था जैसे दुआरी के टाटी. हाता नं 18 में साँझ को कार्पेट समय से पहले लपेटा जाने लगा जिसे हाता गर्दा-गर्दा हो गया. इस गर्दे को हिंदी का सम्मान कहिए या फागुन की ठिठोली. इसी के साथ बाजार अफरा-तफरी में बंद हुआ बत्ती गुल थी इस लिए सेंसेक्स बताना मुस्किल है.
नोट- अगर किसी के साथ उच्च-नीच हो जाए तो बनारस की ठंढई पीके भुला दीजिए. अइंचा-पइचा, इजरी-पिजरी का महिना है…

Saturday, December 7, 2013

पत्रकारिता में हुए बदलाव को लेकर देशबंधु दैनिक के संपदाक व साहित्यकार ललित सुरजन से सुभाष गौतम की बातचीत। 
 प्र01- हिन्दी समाचार पत्रों पर उदारीकरण का प्रभाव एवं उसके पश्चात हिन्दी पत्रकारिता में आये बदलाव को आप कैसे देखते है ?
मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार के समय आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत हुई। यद्यपी इसकी हल्की शुरूआत राजीव गांधी की सरकार के समय में हो चुकी थी। आर्थिक उदारीकरण एक भ्रामक संज्ञा है। आर्थिक उदारीकरण एकाधिकारवाद की ओर लेजाता है। इसका मीडिया पर प्रभाव पडा, इसके समानान्तर संचार और मुद्रण का विकास भी हुआ। इन दोनों के परिणाम स्वरूप पत्रकारिता एक पूंजीसघन व्यापार बन गया। जब बडी मात्रा में पूंजी की जरूरत पड़ने लगी तो पत्रकारिता में स्वामित्व का चरित्र भी बदला जिसके चलते पत्रकारिता का स्वरूप पूरीतरह बदल गया।
 प्र02- उदारीकरण के पश्चात अखबार के चरित्र में जो दुष्परिणाम हमें देखने को मिल रहें हैं उसके लिए दोषी कौन ?
पूंजीे पत्रकारिता को संचालित करने लगी है। पत्रकारिता में जिसने पुंजी लगाई है उसको मुनाफा चाहिए। मुनाफा कमाने की चिंता में कुछ भी त्याज्य या निषेध नहीं रहा। प्राथमिक तौर पर तो मीडिया स्वामि हैं जो इसके लिए उत्तरदायी हैं लेकिन पत्रकारों की जो बिरादरी है उसे भी किसी सीमा तक दोषी मानता हूँ। मुझे कहते हुए अफसोस हो रहा है कि मीडिया मालिकों के साथ-साथ किसी सीमा तक पत्रकारों ने भी मूल्यों से किनारा कर लिया। उन्हें जब खडे होकर विरोध करना चाहिए था तब वे पूंजी के दबाव अथवा पूंजी के आकर्षण के सामने झूक गए। इसके अपवाद हैं लेकिन वह संख्या सिमित है और प्रभाव भी सिमित हैं।
 प्र03- उदारीकरण के दौर के बाद पाठक भी बढे़ अखबार भी बढे़ पर कंटेन्ट में बहुत कुछ नहीं है। इसका कारण क्या है ?
मेरी थोडी यहां पर असहमती है। हिंदी अथवा भाषाई पत्रकारिता में पाठक संख्या बढ़ने का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है वह सत्य से परे है। अखबार बढे हैं दस्तावेजों में ग्राहक संख्या और पाठक संख्या भी बढ़ी है लेकिन यह ग्राहक संख्या मार्केटिंग तकनीक से जुटाई गई है। इस लिए वास्तविकता से दूर है। मैं तो ग्राहक उसे मानता हूं जो अखबार की पूरी कीमत देकर खरीदने की इच्छा रखता है। यह पाठक संख्या भी सतही है जो पेज थ्री जैसी अवधारणओं से हासिल की गई है। ऐसे पाठक अखबार में सिर्फ अपना फोटों देखते हैं या अपने से संबंधित खबर देखते है। देश दुनिया की खबरों में उनकी दिलचस्पी नहीं है इस प्रवृत्ति के चलते कंटेन्ट या कहें कि विषयवस्तु की तरफ अब ध्यान नहीं दिया जाता। यह कटू सत्य है कि हम अब पाठकों को बहलाने मात्र का काम कर रहे है। सूचनाएं देना उसकी व्याख्या करना उसके माध्यम से लोक शिक्षण करना इन तीन बुनियादी उद्देश्यों को छोड अब पत्रकारिता मनोरंजन का माध्यम बन कर रह गई है। 
 प्र05- देशबन्धु अखबार विकास की खबरों को कितना महत्व देता है। हिन्दी के अन्य समाचार पत्रों में इसकी स्थिति क्या है ?
देशबंधु आज भी अपनी पुरानी रीति-नीति पर चल रहा है। संसाधनों के अभाव में हम उतना नहीं कर पा रहे है जितना चाहते है फिर भी आज हिन्दी में संभवतः मुद्दों की पत्रकारिता करने वाला देशबंधु ही है। आप चाहे तो मेरे इस दावे को खारिज कर सकते है। मैं दूसरे समाचारपत्रों पर क्या टिम्पणी करूं।
 प्र06- हिन्दी समाचार पत्रों में हासिये का समाज कहां है ?
हिन्दी समाचारपत्रों में हासिए के समाज के लिए लगभग नहीं के बराबर स्थान है। एक समय था जब अखबारों के बीच खबरों को लेकर होड होती थी। तब सभी अखबारों में जो भले ही संख्या में कम थे या प्रसार संख्या में कम थे विकास के प्रश्न पर रिपोर्टिंग की जाती थी संपादकीय लिखी जाती थी वह दौर बीत गया आज अखबार का पाठक और लक्ष्य शहरी अर्ध शहरी उच्च मध्यवर्ग है उसकी अहंकार जनित स्वपनों का वाहक बनकर रह गया है। आज के अखबारों के लिए वंचित समाज या हासिए का समाज नहीं है। जब कोई बडी दुर्घटना हो त्रासदी हो जिसे एक खौफनाक तस्वीर के रूप में बेचा जासके। हासिए के समाज के प्रति अखबारों की सहानुभूति पूरी तरह से समाप्त हो गई है। मैं जब हासिए की समाज की बात करता हूं, दलित, आदिवासी अन्यवंचित समूह इन सभी से है। इसमें किसान व मजदूर भी शामिल है। इनके लिए कल्याणकारी राज्य होने के नाते अरबों खरबों की योजनाएं बनती हैं किंतु उन पर अमल हो रहा है या नहीं इसका परिक्षण करने में आज की पत्रकारिता की कोई दिलचस्पी नहीं है। किसी योजना या कार्यक्रम में भ्रष्टाचार की बात उठे तो उसे इसलिए उछाला जाता है कि एक तो वह इसलिए की वह खबर बिकती है। दुसरे मीडिया में ऐसे लोग है जो ऐसे भ्रष्टाचार में खुद को शामिल करने का संदेश भेजना चाहते है।
मैं छत्तिसगढ में रहता हूं आप जानते हैं कि वहां तीस बरस से नक्सलवाद सक्रिय है। खासकर बस्तर में हमारा मीडिया नक्सलियों के खात्में के लिए सेना भेजने की वकालत तक करता है लेकिन आदिवासियों को जिस तरह से छला गया है उनकी अस्मिता और गरिमा पर आघात किए गए है इस की बात मीडिया सामान्य तौर पर नहीं करती है।
 प्र07- हिन्दी समाचार पत्रों में स्त्रिी उपभोक्ता और उपभोग की स्थिती पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?
आप के सवाल के जो भावना है जो दर्द है मैं उसकों साझा करता हूं। भारत ही नही विश्व में कोई भी देश, समाज ऐसा नहीं है जो स्त्री को खुले मन से बराबरी का दर्जा देता हो जिसमें उसे उप भोग न माना जाता हो। आधुनिक मीडिया ने इस दुराग्रह को मजबूत करने का काम किया है। यह बात सिर्फ विज्ञापनों में प्रस्तुत स्त्री की नहीं है बल्कि हर कदम पर मीडिया ऐसा कोई मौका नहीं छोडता जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे की छवि के रूप में पेश न किया जाता हो। सच पूछिए तो औरत की गिनती भी हमें हासिए के समाज में करना चाहिए शायद फर्क इस बात का है कि अपेक्षाकृत सुविधा संपन्न समाज की औरते जाने-अंजाने में खुद ही उस पारंपरिक परिभाषा में ढल जाती है।
 प्र08- समाचारों की अंर्तवस्तु पर बाजार का प्रभाव ? वहीं बाजार में प्रतिश्पर्धा में अच्छी चीजें क्या हैं ?
पहले तो यह जान लिजिए की आज जब हम बाजार की बात करते है तो पंूजीवाद शोषणकारी यंत्र के रूप में विद्यमान रहा है। बहरहाल बाजार पत्रकारिता को आज दो तरिको से प्रभावित कर रहा है। एक तो वर्तमान मीडिया अपने आप में बाजार का अंग है। उसमें जो पूंजी लगी है वह कोई पत्रकार की नहीं बल्की कोई कारोबारी ही लगा सकता है उसका उद्देश्य अखबार से मुनाफा कमाने तक सिमित नहीं बल्की अखबार को अपने दूसरे उद्यमों में प्रगती के लिए भी इस्तेमाल करता है। इस तरह से इस प्रक्रिया में अखबार सिर्फ समाचार देने का माध्यम नहीं बल्की भयादोहन करने  अथवा पारस्परिक समझौता करने के उपकरण के रूप में भी इस्तेमाल  करता है। इसका असर निश्चित रूप से अखबारों की अंतरवस्तु पर पडता है।
दूसरा अखबार का बाजार से जो सिधा संबंध है वह भी अंतरवस्तु को प्रभावित करता ही है। अखबार में मोटे तौर पर वही छपता है तो बिकता है फिर वह कोई खैफनाक कथा या हारर स्टोरी क्यों न हो फिर वो सामाग्री कितनी भी जुगुप्सा पैदा करने वाली क्यों न हो उसे स्थान दिया जाता है। अगर मैं ठिक समझ रहा हूं तो अखबारों के बाजार में प्रतिस्पर्धा में अच्छी बातों का मुद्दा उठा है। अखबारों ने आपसी होड में स्वाभाविक है कि कुछ बुनियादी मसले भी सामने आते हो उन पर बहस छिड़ती हो लेकिन आज से तीस साल पहले अगर ऐसी बहसे नियमित स्वरूप होती थी तो आज वे अपवाद स्वरूप हैं। इनके लिए प्राथमिकता के साथ जो जगह दी जानी चाहिए नहीं दी जाती तथा बहस को एक निर्णायक मोड पर ले जाने से बहुत पहले बीच में ही छोड दिया जाता है। एक मुद्दा उठता है कुछ दिन चर्चा में रहता है फिर अचानक गायब हो जाता है। एक निर्णायक मोड या तार्किक परिणाम के पहले छोड दिया जाता है।
 प्र09- समाचार पत्रों का आर्थिक प्रबंधन कैसे बदला है ?
हिंदी अखबार की जो परंपरा हैं उसमें पहले सामन्यतः पत्रकार ही अखबार निकालते थे अब कार्पोरेट घराने अखबार के मालिक है और पत्रकार इनके वेतन कर्मचारी हैं क्योंकि आधुनिक मशीनों और उपकरणों का निवेश होता है। इसलिए मालिक की स्वभाविक चिंता सबसे पहले अपने निवेश को सुरक्षित रखने की होती है। एक स्वतंत्र मालिक पत्रकार जो खतरे उठा सकता था वह व्यापारी मालिक के लिए संभव ही नहीं है। मैं देशबंधु के बारे में कुछ बताना चाहुंगा, मेरे पिता स्वर्गीय मायाराम सुरजन 1959 में मित्रों से उधार लेकर 25 हजार रूपए कि कुल पंूजी से अखबार की स्थापना की थी। मात्र नौ हजार रूपए में एक सेकैंड हैंड छापा मशीन अखबार शुरू करने के लिए पर्याप्त थे। अमर उजाला, नवज्योति, नवभारत (नागपुर) आदि तमाम पत्र इसी तरह सिमित पूंजी से शुरू हुए। आज पांच करोड से कम में अखबार निकालने की सोची भी नहीं जा सकती।
 प्र010- वर्तमान में प्रसार व विज्ञापन की दिशा क्या है ?
दोनों के बारे में जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा है। प्रसार को लेकर मिथक गढ़ा गया है कि प्रसार दिन-दूनी रात-चैगुनी बढ रही है। सच्चाई यह है कि कम कीमत इंविटेशन प्राइज, इनामी योजना आदि प्रलोभनो के बल पर अखबार बाजार में पहुंच तो रहे हैं। लेकिन पूरी कीमत देकर अखबार खरीदने में बृद्धि नहीं हुई है। अखबार वाले अपने बारे में चाहे जो कहें मीडिया विश्लेषक भी जब इस मिथक को यर्थाथ मान लेते है तो तकलीफ होती है।
विज्ञापनों का जहां तक प्रश्न है इतने सारे अखबार निकलने लगे हंै। विज्ञापन पाने के लिए गलाकाट होड़ मची है। विज्ञापन दाता इस स्थिति का फायदा उठाकर अपनी शर्तो पर विज्ञापन छपवा रहे हंै। ऐसा कहूं तो गलत नहीं होगा कि अखबार अपने को विज्ञापन दाताओं के सामने लाचार और कमजोर पा रहे हैं।
 प्र011- समाचार पत्रों की भाषा व लेआउट पर उदारीकरण का प्रभाव ?
समाचारपत्रों की रूप सज्जा पहले के मुकाबले अच्छी हुई है। इसमें नई तकनीकि का योगदान है। लेकिन इस कथित उदारीकरण ने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को नष्ट करना शुरू कर दिया है। एक नकली भाषा गढी जा रही है। जिसके चलते हमारी अगली पीढियाँ अपने सांस्कृतिक वैभव को समझने से वंचित रह जाएंगी। चुंकि अखबारों की संख्या में जिस गति से बढोतरी हुई है उसी अनुपात में प्रक्षिशित पत्रकारों की कमी भी महसूस की जा रही है। इसका भी अवांक्षित असर भाषा पर पड़ा है।
 प्र012- समाचारों का स्थान निर्धारण आज कैसे हो रहा है ?
जो प्रमुख खबरे समाचार एंजेंसी के माध्यम  से आती है उनका स्थान निर्धारण ठीक-ठीक हो जाता है। लेकिन अतीत में जिस तरह विकास-परक खबरों को महत्व देकर छापा जाता था वह चलन अब बंद हो गया है। राजनैतिक व व्यापारिक हितो से जुडी खबरों को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। टी.वी. चैनलो पर जिस रूप में खबरे पेश होती हैं वे भी प्राथमिकता और स्थान निर्धारण पर अंजाने में प्रभाव डालती है।
 प्र013- हिन्दी समाचार पत्र अंग्रेजी भाषा व स्थानीय भाषा के रंग से कितना प्रभावित है ?
मैंने अंग्रेजी का जिक्र उपर किया है मैं उसे अवांक्षित मानता हूँ। स्थानीय या जनपदिय भाषा का असर पडना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। चूंकि इधर काॅलेज में हिन्दी के पठन-पाठन में गिरावट आई है। उसके चलते किसी भी अखबार में हिन्दी का शुद्ध रूप देखने को नहीं मिलता। नए पत्रकारों की हिन्दी वैसी नहीं है जैसी कि बीस-पच्चीस साल पहले होती थी। इसलिए इन दिनों अखबारों में जनपदिय भाषा से प्रभावित रूप का चलन बढा है। इसे व्याकरण और वर्तनी दोनों में देखा जा सकता है। शब्दों के चयन में व्याकरण और वर्तनी में फर्क है। बिहार और उत्तर प्रदेश के अखबरो की भाषा नहीं जमती है

Saturday, June 15, 2013

संवेदना और पीडा
सुभाष गौतम
युवा कहानीकार अल्पना मिश्र की कहानी संग्रह ‘‘क़ब्र भी क़ैद औ जं़जीरे भी’’ में कहानीकार ने  अपने नीजी अनुभव और अपने आस-पास की समस्याओं को कहानी का विषय बनाया है। इस संग्रह की लगभग सभी कहानीयों में गांव के आम आदमी के दुख-दर्द और संघर्ष को दिखाया गया है, जो वास्तविकता के बेहद निकट जान पडता है। इस संग्रह की अधिकतर कहानियों में स्त्री की पीडा और उसका संघर्ष दिखाया है। पहली कहानी ‘गैरहाजिरी में हाजिर’ यह पहाड में आये दिन दुर्घटनाग्रस्त होने वाली यात्री बसों में मरने वाले यात्रीयों के परिवार से उपजी कहानी है। यह कहानी ठीक उसी प्रकार है जैसे जाने वाले तो चले जाते है पर पहाड तो पहाड ही  रहता है। इस कहानी में पहाडी परिवार का जीवन और उनके संघर्ष को दिखाया गया है। जिस प्रकार पहाडों के नीचे बहुत सारे राज दबे होते है उसी प्रकार वहां के लोग अपने सीने में बहुत से दुख दर्द छिपाये हुए हैं वे इसके लिए मानो अभिशप्त हो। ‘‘हमने पहले कभी पहाड को इस नजर से नहीं देखा था। खूबसूरत वादियां हमें लुभाती थीं।’’ लेखिका  ने पहाड की खूबसूरती के परे जाकर पहाड के दर्द को इस कहानी में बयान किया है। 
दूसरी कहानी ‘गुमशुदा’ एक संवेदनशील औरत की कहानी है जिसकी संवेदना और मानवता को उसका पति नजरअंदाज करता है। इंशान कुछ पाने की चाह में मानवता और संवेदना को पिछे छोडता जा रहा है। इस में टीवी चैनलों द्वारा समाज में फैलाए जाने वाले अंधविश्वास को भी निशाना बनाया है। तीसरी कहानी ‘रहगुज़र की पोटली’ जिसमें पोटली कम रहगुजर का जिक्र अधिक है। यह कहानी भी स्त्री विषय पर केंद्रीत है। इस कहानी की जो सबसे खास बात है वह यह कि एक गांव की स्त्री दूसरी शहरी स्त्री से स्वयं की तुलना कर उसके आत्मनिर्भर और सशक्त होने को लेकर कैसी सोच रखती है और किस नजरिए से देखती है।  इन तमाम पहलूओं पर प्रकाश डाला गया है। चैथी कहानी ‘महबूब जमाना और जमाने में वे’ कहानी में खबरिया चैनलों और आमआदमी के खौफ को दिखाया गया है। जब भी कोई आतंकी घटना या शहर में कोई विस्फोट होता है तो उसे इलेक्ट्रानिक मीडिया किस नजरिए से देखता है और उस खबर को लेकर पुलिस एक आम आदमी खास कर एक समुदाय विशेष के साथ कैसा बर्ताव करती है। इन सब सवालों को बडे की मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इस आतंकी घटना में उत्तर प्रदेश का कोई छोटा कस्बा हमे दिख जाएगा। इन घटनाओं के चलते मुसलमानों का जिना मुश्किल हो गया है। यह कहानी बहुत पहले लिखी गई है मगर वतर्मान समय में प्रासंगिक नजर आती है। पांचवी कहानी ‘उनकी व्यस्तता’ में स्त्री प्रताड़ना और समाज की एक सच्ची तस्वीर दिखाई है। लेखिका ने एक बहादुर लडकी जो ससुराल की प्रताडना से तंग आकर अर्धनग्न अवस्था में पुलिस के पास जाती है। कहानी में पात्र को बहुत ही सशक्त दिखाया है। यह कहानी हमें जादूई यर्थाथ की कहानी लगती है पर विमर्श के लिहाज से स्त्री के एक सशक्त पहलू को दर्शाती है। छठी कहानी ‘मेरे हमदम, मेरे दोस्त’ इस कहानी संग्रह की सबसे मजबूत कहानी है। घर में दैत्य रूपी पत्ती और दफ्तर में गीदड रूपी सहकर्मी के बीच एक स्त्री सुबोधीनी के मानसिक प्रताड़ना की कहानी है। सुबोधीनी एक तलाकशुदा स्त्री है जिसे हरपल मुश्किलों का सामना करना पडता है। एक स्त्री का जीवन कितना कठिन होता है चाहे वह आर्थिक रूप से समर्थ ही क्यों न हो। एक शिकारी से छुटकारा पाती है तो आगे दूसरा शिकारी खडा मिलता है। सातवी कहानी ‘सड़क मुस्तकि़ल’ जो सडक पर होने वाले छोटे मोटे विवादों की कहानी है। विवाद छोटा है पर लेखिका की इस कहानी को सबसे संवेदशील कहानी कह सकते है। इस कहानी में एक बुढिया है जो एक गरीब ड्राइवर को ठग लेती है। अपनी बात को मनवाने के लिए इतना तांडव करती है कि लोग उसकी बातों में आकर गरीब ड्राइवर को ही दोषी मान लेते है। आठवीं कहानी ‘पुष्पक विमान’ यह कहानी एक ऐसे इंशान की है जो गरीबी के चलते गांव छोड़कर शहर आता है पेट पालने के लिए शहर में हेरोईन और स्मैक बेचने के लिए तैयार हो जाता है। सवाल यह है कि भूख और बेरोजगारी इंशान को इस कदर मजबूर कर देती हैं कि वह गिरे से गिरा काम करने लगता है। आखिरी कहानी ‘ऐ अहिल्या’ यह दो सहेलियों की कहानी है एक बिंदास रहने वाली, दूसरी भोली भाली है।

कहानी संग्रह:  क़ब्र भी क़ैद औ’ जं़जीरें भी
लेखिका: अल्पना मिश्र
मूल्य: 200
पृष्ठ: 119
प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली