Monday, November 26, 2012






दरिद्रता खत्म हो गयी होती तो दीपावली भी नहीं होती






डॉ.नामवर सिंह से बात चित पर आधारित यह लेख प्रभात खबर पटना संकरण में १३ नवंबर २०१२ छपा था.


हमारे जितने त्योहार है, उनमें एक कड़ी सी है. रक्षाबंधन पहला त्योहार है. रक्षाबंधन का संबंध पुरोहित वर्ग व ब्राह्मणों से माना गया है. बाद में इस त्योहार को स्वाधीनता संग्राम से जोड़ा गया था. बंगाल में लोग एक-दूसरे को राखी बांध कर युद्ध के मैदान में भेजते थे. स्त्रियां और बहनें राखी बांधती थीं. युद्ध के मैदान में जब कोई घर का सदस्य जाता था, तो बहनें उसे राखी बांधती थीं. राखी के बाद दूसरा त्योहार आता है विजयादशमी. इस त्योहार से अनेक किंवदंतियां और कहानियां जुड़ी हैं. हमारे यहां इन त्योहारों को जाति-वर्ण व्यवस्था से भी जोड़ दिया गया है. रक्षाबंधन ब्राह्मणों का और विजयादशमी क्षत्रियों का त्योहार माना जाता है.


दीपावली प्रकाश का पर्व माना जाता है. इसे लक्ष्मी से जोड़ कर भी देखा जाता है, क्योंकि आमतौर पर वणिक समाज दीपावली के दिन खूब खरीदारी करते हैं. वणिक वर्ग वाणिज्य-व्यवसाय करने वाले लोगों का है. इसलिए आमतौर पर दुकानों में, जहां उनका व्यवसाय होता है, दीये जलाये जाते हैं.


त्योहारों के इस क्रम में देखें तो आगे चल कर होली मनायी जाती है. होली एक तरह से नये वर्ष का शुभारंभ है. होली के बाद नया वर्ष शुरू होता है.


हमारे यहां मुख्यत: चार त्योहार हैं. यह ऋतुओं के अनुसार हैं. जैसे वर्षा बीती तो उसके बाद सर्दी आ जाती है. जब सर्दी समाप्त होती है, तो वसंत होता है, गर्मी आने लगती है. होली वसंत का त्योहार है. होली सबका त्योहार है, क्योंकि इसे जाति-वर्ण व्यवस्था के आधार पर शूद्र वर्ण के साथ जोड़ कर देखा जाता है. यह सब परंपराओं से चला आ रहा है, लेकिन सब मनाते है कि यह सबका त्योहार है.


वसंत पंचमी को सरस्वती के साथ जोड़ दिया गया है. यह ब्राह्मणों का त्योहार माना गया है. वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये, तो यह ऋतु परिवर्तन के साथ भी जुड़ा है.


इन पवरें के पीछे किंवदंतियां और कथाएं जोड़ दी गयी हैं, लेकिन उनका एक प्राकृतिक आधार भी है. विश्‍व में कुछ देश ऐसे भी हैं, जहां दो ही ऋतुएं होती हैं. सर्दी या गर्मी, लेकिन हमारे यहां जो माना जाता है, और जो कल्पना की गयी है, उसके अनुसार बारह माह और छह ऋतुओं का वर्णन किया गया है. बहुत सारा साहित्य ऋतुओं के बारे में लिखा गया है. उस क्रम में दीपावली का भी वर्णन आता है. दीपावली के दिन कुछ लोग लक्ष्मी पूजन करते हैं, तो कुछ जुआ भी खेलते हैं. ये सारी चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं.


कुल मिला कर वर्षा ऋतु समाप्त होने के बाद हर आदमी अपने घर में एक बार दीप प्रज्वलन का काम करता है. इसका एक वैज्ञानिक आधार भी है. हमारे देश में 26 जनवरी को राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मनाया जाता है. हमारा प्रशासन इसे प्रकाश पर्व के रूप में मनाता है. गणतंत्र दिवस के दिन पार्लियामेंट से लेकर राष्ट्रपति भवन तक प्रकाश होता है. प्रकाश पर्व एक तरह से उल्लास का पर्व है. राजनीतिक जीवन में देखें, तो आमतौर से यह पर्व आर्थिक, राजनीतिक स्थिति के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है. आर्थिक संकट के दौर में भी हम इसे प्रतीक के रूप में देख सकते हैं. हमारे जीवन में जो परिवर्तन आते हैं, उनके साथ ही हमारे त्योहारों का स्वरूप भी बदल जाता है. उन परिवर्तनों के संदर्भ में भी दीपावली को देख सकते हैं.


हमारा देश आर्थिक व राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है. उदारीकरण के कई प्रस्ताव आ रहे हैं, जिनके कारण स्थितियां बदलेंगी. हमारे देश में व्यक्तिगत पूंजीवाद का बहुत विकास हुआ है. न जाने कितनी कंपनियां लोगों ने खोली हैं. पहले हमारे यहां कुछ गिने-चुने उद्योग घराने होते थे. आज उनके अलावा भी बहुत ब.डे-ब.डे पूंजीपति पैदा हो गये हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भी हमारे यहां दखल बढ.ा है. अनेक राजनीतिक नेता इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जु.डे हैं.


आजादी के पहले और बाद में जिस समाजवादी ढांचे की हमने कल्पना की थी, वह कल्पना ही रह गयी है. उसके समानांतर देखें, तो सरकार के पास जो भी पूंजी है, उसे कल्याणकारी काम में कितना लगा रही है, वह काम हो रहे हैं या नहीं, यह विचारणीय है, क्योंकि उस मात्रा में गरीबी का उन्मूलन नहीं हो सका है. हमारे देश में पढे.-लिखे बेकारों की संख्या लगातार बढ. रही है. बेकारों की एक फौज खड़ी हो गयी है. जिस गरीबी के उन्मूलन का संकल्प लिया था, वह दूर नहीं हो रही है. ऐसे में गरीबों के लिए दीपावली के क्या मायने होंगे?


देश में ध्रुवीकरण हो रहा है. एक ओर ब.डे-ब.डे पूंजीपति तैयार हो रहे हैं, दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या भी तेजी से बढ. रही है. यह जो दो छोर दिखाई दे रहे हैं, यह एक नया अर्थतंत्र है. इस अर्थतंत्र को हम लोग अपनी पुरानी परंपरा से जोड़ कर देखें, तो एक ओर बिजली की चमक-दमक वाले मकान होंगे, दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ियां, जहां दिया जलाने के लिए तेल भी नहीं होगा. अमीरी-गरीबी का यह फासला लगातार बढ.ता जा रहा है. ऐसी ही स्थितियों में विद्रोह पैदा होता है. यह स्थिति ज्यादा दिन चलनेवाली नहीं है. दीपावली के दिन यदि शहर का चक्कर लगाया जाये, तो फर्क मालूम हो जायेगा कि दीपावली कहां-कैसे मनायी जा रही है.


दीपावली का साहित्य से बड़ा गहरा संबंध है. महादेवी वर्मा, दीपशिखा महादेवी वर्मा कहलाती हैं. उन्होंने दीप पर बहुत अच्छे गीत व कविताएं लिखी हैं. महादेवी ही नहीं, अधिकतर कवियों ने दीपक को अपने जीवन का प्रतीक माना है. प्रकाश का अंधकार से संघर्ष जारी है. निराला जी की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ एक सिद्ध कविता है, जो रावण के विरुद्ध राम के संघर्ष को दर्शाती है.


हमारे यहां दरिद्र-खेदन की परंपरा रही है, जिसको आज नया अर्थ दिया जा सकता है. दरिद्रता चली गयी होती, तो दीपावली का त्योहार भी खत्म हो गया होता. यह इस बात का सूचक है कि आज भी हम अपने घर से दरिद्रता दूर करने का प्रयास कर रहे हैं. महानगरों में यह त्योहार संपत्ति व वैभव के प्रदर्शन का सूचक है. छोटे व्यवसायियों की आमदनी भी इससे जुड़ी हुई है. शहरों में लोग बल्ब जलाते हैं, दीये का प्रचलन खत्म हो रहा है. दीपक और बल्ब में फर्क है. अमीर व गरीब का. संस्कार व असंस्कारी लोगों का. दीपावली को मानदंड मान लिया जाये, तो समाज में विभित्र वगरें का फर्क मालूम होता है. समाज में कितने स्तर है, यह मापक है संपत्ति का.


(सुभाष गौतम से बातचीत पर आधारित)हमारे जितने त्योहार है, उनमें एक कड़ी सी है. रक्षाबंधन पहला त्योहार है. रक्षाबंधन का संबंध पुरोहित वर्ग व ब्राह्मणों से माना गया है. बाद में इस त्योहार को स्वाधीनता संग्राम से जोड़ा गया था. बंगाल में लोग एक-दूसरे को राखी बांध कर युद्ध के मैदान में भेजते थे. स्त्रियां और बहनें राखी बांधती थीं. युद्ध के मैदान में जब कोई घर का सदस्य जाता था, तो बहनें उसे राखी बांधती थीं. राखी के बाद दूसरा त्योहार आता है विजयादशमी. इस त्योहार से अनेक किंवदंतियां और कहानियां जुड़ी हैं. हमारे यहां इन त्योहारों को जाति-वर्ण व्यवस्था से भी जोड़ दिया गया है. रक्षाबंधन ब्राह्मणों का और विजयादशमी क्षत्रियों का त्योहार माना जाता है.


दीपावली प्रकाश का पर्व माना जाता है. इसे लक्ष्मी से जोड़ कर भी देखा जाता है, क्योंकि आमतौर पर वणिक समाज दीपावली के दिन खूब खरीदारी करते हैं. वणिक वर्ग वाणिज्य-व्यवसाय करने वाले लोगों का है. इसलिए आमतौर पर दुकानों में, जहां उनका व्यवसाय होता है, दीये जलाये जाते हैं.


त्योहारों के इस क्रम में देखें तो आगे चल कर होली मनायी जाती है. होली एक तरह से नये वर्ष का शुभारंभ है. होली के बाद नया वर्ष शुरू होता है.


हमारे यहां मुख्यत: चार त्योहार हैं. यह ऋतुओं के अनुसार हैं. जैसे वर्षा बीती तो उसके बाद सर्दी आ जाती है. जब सर्दी समाप्त होती है, तो वसंत होता है, गर्मी आने लगती है. होली वसंत का त्योहार है. होली सबका त्योहार है, क्योंकि इसे जाति-वर्ण व्यवस्था के आधार पर शूद्र वर्ण के साथ जोड़ कर देखा जाता है. यह सब परंपराओं से चला आ रहा है, लेकिन सब मनाते है कि यह सबका त्योहार है.


वसंत पंचमी को सरस्वती के साथ जोड़ दिया गया है. यह ब्राह्मणों का त्योहार माना गया है. वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये, तो यह ऋतु परिवर्तन के साथ भी जुड़ा है.


इन पवरें के पीछे किंवदंतियां और कथाएं जोड़ दी गयी हैं, लेकिन उनका एक प्राकृतिक आधार भी है. विश्‍व में कुछ देश ऐसे भी हैं, जहां दो ही ऋतुएं होती हैं. सर्दी या गर्मी, लेकिन हमारे यहां जो माना जाता है, और जो कल्पना की गयी है, उसके अनुसार बारह माह और छह ऋतुओं का वर्णन किया गया है. बहुत सारा साहित्य ऋतुओं के बारे में लिखा गया है. उस क्रम में दीपावली का भी वर्णन आता है. दीपावली के दिन कुछ लोग लक्ष्मी पूजन करते हैं, तो कुछ जुआ भी खेलते हैं. ये सारी चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं.


कुल मिला कर वर्षा ऋतु समाप्त होने के बाद हर आदमी अपने घर में एक बार दीप प्रज्वलन का काम करता है. इसका एक वैज्ञानिक आधार भी है. हमारे देश में 26 जनवरी को राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मनाया जाता है. हमारा प्रशासन इसे प्रकाश पर्व के रूप में मनाता है. गणतंत्र दिवस के दिन पार्लियामेंट से लेकर राष्ट्रपति भवन तक प्रकाश होता है. प्रकाश पर्व एक तरह से उल्लास का पर्व है. राजनीतिक जीवन में देखें, तो आमतौर से यह पर्व आर्थिक, राजनीतिक स्थिति के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है. आर्थिक संकट के दौर में भी हम इसे प्रतीक के रूप में देख सकते हैं. हमारे जीवन में जो परिवर्तन आते हैं, उनके साथ ही हमारे त्योहारों का स्वरूप भी बदल जाता है. उन परिवर्तनों के संदर्भ में भी दीपावली को देख सकते हैं.


हमारा देश आर्थिक व राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है. उदारीकरण के कई प्रस्ताव आ रहे हैं, जिनके कारण स्थितियां बदलेंगी. हमारे देश में व्यक्तिगत पूंजीवाद का बहुत विकास हुआ है. न जाने कितनी कंपनियां लोगों ने खोली हैं. पहले हमारे यहां कुछ गिने-चुने उद्योग घराने होते थे. आज उनके अलावा भी बहुत ब.डे-ब.डे पूंजीपति पैदा हो गये हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भी हमारे यहां दखल बढ.ा है. अनेक राजनीतिक नेता इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जु.डे हैं.


आजादी के पहले और बाद में जिस समाजवादी ढांचे की हमने कल्पना की थी, वह कल्पना ही रह गयी है. उसके समानांतर देखें, तो सरकार के पास जो भी पूंजी है, उसे कल्याणकारी काम में कितना लगा रही है, वह काम हो रहे हैं या नहीं, यह विचारणीय है, क्योंकि उस मात्रा में गरीबी का उन्मूलन नहीं हो सका है. हमारे देश में पढे.-लिखे बेकारों की संख्या लगातार बढ. रही है. बेकारों की एक फौज खड़ी हो गयी है. जिस गरीबी के उन्मूलन का संकल्प लिया था, वह दूर नहीं हो रही है. ऐसे में गरीबों के लिए दीपावली के क्या मायने होंगे?


देश में ध्रुवीकरण हो रहा है. एक ओर ब.डे-ब.डे पूंजीपति तैयार हो रहे हैं, दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या भी तेजी से बढ. रही है. यह जो दो छोर दिखाई दे रहे हैं, यह एक नया अर्थतंत्र है. इस अर्थतंत्र को हम लोग अपनी पुरानी परंपरा से जोड़ कर देखें, तो एक ओर बिजली की चमक-दमक वाले मकान होंगे, दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ियां, जहां दिया जलाने के लिए तेल भी नहीं होगा. अमीरी-गरीबी का यह फासला लगातार बढ.ता जा रहा है. ऐसी ही स्थितियों में विद्रोह पैदा होता है. यह स्थिति ज्यादा दिन चलनेवाली नहीं है. दीपावली के दिन यदि शहर का चक्कर लगाया जाये, तो फर्क मालूम हो जायेगा कि दीपावली कहां-कैसे मनायी जा रही है.


दीपावली का साहित्य से बड़ा गहरा संबंध है. महादेवी वर्मा, दीपशिखा महादेवी वर्मा कहलाती हैं. उन्होंने दीप पर बहुत अच्छे गीत व कविताएं लिखी हैं. महादेवी ही नहीं, अधिकतर कवियों ने दीपक को अपने जीवन का प्रतीक माना है. प्रकाश का अंधकार से संघर्ष जारी है. निराला जी की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ एक सिद्ध कविता है, जो रावण के विरुद्ध राम के संघर्ष को दर्शाती है.


हमारे यहां दरिद्र-खेदन की परंपरा रही है, जिसको आज नया अर्थ दिया जा सकता है. दरिद्रता चली गयी होती, तो दीपावली का त्योहार भी खत्म हो गया होता. यह इस बात का सूचक है कि आज भी हम अपने घर से दरिद्रता दूर करने का प्रयास कर रहे हैं. महानगरों में यह त्योहार संपत्ति व वैभव के प्रदर्शन का सूचक है. छोटे व्यवसायियों की आमदनी भी इससे जुड़ी हुई है. शहरों में लोग बल्ब जलाते हैं, दीये का प्रचलन खत्म हो रहा है. दीपक और बल्ब में फर्क है. अमीर व गरीब का. संस्कार व असंस्कारी लोगों का. दीपावली को मानदंड मान लिया जाये, तो समाज में विभित्र वगरें का फर्क मालूम होता है. समाज में कितने स्तर है, यह मापक है संपत्ति का.


सुभाष गौतम







     

Monday, October 15, 2012


कामरेड अरूण प्रकाश का जाना 
सुभाष गौतम
कथाकार अरूण प्रकाश जी से मेरी मुलाकात जून 2011 में हुई थी। एक बात-चीत के सिलसिले में मेरा उनके घर जाना हूआ था। बात-चीत का विषय ‘बेगूसराय का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक इतिहास’ था। अरूण प्रकाश से बात-चीत के लिए मैं नंदीग्राम डायरी के लेखक पुष्पराज जी के आग्रह पर गया था। पहुंच कर मैं बरामदे में बैठा थोडे देर बैठने के बाद, कमरे से कथाकार अरूण प्रकाश निकले और सामने वाली कुर्सी पर आ बैठे, नाक में आक्सीजन की नली लगी थी। मैंने उनसे बात-चीत शुरू की, तकरीबन तीन घंटे तक वो लगातार बात करते रहे। उस दिन उन्हांेने बेगूसराय बिहार के बारे में एक से एक रोचक जानकारी दी। यहां तक कि छोटे-छोटे उद्योग-धंधे, व्यवसाय आदि की बहुत सी बाते बताई, कुछ जानकारियां तो ऐसी दी कि जो इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं मिलती। मझौल के बारे में उन्होने बताया कि मझौल में एक नील कोठी थी। उसमें एक नीलहा रहता था जो कोई भारतीय नील कोठी के सामने से गुजरता वो अपना छाता बन्द कर लेता, अगर तांगा गाडी गुजरता था तो उस में सवार सभी लोग उतर कर पैदल चलते थे। आज की नयी पीढ़ी को यह मालूम ही नहीं कि उस कोठी के सामने से उनके माता-पिता, दादा-दादी सिर झुका के गुजरा करते थे। उस दिन हमारी बात-चीत सफल रही उसके बाद हम मित्र कब बन गये पता नहीं चला। जहां तक मुझको याद है कि विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक ‘‘व्योमकेश दरवेश’’ पर एक लेख लिखवाया, वो लेख उनका आखिरी था उसके बाद उन्होने कोई लेख आदि नहीं लिखा था। 
एक दिन उन्होंने बताया कि जीवन का ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक स्रोत साहित्य भी है, लेकिन यदि लेखक के पास ज्ञान कम होतो ऐसी स्थिति में पाठक तक ज्ञान कैसे पहुंचेगा। अभी हाल ही में मेरे जवान बेटे मनु प्रकाश ने कहा कि मेरे पास जीवन का ज्ञान बहुत कम है। इसका प्रसंग तब निकला जब उसने बताया कि वह तैराकी सीखने जा रहा है। बरौनी में रहता तो वह तैराकी अपने आप सीख जाता। यहां दो-दो नदीयां हैं। गंगा और बया लेकिन दिल्ली की सड़ी हुई यमुना में यह संभव नहीं। शहरी जीवनशैली कुछ ऐसी है कि आदमी अपने तक सिमट कर रह जाता है। फ्लैटों की जिंदगी में जीवन के पर्यावारण से सीधा संपर्क बहुत कम हो पाता है। अरूण जी छोटे-बड़े, स्त्री-पुरूष में भेद नहीं रखते थे सबकों समान भाव से देखते थे। वो हर किसी के कास को सराहते थे चाहे वह समाज का छोटा से छोटा आदमी क्यों न हो। अरूण जी बेहद सहज और सरल स्वभाव के इंसान थे, कोई भी उन से मिलने के बाद उनका मूरीद हो जाता। वो बहुत ही जिवट इंसान थे। विकट परिस्थितियों में भी विचलित होने वाले नहीं थे। मैं सप्ताह में तीन से चार दिन उनसे मिलने जाता मुझे प्यार से हनुमान कहते क्यों कि जब भी वो फोन करते मैं हाजिर हो जाता। उनके यहां जैसे पहुँचता वो कहते- तो बताईये क्या खबर लाए है साहित्य जगत की’ आये दिन किसी ना किसी नए विषय पर हमारी चर्चा होती। जिस दिन उनको बात करने का मन नहीं होता तो  कहते आज कुछ संगीत हो जाए, हम गाना सुनाते और वह मेज बजाते फिर देर रात घर लौटता। मैं उन्हें एक साहित्यकार के रूप में नहीं एक व्यक्ति के रूप में जानता था।
मार्कसवाद के विषय में वो कहा करते थे कि -समाजसेवा और क्रांतिकारी काम भविष्योन्मुखी होता है, जनता उसको लेकर दूरगामी स्वपन देखती है। लेकिन यदि जनता को तात्कालिक तकलीफ है तो उसे रिलीफ भी तात्कालिक चाहिए। माक्र्सवाद जैसा व्यवहारिक दर्शन यथार्थवाद है जो दार्शनिक स्वप्न देखता है। अंधविश्वास और विश्वास जैसी श्रद्धा नहीं  तार्किक सहमति होनी चाहिए। अरूण जी ने जीवन के आखिरी दिनों में भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं किया क्योकि वो अन्य वामपंथीयों की तरह नहीं थे। उन्हें विचारधारा की बहुत अच्छी समझ थी। उनके लेखन में भी विचारधारा की झलक मिलती है। एक दिन उन्हांेने पूछा कि तुम क्या बनना चाहते हो? मैंने कहा कि एक अच्छा इंसान बनना चाहता हूं। इस बात पर वे बोले कि एक अच्छा इंसान बनना कोई मुश्किल काम नहीं है। लेकिन अच्छा बनने के बाद अच्छा बना रहना बड़ी बात है। साहित्य जगत के किसी भी लेखक की उन्होने कभी भूल कर भी निन्दा नही की। अरूण जी साहित्य जगत में ऐसे व्यक्ति थे जिनकी अगर कोई आलोचना भी करता तो वो पलट कर जवाब नहीं देते थे। हिंदी के आलोचक प्रो. नामवर सिंह जी के विषय में हमेशा पूछते उनकी तारीफ भी करते थे। पर नामवर जी से उनकी एक शिकायत थी। अरूण जी कहते थे कि ‘नामवर जी ने मेरी रचानाओं पर कभी भूल से भी आलोचना या तारीफ नहीं की होगी। कहीं न कहीं ये कसक उनके मन में थी कि नामवर जी उनकी रचनाओं पर कभी टिप्पणी नहीं किए। 
अस्वस्थ होने के बावजूद भी उन्होने पिछले दिनों ‘गद्य की पहचान’ नाम से एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी। इस आलोचनात्मक पुस्तक के संबन्ध में बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि ‘इसको लिखने के पीछे एक रोचक तथ्य मेरे सामने था। आत्मकथात्मक उपन्यास जैसा एक शब्द आया। जिस पर वे विचार करने लगे। आत्मकथा और उपन्यास दोंनों अलग संरचनाएं हैं। दोनों में से आखिर कौन अधिक महत्वपूर्ण है? किसका असर अधिक होगा? दोनों में से कौन अधिक प्रभावशाली है? इन्हीं विचारों व सवालों को जानने की मनसा से उन्होंने अध्य्यन शुरू किया। इसी क्रम में अध्ययन करते हुए उनके मन में प्रायः यह सवाल उठने लगते, आलोचना किस के लिए होती है? यह कैसी होनी चाहिए? यह सामान्य पाठक के लिए होनी चाहिए या विशिष्ठ वर्ग के लिए। यह अक्सर विशिष्ठ वर्ग के लिए होती है। अकादमिक क्षेत्र के पाठक भी इसमें आ जाते है। आलोचना का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। प्रारंभिक सूचना क्षेत्र, दीर्घ आलोचना, लघु आलोचना जैसी विधाएं कहानी और उपन्यास से पिछे रह गयी हैं जिन पर लिखा जाना चाहिए। इसमें व्यवस्थित रूप से कार्य होना अभी बाकी है। यह मनोरंजक तरकीब से लिखा हुआ होना चाहिए जिसको पढ़ने पर पाठक को आन्नद आये। इन्हीं विचारों के चलते उन्होंने ‘गद्य की पहचान’ लिखा। उनका हृदय उस वक्त गदगद हो उठा जब विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने फोन पर उन्हें बधाई देते हुए कहा कि उनकी आलोचनात्मक पुस्तक वाकई काबिले तारीफ है यह अपने आप में एक जन जागरण है। उनकी पुस्तक ‘गद्य की पहचान’ लिखने के पश्चात वो बेहद अस्वस्थ रहने लगे थे। मई 2012 के अंत में वो जब हास्पीटल में थे उस समय हम उनसे मिलने गये थे। उन्होंने मेरे हास्पीटल पहंुचते ही कहा कि हनूमान शुक्रवार पत्रिका की दो काॅपी का इंतजाम करों मैं झट उठा और दो काॅपी पत्रिका लेकर आ गया। उन्होने अपने जेब से 20 रू निकाल कर दिए और बोले कि जो सबसे अधिक अक्रामक तेवर वाला व्यक्ति है वहीं समीक्षा पढ कर सुनाएगा । वहां पर मौजूद सभी लोग एक दूसरे की ओर देखने लगे। फिर उन्होनें पत्रिका को रंजना के तरफ बढ़ाते हुए कहा कि पढ़ों। रंजना ने पत्रिका में छपी समीक्षा को पढना शुरू किया उस समय हास्पीटल का वो कमरा एकदम शांत हो गया था। समीक्षा का पाठ खत्म होने के बाद उन्होने समीक्षक और संपादक की तारीफ की और कहा कि समीक्षा अच्छी है। 18 जून 2012 को दोपहर एक बजे दिल्ली के पटेल चेस्ट हास्पीटल में उनका देहावसान हो गया और अपने पीछे छोड़ गये अपनी साहित्यिक संपदा। 

Sunday, June 17, 2012


जनांदोलन की पत्रकारिता का महत्व
सुभाष गौतम
‘‘चर्चीत पुस्तक ‘नंदीग्राम डायरी’ के लेखक एवं जनांदोलनांे की पत्रकारिता करने वाले युवा पत्रकार ‘पुष्पराज’ की सुभाष गौतम से बातचीत। पुष्पराज उन पत्रकारो में से एक हैं जो पत्रकारिता पेशे के लिए नहीं सामाज परिवर्तन के लिए करते है।’’
प्रश्न- पुष्पराज जी आप जनांदोलनों की खबरें लिखते रहे हैं। आप वर्तमान समय  में जनआंदोलन और मीडिया की भूमिका को किस रूप में देखते हैं ?
पुष्पराज- मीडिया का मतलब ‘माध्यम’ होता है। आज मीडिया का मतलब संपूर्ण सूचनातंत्र के ढ़ांचे से है। भारतीय सूचनातंत्र का पूरा ढांचा औद्योगिक समूहों के नियंत्रण में है। मैं सूचना प्रसारण के इस माध्यम को ‘मीडिया’ की बजाय ‘पत्रकारिता’ कहना ज्यादा उचित मानता हूं। मैं जो लिखता हूँ और एक बडे़ पाठक समूह तक अपनी बात पहुँचाना चाहता हूँ यह ‘पत्रकारिता के द्वारा ही करता हूँ, इसलिए अपनी प्रिय ‘पत्रकारिता’ के चेहरे पर ‘मीडिया’ का भूत जितना कम चढे,़ मैं खुद को उतना अधिक उन्मुक्त महसूस करता रहूंगा। आज बहस ‘पत्रकारिता पर बहुत कम ‘मीडिया’ पर बहुत अधिक हो  रही है। मैं समझता हूं कि पत्रकारिता किसके लिए इस विषय पर खुली बहस होनी चाहिए। पत्रकारिता होगी तो हर हाल में ‘जन’ के लिए ही होगी। पत्रकारिता कभी ‘खास’ के लिए नहीं होती है। आज सŸाापरस्त पूंजीपरस्त पत्रकारिता भारतीय पत्रकारिता का असली चेहरा तैयार करता है। जिस पत्रकारिता में ‘जन’ नहीं हैं उस पत्रकारिता को पत्रकारिता के बजाय ‘मीडिया’ कहो तो ज्यादा सुविधा है। पत्रकारिता जितनी पेशेवर होती गयी, समाज और जन से उतनी दूर होती गयी। पेशे में धंधा और आजीविका मुख्य लक्ष्य होता है। जन के सवाल जन आन्दोलन के मुद्दे पेशेवर पत्रकारिता के उद्देश्य नहीं होते। अब ऐसे ही पेशेवर पत्रकारों के बडे़ समूह ने जब पत्रकारिता को पूरी तर नौकरीकारिता में बदल दिया है तो वे बार-बार मीडिया-मीडिया-मीडिया का शोर करेंगें ताकि आप यकीन करिये वे जो पत्रकारिता नहीं कर रहें हैं उसके लिए वे नहीं, उनके ऊपर बैठा मालिक समूह मीडिया घराना जिम्मेदार है। मैं समझता हूँ कि अखबार या चैनल का संवाददाता, उपसंपादक या संपादक सबसे पहले पत्रकार होता है और उसे अपने पत्रकारिता दायित्व के निर्वाह की चुनौती कबूल करनी चाहिए। अखबारों और चैनलों के भीतर कार्यरत पत्रकार अगर अपनी पत्रकारिता के महान लक्ष्य को हर हाल में अंजाम देने की सौगंध लेते है तो पत्रकारिता का असली मतलब साबित हो पायेगा। मैं मीडिया के हौवा को सामने रखकर सवाल नहीं करना चाहता। ‘मीडिया’ का मतलब हमारे सामने एक निर्जीव पंूजी का स्टैªक्चर(ढ़ांचा) खड़ा होता है। इस निर्जीव ढं़ाचे से हम किस तरह संवाद कर सकते हैं। जनांदोलन और मीडिया की बजाय जनांदोलन और पत्रकारिता कहिये तो पत्रकार समूह के किसी मूर्धन्य पत्रकार या प्रशिक्षु पत्रकार से आप सीधे संवाद कर सकते हैं। इस समय पत्रकारिता संवाद हीनता के चरम पर जा चुकी है। हमारी पत्रकारिता के भीतर संवाद नहीें होगा तो पूंजीतंत्र  का ढ़ंाचा पूरी पत्रकारिता को लोहे और प्लास्टिक के ढ़ंाचे में बदल देगा। अगर जनांदोलन पर मनन करें तो देखिए क्या भारतीय पत्रकारिता के नियंता संपादकों, चैनल प्रमुखों के पास आंख और कान तो बचे हैं? ये देखते भी हैं और सुनते भी हैं तो देश में दमन के विरूद्ध जारी जनांदोलनों की आवाज इनके कान तक आकर किस तरह ठहर जाती है?   
प्रश्न- नंदीग्राम के जनआंदोलन पर सबसे पहले आपकी चर्चित पुस्तक ‘नंदीग्राम डायरी’ प्रकाशित हुई। इस आंदोलन में मीडिया ने आम जनता से जुडे सरोकार को कितना तवज्जो दिया ?
पुष्पराज-नंदीग्राम को सामने रखकर भारतीय पत्रकारिता के सूत्रधारों को आत्म समीक्षा करनी चाहिए। अंग्रेजी पत्रकारिता में सबसे बेहतर माने जाने वाले अखबार ‘द हिन्दू’ ने नंदीग्राम के साथ सही भूमिका नहीं निभायी तो पत्रकारिता में अंतराष्ट्रीय रूप से डंका पीटने वाले संगठन बी0बी0सी0 की भूमिका भी हास्यास्पद रही। खेतिहर पत्रकारिता के चर्चित पत्रकार पी0 साईनाथ ने नंदीग्राम के कृषक संग्राम को दर्ज करना जरूरी नहीं समझा। मालूम नहीं साईनाथ ने नंदीग्राम के किसानों को किस तरह से देखा । नंदीग्राम संग्राम को भारतीय मीडिया कभी संप्रदायिक शक्तियों का उन्माद तो कभी तृण मूल कांग्रेस और माओवादियों का आतंक घोषित करता रहा। नंदीग्राम संग्राम को प्रभाष जोशी ने जरूर नंदीग्राम जाकर समझने की कोशिश की और कृषक संग्राम के सत्य को अपने ‘कागद-कारे’ में दर्ज किया। लेकिन प्रभाष जोशी जिस ‘जनसŸाा’ के संस्थापक संपादक रहे, उस ‘जनसŸाा’ ने नंदीग्राम के ‘जन’ की आवाज नहीं सुनी। ‘जनसŸाा’ का कोलकाता संस्करण संग्राम के विरुद्ध खबरें छापता रहा और प्रभाष जोशी सलाहकार संपादक होते हुए भी ‘जनसŸाा’ को जन के पक्ष में खड़ा रहने के लिए मजबूर नहीं कर सके। नंदीग्राम भारतीय पत्रकारिता के कृष्णपक्ष को उजागर करता है। मुझे संतोष है कि भारतीय पत्रकारिता अंगे्रजी और हिन्दी पत्रकारिता से निर्देशित नहीं होती है और नंदीग्राम की आवाज बंाग्ला अखबारों में सुर्खियों से आती रही। बंगाल का सबसे बड़ा अखबार आनंद बाजार अंततः नंदीग्राम संग्राम के विरुद्ध राज्यपोषित हिंसा का साथ देता रहा लेकिन दैनिक स्टेटममेन(बांग्ला) और वर्तमान ; (बांग्ला) जैसे अखबार जन के साथ डटे रहें। 
प्रश्न-जनआंदोलनों की खबरों के मामले में कारपोरेट के हस्तक्षेप को किस रूप में देखते है?
 पुष्पराज- जन आंदोलन की खबरों को रोकने के मामले में काॅरपोरेट समूह सीधे तौर पर कामयाब हो सकते है, मुझे ऐसा यकीन नहीं होता है।मैं समझता हूँ कि किसी भी अखबार या चैनल का मालिक जनांदोलन की खबरों को रोकने की ताकत नहीं रखता है, अगर उसके भीतर कार्यरत पत्रकारों में जन और जनांदोलनों की खबरों को कवर करने की इच्छाशक्ति हो। मैंने देखा है कि नर्मदा बचाओं आंदोलन जैसे चर्चित अहिंसक आंदोलन की खबर को इसलिए रोक दिया गया कि उस अंगे्रजी अखबार का समाचार संपादक नर्मदा बचाओं आंदोलन के बारे मे उलट राय रखता है। पेशेवर पत्रकार ज्यादातर आर्थिक उदारवाद और इंडिया सांइनिंग के पक्षधर है।  मालिक जन और जनांदोलन की खबरें कवरेज करने से रोकता है, ऐसा बहुत हद तक सही नहीं है। ऐसे पत्रकार जो पेशे से ऊपर पत्रकारिता को रखते है। वो काॅरपोरेट हस्तक्षेप से टकरा सकते हैं, लेकिन मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि आप एक चैनल के प्रमुख हैं और आप इस जनांदोलन को कवर करना चाहते है और आपको आपके मालिक ने ऐसा करने से रोक दिया। 
प्रश्न-बडे मीडिया घरानों की जनआंदोनल में भूमिका और लधुपत्रिकाओं की भूमिका में आप क्या फर्क देखते हैं, लधुपत्रिकाएं किस रूप में जनआंदोलनों को देखती हैं?
पुष्पराज-1992 में भारत में आर्थिक उदारवाद का दौर आया इस दौर में अखबार समूहों ने वेज बोर्ड की बजाय कंटैªक्ट की नौकरी को ज्यादा प्राथमिकता दी। इसी दौर में भारत में ‘कंटैªक्ट जर्नलिज्म’ का दौर शुरू हो गया। समाजसेवा के क्षेत्र में एन0जी0ओ0 कंटैªक्ट सोसल वर्क करते हुए वेतन भोगी सोसल वर्कर तैयार करते हैं, उसी तरह ‘कंटैªक्ट जर्नलिज्म’ ने पत्रकारिता की रीढ़ छीन ली। रीढ़हीन संपादक जो कभी तन कर खड़ा होना नहीं सीख पाये, उनके सदैव दंडवत स्वरूप पर क्या रोना? जंहा तक बडे़ मीडिया घरानों की जनांदोलन में भूमिका का सवाल है तो इमरजेंसी के समय इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समेन की भूमिका सŸाा के विरूद्ध जन के साथ की रही। एक्सप्रेस समूह के भीतर का यह ढ़ांचा प्रभाष जोशी के नेतृत्व वाले जनसŸाा में दिखता रहा । एक समय इंडियन एक्सप्रेस नर्मदा बचाओ आंदोलन के विरुद्ध प्रायोजित खबरंे छापता रहा लेकिन जनसŸाा की भूमिका जन और आंदोलन के साथ कायम रही। बडे़ घराने हर हाल में आंदोलन के विरोधी होते हैं लेकिन जनांदोलन के बढ़ते दबाव से वे खबरें रोक नहीं पाते। नंदीग्राम के संग्राम की खबर जब देश के बडे़ अखबारों में जगह नहीं ले पा रहीं थी तब दिल्ली से प्रकाशित एक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘संडे पोस्ट’ ने नंदीग्राम की आवाज को तवज्जो दिया था। जाहिर है कि बड़ी पूंजी के अखबार जब जनता की आवाज को दबाते हंै तो छोटी पूंजी के समाचार पत्र जन संघर्ष को प्राथमिकता देते हैं। ये छोटी पूंजी वाले समाचार पत्र तत्काल एक आंदोलन को तवज्जो देते हैं और कालांतर में इसे प्रतिबद्धता की तरह कायम नहीं रख पाते। लघु पत्रिकाओं की भूमिका हर हाल में जन और जनांदोलन के पक्ष में रहती है। लघु पत्रिकाएं एक प्रगतिशील बौद्धिक समाज से जुड़े होते हैं। ये व्यावसायिक कम व साहित्यिक ज्यादा होते हंै। इसलिए अपने पाठक वर्ग के मिजाज का ख्याल रखते हुए ये जन और जनांदोलन के प्रति हर हाल में समर्थन की भूमिका दिखाते हैं। इनकी समस्या यह है कि हर लघु पत्रिका के संपादक महोदय के पास लिखने वालों का एक सीमित लेखक समूह होता है। वे जिस लेखक से स्त्रीवाद पर आलेख लिखवाते हैं, उसी लेखक से सेज विरोधी कृषक जनांदोलन पर आलेख मांगते हैं। हिन्दी लघु पत्रिकाओं का विवेक संपादक की जेब में सिमटा होता है। हिन्दी के नामचीन लेखक जन और जनांदोलन को अखबारों की रिर्पोटों से ही ज्यादा जानते हैं। हिन्दी पट्टी में हो रहे किसी सुगबुगाहट या किसी आपदा को जमीन पर खड़ा होकर कितने लेखक दर्ज करते हंै। ऐसे में लघुपत्रिकाओं की चुनौती बढ़ जाती है कि आप कथा कहानी, आलोचना की लकीर से आगे जैतापुर, कंुडाकुलम, काकीनाडा के आंदोलन को भी दर्ज करिये। हिन्दी की लघु पत्रिकाओं में तीसरी दुनिया की लोकप्रियता कायम है। साहित्यिक पत्र-पत्रिका के संपादक जनांदोलनों पर आधारित कोई अंक नहीं निकालते और हर अंक में जनांदोलनों पर केन्द्रित आलेख-रिपोर्ताज प्रकाशित करना अपनी जिम्मेदारी नही समझते। इन संपादकों को ऐसा लगता है कि जनांदोलन पर केन्द्रित आलेखों का प्रकाशन साहित्यिक पत्रिकाओं का दायित्व नहीं । जनांदोलनों को प्रमुखता नहीं देने वाला साहित्य और पत्रकारिता लगातार निर्जीव होता जायेगा।                       
प्रश्न-अन्ना आंदोनल को क्या जनआंदोन की श्रेणी में रख कर देखा जा सकता है? आप इस आंदोनल में मीडिया की भूमिका को किस तरह देखते है?                 पुष्पराज-अण्णा हजारे ने भ्रष्टाचार विरोधी जो अभियान चलाया उसे जनांदोलन कहना, जनआंदोलन की परिभाषा का मजाक है। एन0जी0ओ0 समूह और नौकरशाहों की ताकत ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो तिलिस्म निर्मित किया गया उसे भारतीय मीडिया ने जनांदोलन कहा । मीडिया की भूमिका अण्णा और भ्रष्टाचार विरोधी कथित आंदोलन को कवरेज करने में काफी हास्यास्पद रही। आम आदमी के सामने मीडिया ने जो हास्यास्पद छवि अण्णा के बहाने बनायी है, अब देश के किसी भी हिस्से में पत्रकारों के लिए सम्मान के दो शब्द आम आदमी की जुबान में नहीं हैं।  
प्रश्न-आप जनआंदोलन और मीडिया के संदर्भ में अपने अनुभवों के आधार पर क्या सलाह देना चाहेंगे?                                                           
पुष्पराज-अगर आप तय करते है कि पत्रकारिता किसके लिए करनी है तो आप तयशुदा लक्ष्य की तरफ पांव रोंपते हैं। शायद अपने साथ भी ऐसा ही हुआ। जन और जनता के द्वारा जारी जन संघर्षों के बीच से गुजरते हुए अगर लिखंे, नही ंतो क्या करें? मुझे लगा मैं क्या लिखकर युद्ध का साक्षी हो रहा हूँ। दिल्ली से बाहर जो एक अलग भारत मैं देखता हूँ वह युद्धरत भारत है । नर्मदा में जन संघर्ष का 26 वर्ष पूरा हो गया है। विस्थापितों का पुनर्वास इतने वर्षो में नहीं हुआ। लेकिन पुनर्वास पैकेज में 500 करोड़ का घोटाला हो गया। न्यायिक आयोग पुनर्वास घोटाला की जांच कर रहा है। 26 वर्षो के इस अहिंसक संघर्ष को लिखने के लिए एक नहीं 26 पत्रकारों का दस्ता होना चाहिए। देश में कुछ पत्रकार हैं, जो जनांदोलन की खबरें लिखने के लिए युद्धरत किसानों, आदिवासियों के जीवन के दुखः को साझा करते है। पत्रकारों की पूरी फौज चाहिए। आदिवासियों की जिंदगी का सफाया करने वाला शासकीय अभियान कब खत्म होगा। हमारे देश के मूल निवासी आदिवासियों के 600 गांव छतीसगढ़ में उजाड़ दिये गये। हमारे लोग नहीं बचेंगें तो हमारी पत्रकारिता का क्या होगा? वह आदमी जो मुझे आवाज दे रहा है, उसकी आवाज हम लिख सकते हैं तो मालिको की पूंजी मुझे कब तक दबा कर रखेगी? हमने देश के सबसे अमीर ताकतवर अंबानी समूह के भ्रष्टाचार को उजागर करने का स्वप्न जीता है। अगर आप स्वप्नदर्शी नहीं हैं तो पत्रकारिता आपके लिए नहीं है।