वरिष्ठ चित्रकार व लेखक अशोक भौमिक से सुभाष कुमार गौतम की बात-चीत
पेंटिंग के क्षेत्र में आप का कैसे आना हुआ, इसकी प्रेरण कहा से मिली ?
आम तौर पर होता है कि घरांे में महिलाएं तीज त्योहारों में अल्पना आदि के चित्र बनातीं है ठीक वैसे हीं मेरी माँ भी बनाती थीं, पर अल्पना आदि के अलावा चित्र भी बहुत अच्छा बनाती थीं। चित्रकला की प्रारंभिक पे्ररण व शिक्षा मुझे अपनी माँ से मिली।
हाल में आप की पुस्तक ‘आकाल की कला और जैनुल आबेदिन’ प्रकाशित हुई हैं, जेैनुल आबेदिन एक अरसे से भुला दिए गए थे, उनका ख्याल कैसे आया?
मैं जब चित्र प्रसाद के उपर काम कर रहा था, उसी दौरान मुझे जैनुल आबेदिन के बारे में पता चला। 2005 में लाहौर गया था, उस समय जैनुल आबेदिन के चित्रों का एक एल्बम देखने का मौका मिला, जो अकाल के उपर था। ठीक उसी के बाद बंगला देश जाने का मौका मिला था। वहीं मुझे एक किताब मिली ‘जैनुल आबेदीन की जिज्ञासा’। यह जै़नुल अबेदीन की जीवनी नहीं थी बल्कि लेखक ने उनके चित्रों, समय और उनकी समझ पर एक गम्भीर व्याख्या प्रस्तुत की थी। इसके साथ-साथ मैंने उनके अधिक से अधिक चित्रों को देखा व समझना शुरू किया। जैनुल आबेदिन को महज इस बात के लिए भूला दिया गया क्यों कि वह भारतीय चित्रकार नहीं थें। 1947 की उनकी चित्र श्रृखला अकाल पर आधारित है जिसे उन्होंने कलकत्ते में बनाया था। उनके तमाम चित्रों में दुमका के आदिवासियों के जीवन का चित्रण हुआ है।
प्रतिरोध की कला को सामने लाने का आपका क्या मकसद है?
आज चित्रकला में दो तरह के प्रतिरोध की जरूरत हैं। एक कला के माध्यम से सत्ता संस्कृति का प्रतिरोध, जिसमें सत्ता के अक्रामक चेहरे के खिलाफ जनाता को गोलबंद करने के लिए कला का प्रयोग किया जाए। दूसरा एक प्रतिरोध वह होता है जहां धनिक वर्ग व उच्च वर्ग द्वारा एक ख़ास किस्म की रूची को प्रोत्साहित करने वाली कला के खिलाफ छोटे शहरों कस्बों के कलाकारों की प्रतिबद्ध और जन पक्षधर कलारचना के जरिए किया गया प्रतिरोध। आज उदारिकरण के दौर में मेट्रो आर्ट का विकास हो रहा है, पर मैं मानता हूँ कला आम प्रेमियों के प्रोत्साहन से ही जिन्दा रह सकती है, केवल कला बाज़ार कला को जीवित नहीं रख सकती। आज कला के लिए संकट का दौर है जहाँ यकायए आम कलाप्रेमी कला दीर्घाओं से धकिया दिए गए है।
आप ने कला पर हिंदी में स्वतंत्र पुस्तक लिखी, रचनात्मक लेखन पर पहला उपन्यास ‘मोनालिशा हँस रही थी’ तो वह भी कला की दुनिया पर इसकी प्रेरणा कहा से मिली?
जिस दुनिया को आप जानते हैं उन्हीं के संबंध में आप लिखते हैं। घोडा तो उन्ही कोड़ों के बारे में बात करेगा जो उसी पीठ पर निशान बनाते हैं। जिन परिस्थितियों को देखा था, समझा था, स्वतः मेरे मन में इच्छा थी कि मैं लोगों को उस के बारे में बताउ, सचेत करू। इस उपन्यास को लिखने में मुझे पन्द्रह साल लगे। मेरे मन मे पहले से उपन्यास लिखने की इच्छा थी। मैं विज्ञान का छात्र था मैने अंगे्रजी के उपन्यासकारों को खूब पढता था। आरंभिक दिनों में समरसेट माॅस व बांग्ला उपन्यासकार शंकर मेरे प्रिय थ। मोनालिस हँस रही थी की प्रेरण कला जगत से लम्बे जुड़े रहने से ही नहीं बल्कि आज़ादी के बाद तक विशेष काल खण्ड को करीब से देखने से भी मिली।
आप पेंटिंग और साहित्य को किस रूप में देखते हैं?
दोनों अलग विधाएँ है। मैं नहीं समझता कि कलाओं के अंतर्संबंध जैसी कोई चीज होती है। एक कला रूप दुसरे का विकल्प होता है न कि विस्तार। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता, कहानी और नाटकों के बीच अंतर्संबंाध खोजा जा सकता है पर उनकी चित्रकला उनके साहित्य कर्म के विकल्प के रूप में स्वतंत्र पाते है।
साहित्य लेखन में आप की रूचि कैसे बनी हैं ?
हाईस्कूल तक पहुचते-पहुचते मैंने शरतचंद्र को पढ़ लिया था। इंटरमीडिएट में आते-आते रविन्द्रनाथ थाकुर की रचनाओं की आलोचना करनी शुरू कर दिया था, हालांकि यह सब बहुत बचकाना ही था। मैंने ओ हेनरी, मोपांसा, समरसेट माॅम, गोर्की की कहानियों को समग्र में पढ़ने की कोशिश की थी। एक ओर काॅफका, कामु और सात्र्र पढ़ा तो दूसरी तरफ चालू किस्म के उपन्यास भी खूब पढ़े। पर मैं मुक्तिबोध को अपना साहित्य गुरू मानता हूँ।
अभी तक आप ने किन-किन भाषाओं में लिखा है ?
मैंने हिन्दी और अंगे्रजी में लिखा है। बांग्ला मुझे बहुत अच्छी नहीं आती, इस लिए उसमें कविताएं लिखीं हैं। मेरी रचनाओं में खास कर कहानियों का गुरूमुखी और उडि़या में अनुवाद हुआ है और चित्रप्रसाद पर लिखी रचनाओं का दक्षिण भारती भाषाओं में हुआ है।
आप की ज्यादातर पेंटिंग में ब्लैक रंग का प्रयोग होता है ं?
यह कहूं कि यह जीवन के अंधकार व कलुष को व्यक्त करता है तो यह धोखा देना होगा। दर असल मैं सफेद कागज़ पर काले पेन से चित्र बनाता था। मेरे जीवन का बहुत लम्बा दौर 1974 से लकर 1990 तक केवल काले सफेद चित्रों का था। मरे चित्रों में आप को काला रंग स्वतंत्र नहीं मिले गा। आप की पेंटिंग में स्त्री छवि ज्यादा दिखतीं हैं जबकि पुरूष नहीं के बराबर हैं यह किय प्रकार का संकेत है?
यह स्वभाविक रूप से आया, सृष्टि किसने बनाया मुझे नहीं पता, शायद सर्व ज्ञानी पंडितों को पता हो! स्त्री को जिसने भी बनाया है यह बहुत ही भयानक किस्म का अन्याय है। पुरूष और स्त्री का निमार्ण इस प्रकृति में जिस तरह हुआ है, वह चरम वैमनस्य का प्रतिनिधित्व है। इस वैमनस्य के कारण मैं स्त्री को अलग ढंग से देखता हूँं। मुझे नहीं लगता की उनके नग्न चित्र बनाऊ। मुझे आश्चर्य होता है ईश्वर पर महिलाओं की आस्था को देख कर। महिलाएं उस ईश्वर पर कैसे भरोसा करतीं हैं जिन्होने उन्हें बनाया है, जिसे रचने में सरलतम संतुलन की भी तमीज़ तक नहीं है। मैं मानात हूँ, इस सृष्टि में एक दिन इस ईश्वर की मौत महिलाओं के हाथों ही होना है। अगर वे नहीं होतीं तो मह नहीं होते यह सृष्टि नहीं होती, बेचारा भगवान तो जंगलों में ख़ाक छानता मिलता।
आप की पेंटिंग में चिडि़यां होती है, यह किस बात का प्रतिक है?
मेरे चित्रों में चिडि़याँ संकेत के रूप में आती है। एक चिडि़याँ के साथ स्त्री होती है जो एक अनंत संवाद में जुटी हुई हैं। मैं पुरूष होने के कारण उस भाषा को नहीं जानता, दो महिलाएं जो बात करती हैं मैं उस भाषा से अपरिचित हूँ। मेरे चित्रों में चिडि़याएँ शायद उस भाषा को समझती है।
आप की पेंटिंग में संगीत का समावेश भी दिखता है?
मुझे संगीत बहुत पसंद है इस लिए मैंने संगीतकार को केन्द्र में रख कर अनेक चित्र बनाए हैं। मेरे चित्रों में संगीत अपने वर्ग से जुड़ कर आता है। ‘सडऋक के बच्चे’ श्रृंखला के चित्रों में ढफली, एकतारा, बांसुरी यहां तक की बिजली के खंभों पर पत्थर से जिस संगीत का जन्म होता है वह सड़क पर रहने वाले बच्चों का संगहत है। पेंटिंग के क्षेत्र में आने वाले नए कलाकारों के लिए संदेश?
मेरा यही संदेश है कि जो फैरी लोभ जैसे कोई आप को पदमश्री दिला दे रहा है, कोई आप की पेंटिंग लाखों में खरीद ले रहा है। इन सब जिजों से बचे। युवा चित्रकारों के लिए यह कठिन दौर है, उन्हें हर पल समाज के बदलते चेहरे को समझना होगा। सबसे जरूरी है अब कला दीर्घाओं में दर्शकों का इंतज़ार किए बगैर हमे अपने चित्रों को लेकर जनता तक पहुंचना होगा।
भविष्य की क्या योजना है?
पूरी गम्भीरता से कुछ मूर्ति बनाना चाहता हूँ। 2014 मार्च के महीने में मण्डी हाउस, ललित कला अकादमी की बाहरी दीवारें मुझे आकर्षित कर रही हैं। शायद बहुत जल्द आपसे वहीं मुलाकात हो।
यह साक्षात्कार नवभातर टाइम, १४ मार्च २०१४ में प्रकाशित हैं.
सुभाष कुमार गौतम
मोबाई-9968553816
पेंटिंग के क्षेत्र में आप का कैसे आना हुआ, इसकी प्रेरण कहा से मिली ?
आम तौर पर होता है कि घरांे में महिलाएं तीज त्योहारों में अल्पना आदि के चित्र बनातीं है ठीक वैसे हीं मेरी माँ भी बनाती थीं, पर अल्पना आदि के अलावा चित्र भी बहुत अच्छा बनाती थीं। चित्रकला की प्रारंभिक पे्ररण व शिक्षा मुझे अपनी माँ से मिली।
हाल में आप की पुस्तक ‘आकाल की कला और जैनुल आबेदिन’ प्रकाशित हुई हैं, जेैनुल आबेदिन एक अरसे से भुला दिए गए थे, उनका ख्याल कैसे आया?
मैं जब चित्र प्रसाद के उपर काम कर रहा था, उसी दौरान मुझे जैनुल आबेदिन के बारे में पता चला। 2005 में लाहौर गया था, उस समय जैनुल आबेदिन के चित्रों का एक एल्बम देखने का मौका मिला, जो अकाल के उपर था। ठीक उसी के बाद बंगला देश जाने का मौका मिला था। वहीं मुझे एक किताब मिली ‘जैनुल आबेदीन की जिज्ञासा’। यह जै़नुल अबेदीन की जीवनी नहीं थी बल्कि लेखक ने उनके चित्रों, समय और उनकी समझ पर एक गम्भीर व्याख्या प्रस्तुत की थी। इसके साथ-साथ मैंने उनके अधिक से अधिक चित्रों को देखा व समझना शुरू किया। जैनुल आबेदिन को महज इस बात के लिए भूला दिया गया क्यों कि वह भारतीय चित्रकार नहीं थें। 1947 की उनकी चित्र श्रृखला अकाल पर आधारित है जिसे उन्होंने कलकत्ते में बनाया था। उनके तमाम चित्रों में दुमका के आदिवासियों के जीवन का चित्रण हुआ है।
प्रतिरोध की कला को सामने लाने का आपका क्या मकसद है?
आज चित्रकला में दो तरह के प्रतिरोध की जरूरत हैं। एक कला के माध्यम से सत्ता संस्कृति का प्रतिरोध, जिसमें सत्ता के अक्रामक चेहरे के खिलाफ जनाता को गोलबंद करने के लिए कला का प्रयोग किया जाए। दूसरा एक प्रतिरोध वह होता है जहां धनिक वर्ग व उच्च वर्ग द्वारा एक ख़ास किस्म की रूची को प्रोत्साहित करने वाली कला के खिलाफ छोटे शहरों कस्बों के कलाकारों की प्रतिबद्ध और जन पक्षधर कलारचना के जरिए किया गया प्रतिरोध। आज उदारिकरण के दौर में मेट्रो आर्ट का विकास हो रहा है, पर मैं मानता हूँ कला आम प्रेमियों के प्रोत्साहन से ही जिन्दा रह सकती है, केवल कला बाज़ार कला को जीवित नहीं रख सकती। आज कला के लिए संकट का दौर है जहाँ यकायए आम कलाप्रेमी कला दीर्घाओं से धकिया दिए गए है।
आप ने कला पर हिंदी में स्वतंत्र पुस्तक लिखी, रचनात्मक लेखन पर पहला उपन्यास ‘मोनालिशा हँस रही थी’ तो वह भी कला की दुनिया पर इसकी प्रेरणा कहा से मिली?
जिस दुनिया को आप जानते हैं उन्हीं के संबंध में आप लिखते हैं। घोडा तो उन्ही कोड़ों के बारे में बात करेगा जो उसी पीठ पर निशान बनाते हैं। जिन परिस्थितियों को देखा था, समझा था, स्वतः मेरे मन में इच्छा थी कि मैं लोगों को उस के बारे में बताउ, सचेत करू। इस उपन्यास को लिखने में मुझे पन्द्रह साल लगे। मेरे मन मे पहले से उपन्यास लिखने की इच्छा थी। मैं विज्ञान का छात्र था मैने अंगे्रजी के उपन्यासकारों को खूब पढता था। आरंभिक दिनों में समरसेट माॅस व बांग्ला उपन्यासकार शंकर मेरे प्रिय थ। मोनालिस हँस रही थी की प्रेरण कला जगत से लम्बे जुड़े रहने से ही नहीं बल्कि आज़ादी के बाद तक विशेष काल खण्ड को करीब से देखने से भी मिली।
आप पेंटिंग और साहित्य को किस रूप में देखते हैं?
दोनों अलग विधाएँ है। मैं नहीं समझता कि कलाओं के अंतर्संबंध जैसी कोई चीज होती है। एक कला रूप दुसरे का विकल्प होता है न कि विस्तार। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता, कहानी और नाटकों के बीच अंतर्संबंाध खोजा जा सकता है पर उनकी चित्रकला उनके साहित्य कर्म के विकल्प के रूप में स्वतंत्र पाते है।
साहित्य लेखन में आप की रूचि कैसे बनी हैं ?
हाईस्कूल तक पहुचते-पहुचते मैंने शरतचंद्र को पढ़ लिया था। इंटरमीडिएट में आते-आते रविन्द्रनाथ थाकुर की रचनाओं की आलोचना करनी शुरू कर दिया था, हालांकि यह सब बहुत बचकाना ही था। मैंने ओ हेनरी, मोपांसा, समरसेट माॅम, गोर्की की कहानियों को समग्र में पढ़ने की कोशिश की थी। एक ओर काॅफका, कामु और सात्र्र पढ़ा तो दूसरी तरफ चालू किस्म के उपन्यास भी खूब पढ़े। पर मैं मुक्तिबोध को अपना साहित्य गुरू मानता हूँ।
अभी तक आप ने किन-किन भाषाओं में लिखा है ?
मैंने हिन्दी और अंगे्रजी में लिखा है। बांग्ला मुझे बहुत अच्छी नहीं आती, इस लिए उसमें कविताएं लिखीं हैं। मेरी रचनाओं में खास कर कहानियों का गुरूमुखी और उडि़या में अनुवाद हुआ है और चित्रप्रसाद पर लिखी रचनाओं का दक्षिण भारती भाषाओं में हुआ है।
आप की ज्यादातर पेंटिंग में ब्लैक रंग का प्रयोग होता है ं?
यह कहूं कि यह जीवन के अंधकार व कलुष को व्यक्त करता है तो यह धोखा देना होगा। दर असल मैं सफेद कागज़ पर काले पेन से चित्र बनाता था। मेरे जीवन का बहुत लम्बा दौर 1974 से लकर 1990 तक केवल काले सफेद चित्रों का था। मरे चित्रों में आप को काला रंग स्वतंत्र नहीं मिले गा। आप की पेंटिंग में स्त्री छवि ज्यादा दिखतीं हैं जबकि पुरूष नहीं के बराबर हैं यह किय प्रकार का संकेत है?
यह स्वभाविक रूप से आया, सृष्टि किसने बनाया मुझे नहीं पता, शायद सर्व ज्ञानी पंडितों को पता हो! स्त्री को जिसने भी बनाया है यह बहुत ही भयानक किस्म का अन्याय है। पुरूष और स्त्री का निमार्ण इस प्रकृति में जिस तरह हुआ है, वह चरम वैमनस्य का प्रतिनिधित्व है। इस वैमनस्य के कारण मैं स्त्री को अलग ढंग से देखता हूँं। मुझे नहीं लगता की उनके नग्न चित्र बनाऊ। मुझे आश्चर्य होता है ईश्वर पर महिलाओं की आस्था को देख कर। महिलाएं उस ईश्वर पर कैसे भरोसा करतीं हैं जिन्होने उन्हें बनाया है, जिसे रचने में सरलतम संतुलन की भी तमीज़ तक नहीं है। मैं मानात हूँ, इस सृष्टि में एक दिन इस ईश्वर की मौत महिलाओं के हाथों ही होना है। अगर वे नहीं होतीं तो मह नहीं होते यह सृष्टि नहीं होती, बेचारा भगवान तो जंगलों में ख़ाक छानता मिलता।
आप की पेंटिंग में चिडि़यां होती है, यह किस बात का प्रतिक है?
मेरे चित्रों में चिडि़याँ संकेत के रूप में आती है। एक चिडि़याँ के साथ स्त्री होती है जो एक अनंत संवाद में जुटी हुई हैं। मैं पुरूष होने के कारण उस भाषा को नहीं जानता, दो महिलाएं जो बात करती हैं मैं उस भाषा से अपरिचित हूँ। मेरे चित्रों में चिडि़याएँ शायद उस भाषा को समझती है।
आप की पेंटिंग में संगीत का समावेश भी दिखता है?
मुझे संगीत बहुत पसंद है इस लिए मैंने संगीतकार को केन्द्र में रख कर अनेक चित्र बनाए हैं। मेरे चित्रों में संगीत अपने वर्ग से जुड़ कर आता है। ‘सडऋक के बच्चे’ श्रृंखला के चित्रों में ढफली, एकतारा, बांसुरी यहां तक की बिजली के खंभों पर पत्थर से जिस संगीत का जन्म होता है वह सड़क पर रहने वाले बच्चों का संगहत है। पेंटिंग के क्षेत्र में आने वाले नए कलाकारों के लिए संदेश?
मेरा यही संदेश है कि जो फैरी लोभ जैसे कोई आप को पदमश्री दिला दे रहा है, कोई आप की पेंटिंग लाखों में खरीद ले रहा है। इन सब जिजों से बचे। युवा चित्रकारों के लिए यह कठिन दौर है, उन्हें हर पल समाज के बदलते चेहरे को समझना होगा। सबसे जरूरी है अब कला दीर्घाओं में दर्शकों का इंतज़ार किए बगैर हमे अपने चित्रों को लेकर जनता तक पहुंचना होगा।
भविष्य की क्या योजना है?
पूरी गम्भीरता से कुछ मूर्ति बनाना चाहता हूँ। 2014 मार्च के महीने में मण्डी हाउस, ललित कला अकादमी की बाहरी दीवारें मुझे आकर्षित कर रही हैं। शायद बहुत जल्द आपसे वहीं मुलाकात हो।
यह साक्षात्कार नवभातर टाइम, १४ मार्च २०१४ में प्रकाशित हैं.
सुभाष कुमार गौतम
मोबाई-9968553816
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