Sunday, June 17, 2012


जनांदोलन की पत्रकारिता का महत्व
सुभाष गौतम
‘‘चर्चीत पुस्तक ‘नंदीग्राम डायरी’ के लेखक एवं जनांदोलनांे की पत्रकारिता करने वाले युवा पत्रकार ‘पुष्पराज’ की सुभाष गौतम से बातचीत। पुष्पराज उन पत्रकारो में से एक हैं जो पत्रकारिता पेशे के लिए नहीं सामाज परिवर्तन के लिए करते है।’’
प्रश्न- पुष्पराज जी आप जनांदोलनों की खबरें लिखते रहे हैं। आप वर्तमान समय  में जनआंदोलन और मीडिया की भूमिका को किस रूप में देखते हैं ?
पुष्पराज- मीडिया का मतलब ‘माध्यम’ होता है। आज मीडिया का मतलब संपूर्ण सूचनातंत्र के ढ़ांचे से है। भारतीय सूचनातंत्र का पूरा ढांचा औद्योगिक समूहों के नियंत्रण में है। मैं सूचना प्रसारण के इस माध्यम को ‘मीडिया’ की बजाय ‘पत्रकारिता’ कहना ज्यादा उचित मानता हूं। मैं जो लिखता हूँ और एक बडे़ पाठक समूह तक अपनी बात पहुँचाना चाहता हूँ यह ‘पत्रकारिता के द्वारा ही करता हूँ, इसलिए अपनी प्रिय ‘पत्रकारिता’ के चेहरे पर ‘मीडिया’ का भूत जितना कम चढे,़ मैं खुद को उतना अधिक उन्मुक्त महसूस करता रहूंगा। आज बहस ‘पत्रकारिता पर बहुत कम ‘मीडिया’ पर बहुत अधिक हो  रही है। मैं समझता हूं कि पत्रकारिता किसके लिए इस विषय पर खुली बहस होनी चाहिए। पत्रकारिता होगी तो हर हाल में ‘जन’ के लिए ही होगी। पत्रकारिता कभी ‘खास’ के लिए नहीं होती है। आज सŸाापरस्त पूंजीपरस्त पत्रकारिता भारतीय पत्रकारिता का असली चेहरा तैयार करता है। जिस पत्रकारिता में ‘जन’ नहीं हैं उस पत्रकारिता को पत्रकारिता के बजाय ‘मीडिया’ कहो तो ज्यादा सुविधा है। पत्रकारिता जितनी पेशेवर होती गयी, समाज और जन से उतनी दूर होती गयी। पेशे में धंधा और आजीविका मुख्य लक्ष्य होता है। जन के सवाल जन आन्दोलन के मुद्दे पेशेवर पत्रकारिता के उद्देश्य नहीं होते। अब ऐसे ही पेशेवर पत्रकारों के बडे़ समूह ने जब पत्रकारिता को पूरी तर नौकरीकारिता में बदल दिया है तो वे बार-बार मीडिया-मीडिया-मीडिया का शोर करेंगें ताकि आप यकीन करिये वे जो पत्रकारिता नहीं कर रहें हैं उसके लिए वे नहीं, उनके ऊपर बैठा मालिक समूह मीडिया घराना जिम्मेदार है। मैं समझता हूँ कि अखबार या चैनल का संवाददाता, उपसंपादक या संपादक सबसे पहले पत्रकार होता है और उसे अपने पत्रकारिता दायित्व के निर्वाह की चुनौती कबूल करनी चाहिए। अखबारों और चैनलों के भीतर कार्यरत पत्रकार अगर अपनी पत्रकारिता के महान लक्ष्य को हर हाल में अंजाम देने की सौगंध लेते है तो पत्रकारिता का असली मतलब साबित हो पायेगा। मैं मीडिया के हौवा को सामने रखकर सवाल नहीं करना चाहता। ‘मीडिया’ का मतलब हमारे सामने एक निर्जीव पंूजी का स्टैªक्चर(ढ़ांचा) खड़ा होता है। इस निर्जीव ढं़ाचे से हम किस तरह संवाद कर सकते हैं। जनांदोलन और मीडिया की बजाय जनांदोलन और पत्रकारिता कहिये तो पत्रकार समूह के किसी मूर्धन्य पत्रकार या प्रशिक्षु पत्रकार से आप सीधे संवाद कर सकते हैं। इस समय पत्रकारिता संवाद हीनता के चरम पर जा चुकी है। हमारी पत्रकारिता के भीतर संवाद नहीें होगा तो पूंजीतंत्र  का ढ़ंाचा पूरी पत्रकारिता को लोहे और प्लास्टिक के ढ़ंाचे में बदल देगा। अगर जनांदोलन पर मनन करें तो देखिए क्या भारतीय पत्रकारिता के नियंता संपादकों, चैनल प्रमुखों के पास आंख और कान तो बचे हैं? ये देखते भी हैं और सुनते भी हैं तो देश में दमन के विरूद्ध जारी जनांदोलनों की आवाज इनके कान तक आकर किस तरह ठहर जाती है?   
प्रश्न- नंदीग्राम के जनआंदोलन पर सबसे पहले आपकी चर्चित पुस्तक ‘नंदीग्राम डायरी’ प्रकाशित हुई। इस आंदोलन में मीडिया ने आम जनता से जुडे सरोकार को कितना तवज्जो दिया ?
पुष्पराज-नंदीग्राम को सामने रखकर भारतीय पत्रकारिता के सूत्रधारों को आत्म समीक्षा करनी चाहिए। अंग्रेजी पत्रकारिता में सबसे बेहतर माने जाने वाले अखबार ‘द हिन्दू’ ने नंदीग्राम के साथ सही भूमिका नहीं निभायी तो पत्रकारिता में अंतराष्ट्रीय रूप से डंका पीटने वाले संगठन बी0बी0सी0 की भूमिका भी हास्यास्पद रही। खेतिहर पत्रकारिता के चर्चित पत्रकार पी0 साईनाथ ने नंदीग्राम के कृषक संग्राम को दर्ज करना जरूरी नहीं समझा। मालूम नहीं साईनाथ ने नंदीग्राम के किसानों को किस तरह से देखा । नंदीग्राम संग्राम को भारतीय मीडिया कभी संप्रदायिक शक्तियों का उन्माद तो कभी तृण मूल कांग्रेस और माओवादियों का आतंक घोषित करता रहा। नंदीग्राम संग्राम को प्रभाष जोशी ने जरूर नंदीग्राम जाकर समझने की कोशिश की और कृषक संग्राम के सत्य को अपने ‘कागद-कारे’ में दर्ज किया। लेकिन प्रभाष जोशी जिस ‘जनसŸाा’ के संस्थापक संपादक रहे, उस ‘जनसŸाा’ ने नंदीग्राम के ‘जन’ की आवाज नहीं सुनी। ‘जनसŸाा’ का कोलकाता संस्करण संग्राम के विरुद्ध खबरें छापता रहा और प्रभाष जोशी सलाहकार संपादक होते हुए भी ‘जनसŸाा’ को जन के पक्ष में खड़ा रहने के लिए मजबूर नहीं कर सके। नंदीग्राम भारतीय पत्रकारिता के कृष्णपक्ष को उजागर करता है। मुझे संतोष है कि भारतीय पत्रकारिता अंगे्रजी और हिन्दी पत्रकारिता से निर्देशित नहीं होती है और नंदीग्राम की आवाज बंाग्ला अखबारों में सुर्खियों से आती रही। बंगाल का सबसे बड़ा अखबार आनंद बाजार अंततः नंदीग्राम संग्राम के विरुद्ध राज्यपोषित हिंसा का साथ देता रहा लेकिन दैनिक स्टेटममेन(बांग्ला) और वर्तमान ; (बांग्ला) जैसे अखबार जन के साथ डटे रहें। 
प्रश्न-जनआंदोलनों की खबरों के मामले में कारपोरेट के हस्तक्षेप को किस रूप में देखते है?
 पुष्पराज- जन आंदोलन की खबरों को रोकने के मामले में काॅरपोरेट समूह सीधे तौर पर कामयाब हो सकते है, मुझे ऐसा यकीन नहीं होता है।मैं समझता हूँ कि किसी भी अखबार या चैनल का मालिक जनांदोलन की खबरों को रोकने की ताकत नहीं रखता है, अगर उसके भीतर कार्यरत पत्रकारों में जन और जनांदोलनों की खबरों को कवर करने की इच्छाशक्ति हो। मैंने देखा है कि नर्मदा बचाओं आंदोलन जैसे चर्चित अहिंसक आंदोलन की खबर को इसलिए रोक दिया गया कि उस अंगे्रजी अखबार का समाचार संपादक नर्मदा बचाओं आंदोलन के बारे मे उलट राय रखता है। पेशेवर पत्रकार ज्यादातर आर्थिक उदारवाद और इंडिया सांइनिंग के पक्षधर है।  मालिक जन और जनांदोलन की खबरें कवरेज करने से रोकता है, ऐसा बहुत हद तक सही नहीं है। ऐसे पत्रकार जो पेशे से ऊपर पत्रकारिता को रखते है। वो काॅरपोरेट हस्तक्षेप से टकरा सकते हैं, लेकिन मुझे ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि आप एक चैनल के प्रमुख हैं और आप इस जनांदोलन को कवर करना चाहते है और आपको आपके मालिक ने ऐसा करने से रोक दिया। 
प्रश्न-बडे मीडिया घरानों की जनआंदोनल में भूमिका और लधुपत्रिकाओं की भूमिका में आप क्या फर्क देखते हैं, लधुपत्रिकाएं किस रूप में जनआंदोलनों को देखती हैं?
पुष्पराज-1992 में भारत में आर्थिक उदारवाद का दौर आया इस दौर में अखबार समूहों ने वेज बोर्ड की बजाय कंटैªक्ट की नौकरी को ज्यादा प्राथमिकता दी। इसी दौर में भारत में ‘कंटैªक्ट जर्नलिज्म’ का दौर शुरू हो गया। समाजसेवा के क्षेत्र में एन0जी0ओ0 कंटैªक्ट सोसल वर्क करते हुए वेतन भोगी सोसल वर्कर तैयार करते हैं, उसी तरह ‘कंटैªक्ट जर्नलिज्म’ ने पत्रकारिता की रीढ़ छीन ली। रीढ़हीन संपादक जो कभी तन कर खड़ा होना नहीं सीख पाये, उनके सदैव दंडवत स्वरूप पर क्या रोना? जंहा तक बडे़ मीडिया घरानों की जनांदोलन में भूमिका का सवाल है तो इमरजेंसी के समय इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समेन की भूमिका सŸाा के विरूद्ध जन के साथ की रही। एक्सप्रेस समूह के भीतर का यह ढ़ांचा प्रभाष जोशी के नेतृत्व वाले जनसŸाा में दिखता रहा । एक समय इंडियन एक्सप्रेस नर्मदा बचाओ आंदोलन के विरुद्ध प्रायोजित खबरंे छापता रहा लेकिन जनसŸाा की भूमिका जन और आंदोलन के साथ कायम रही। बडे़ घराने हर हाल में आंदोलन के विरोधी होते हैं लेकिन जनांदोलन के बढ़ते दबाव से वे खबरें रोक नहीं पाते। नंदीग्राम के संग्राम की खबर जब देश के बडे़ अखबारों में जगह नहीं ले पा रहीं थी तब दिल्ली से प्रकाशित एक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘संडे पोस्ट’ ने नंदीग्राम की आवाज को तवज्जो दिया था। जाहिर है कि बड़ी पूंजी के अखबार जब जनता की आवाज को दबाते हंै तो छोटी पूंजी के समाचार पत्र जन संघर्ष को प्राथमिकता देते हैं। ये छोटी पूंजी वाले समाचार पत्र तत्काल एक आंदोलन को तवज्जो देते हैं और कालांतर में इसे प्रतिबद्धता की तरह कायम नहीं रख पाते। लघु पत्रिकाओं की भूमिका हर हाल में जन और जनांदोलन के पक्ष में रहती है। लघु पत्रिकाएं एक प्रगतिशील बौद्धिक समाज से जुड़े होते हैं। ये व्यावसायिक कम व साहित्यिक ज्यादा होते हंै। इसलिए अपने पाठक वर्ग के मिजाज का ख्याल रखते हुए ये जन और जनांदोलन के प्रति हर हाल में समर्थन की भूमिका दिखाते हैं। इनकी समस्या यह है कि हर लघु पत्रिका के संपादक महोदय के पास लिखने वालों का एक सीमित लेखक समूह होता है। वे जिस लेखक से स्त्रीवाद पर आलेख लिखवाते हैं, उसी लेखक से सेज विरोधी कृषक जनांदोलन पर आलेख मांगते हैं। हिन्दी लघु पत्रिकाओं का विवेक संपादक की जेब में सिमटा होता है। हिन्दी के नामचीन लेखक जन और जनांदोलन को अखबारों की रिर्पोटों से ही ज्यादा जानते हैं। हिन्दी पट्टी में हो रहे किसी सुगबुगाहट या किसी आपदा को जमीन पर खड़ा होकर कितने लेखक दर्ज करते हंै। ऐसे में लघुपत्रिकाओं की चुनौती बढ़ जाती है कि आप कथा कहानी, आलोचना की लकीर से आगे जैतापुर, कंुडाकुलम, काकीनाडा के आंदोलन को भी दर्ज करिये। हिन्दी की लघु पत्रिकाओं में तीसरी दुनिया की लोकप्रियता कायम है। साहित्यिक पत्र-पत्रिका के संपादक जनांदोलनों पर आधारित कोई अंक नहीं निकालते और हर अंक में जनांदोलनों पर केन्द्रित आलेख-रिपोर्ताज प्रकाशित करना अपनी जिम्मेदारी नही समझते। इन संपादकों को ऐसा लगता है कि जनांदोलन पर केन्द्रित आलेखों का प्रकाशन साहित्यिक पत्रिकाओं का दायित्व नहीं । जनांदोलनों को प्रमुखता नहीं देने वाला साहित्य और पत्रकारिता लगातार निर्जीव होता जायेगा।                       
प्रश्न-अन्ना आंदोनल को क्या जनआंदोन की श्रेणी में रख कर देखा जा सकता है? आप इस आंदोनल में मीडिया की भूमिका को किस तरह देखते है?                 पुष्पराज-अण्णा हजारे ने भ्रष्टाचार विरोधी जो अभियान चलाया उसे जनांदोलन कहना, जनआंदोलन की परिभाषा का मजाक है। एन0जी0ओ0 समूह और नौकरशाहों की ताकत ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो तिलिस्म निर्मित किया गया उसे भारतीय मीडिया ने जनांदोलन कहा । मीडिया की भूमिका अण्णा और भ्रष्टाचार विरोधी कथित आंदोलन को कवरेज करने में काफी हास्यास्पद रही। आम आदमी के सामने मीडिया ने जो हास्यास्पद छवि अण्णा के बहाने बनायी है, अब देश के किसी भी हिस्से में पत्रकारों के लिए सम्मान के दो शब्द आम आदमी की जुबान में नहीं हैं।  
प्रश्न-आप जनआंदोलन और मीडिया के संदर्भ में अपने अनुभवों के आधार पर क्या सलाह देना चाहेंगे?                                                           
पुष्पराज-अगर आप तय करते है कि पत्रकारिता किसके लिए करनी है तो आप तयशुदा लक्ष्य की तरफ पांव रोंपते हैं। शायद अपने साथ भी ऐसा ही हुआ। जन और जनता के द्वारा जारी जन संघर्षों के बीच से गुजरते हुए अगर लिखंे, नही ंतो क्या करें? मुझे लगा मैं क्या लिखकर युद्ध का साक्षी हो रहा हूँ। दिल्ली से बाहर जो एक अलग भारत मैं देखता हूँ वह युद्धरत भारत है । नर्मदा में जन संघर्ष का 26 वर्ष पूरा हो गया है। विस्थापितों का पुनर्वास इतने वर्षो में नहीं हुआ। लेकिन पुनर्वास पैकेज में 500 करोड़ का घोटाला हो गया। न्यायिक आयोग पुनर्वास घोटाला की जांच कर रहा है। 26 वर्षो के इस अहिंसक संघर्ष को लिखने के लिए एक नहीं 26 पत्रकारों का दस्ता होना चाहिए। देश में कुछ पत्रकार हैं, जो जनांदोलन की खबरें लिखने के लिए युद्धरत किसानों, आदिवासियों के जीवन के दुखः को साझा करते है। पत्रकारों की पूरी फौज चाहिए। आदिवासियों की जिंदगी का सफाया करने वाला शासकीय अभियान कब खत्म होगा। हमारे देश के मूल निवासी आदिवासियों के 600 गांव छतीसगढ़ में उजाड़ दिये गये। हमारे लोग नहीं बचेंगें तो हमारी पत्रकारिता का क्या होगा? वह आदमी जो मुझे आवाज दे रहा है, उसकी आवाज हम लिख सकते हैं तो मालिको की पूंजी मुझे कब तक दबा कर रखेगी? हमने देश के सबसे अमीर ताकतवर अंबानी समूह के भ्रष्टाचार को उजागर करने का स्वप्न जीता है। अगर आप स्वप्नदर्शी नहीं हैं तो पत्रकारिता आपके लिए नहीं है। 

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