Monday, June 30, 2014

                                              पर्यावरण, मनुष्य और मानवाधिकर 
                                                            
युवा पत्रकार स्वतंत्र मिश्र की पुस्तक ‘जल जंगज और जमीन उलट-पुलट पर्यावरण’ जो पर्यावरण को मानवाधिकार का मुद्दा बना कर लिखे गए आलेखों का संकलन है। इस पुस्तक में कुल 43 आलेख जो विविधतापूर्ण हैं। इन सभी आलेखों में पर्यावरण  और हाशिए के समाज की चिन्ता है। लेखक पर्यावरण को जिस नाजुक और संवेदनशील ढंक से देखते है उसकी मिशाल हमें बहुत कम मिलती है। यह पुस्तक गांधीवादी कवि स्व. भवानीप्रसाद मिश्र कि अमूल्य कविता ‘सतपुड़ा के जंगल’ को समर्पित है, जो पर्यावरण संकट पर लिखी गई थी। पर्यावरण बचे गा तो हम बचेंगे, पर्यावरण बचाओं जीवन बचाओ। मनुष्य को पर्यावरण संकट से उबरने के लिए पर्यावरण को ही स्वीकर करना होगा।
आज विकास के नाम पर क्या हो रहा है किसी से छुपा नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों कि लूट, गरीब आदिवासीयों का विस्थापन, पर्यावरण की अनदेखी आदि हमें देखने सूनने को मिल रही है। किसान व मजदूर आये दिन आत्महत्या कर रहें हैं वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक आपदाएं जैसे ग्लोबल वार्मिंग, प्रदूषण, भूकंप, बाढ़, भूस्खलन, सूखा व अनियमित वर्षा से जनजीवन त्रस्त है। इस प्रकार की सारी आपदाएं  पर्यावरण  असंतुलन के कारण है। इन सभी असंतुलन को लेखक प्रकृति के अंधाधुन दोहन का परिणाम मानते है। विकास के नाम पर जंगल काटकर कंकरीट के जंगल खडे़ किए जा रहे है। जगह-जगह ऊंची इमारते बना दी गई है। इसका दुष्परिणाम आमजन को ही भुगतना पड़ता है। इस पुस्तक का पहला आलेख हाल में हुए उŸाराखण्ड की त्रासदी के लेकर लिखा गया है। जिसका शिर्षक ‘लोगों का गुस्सा बादल की तरह फटेगा’ है। इस आलेख में शिलशिलेवार तरीके से उŸाराखण्ड की त्रासदी की समस्या की जड़ में जाकर पंूजीवादी विकास के माॅडल से होने वाले नुकसान की बहुत बारीकी से लेखक ने चर्चा किया है। लेखक उत्तराखण्ड की इस त्रासदी को कार्पोरेट क्राईम की नजर से देखते है। 
‘उदारीकरण में उदारता किस के लिए’ नामक आलेख में वैश्वीक, आर्थिक उदारीकरण के तहत बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों किसानों की जमीन पर जबरन कब्जा कर बेचे जाने की संगीन अपराध और किसान आत्महत्या के पीछे की राजनीति की पोल खोलते है। इस संग्रह का एक और महत्वपूर्ण आलेख जो उŸाराखण्ड की त्रासदी से जुडा हुआ है। ‘डूबता टिहरी, तैरते सवाल’ आलेख में परियोजनाओं के चलते जंगल की बर्बादी और स्थानीय लोगों के विस्थापन के सवाल को उठाया है। यही नहीं इस विस्थापन से होने वाले सामाजिक सांस्कृतिक खतरे के तरफ इशारा भी किया है। ‘कहां जाएं किसान ?’ यह आलेख व्यवस्था के सामने एक बडा सवाल खड़ा करता है। वैसे तो यह आलेख नंदीग्राम व सिंगुर के जनआंदोलन के संदर्भ में है लेकिन देश में अधिकांश किसान इस प्रकार की समस्या से ग्रस्त है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों व औद्योगिक घरानों के सामने सरकार किसानों कि अनदेखी कर रही है इसका परिणाम भूखमरी और आत्महत्या आदि के रूप में देखने को मिल रहा है। ‘सरकारी उपेक्षा के शिकार रिक्शे’ नामक आलेख को पढ़ कर मुझे बनारस का एक संस्मरण याद आता है। पिछले साल प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह से मैंने पर्यावरण और परिवहन पर चर्चा किया तो काशीनाथ सिंह ने कहा कि ‘मेरा बस चले तो इन पेट्रोल की गाडियों में आग लगा दूं और शहर में सिर्फ रिक्सा चलने कि इजाजत दू।’ इस संग्रह में यह लेख इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि रिक्शेवाले और आम नागरीक दोनों के हित के साथ पर्यावरण बचाने का हित भी इसमे छिपा है। इस प्रकार अंतिम आदमी भी बचे गा रिक्सा भी बचे गा पर्यावरण भी बचे गा।
‘अस्तित्व के लिए लड़रहें हैं आदिवासी’ व ‘निशाने पर जनजातियां’ दोनों ही आलखों में झारखण्ड, छतिसगढ, ओडिसा जैसे आदिवासी बहुल प्रदेशों मंे सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संसाधनों कि लूट और सलवा जुडूम के नाम पर बेजुबान आदिवासियों की बर्बर हत्या की निन्दा करते है। कुल मिलाकर यह पुस्तक मनुष्य रूपी विध्वसंकारी जीव को प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने की हिदायत देती है। विकास के नाम पर प्रकृति को क्षत-विक्षत किए जाने से उपजे दुष्परिणाम के तरफ इशारा करते हैं। साथ ही सरकार की नाकामी को भी उजागर किया है। समय रहते मनुष्य पर्यावरण संकट को लेकर अगर संवेदनशील नहीं हुआ तो यह हमारे अगामी जीवन और भविष्य के लिए खतरे का सबसे बडा संकेत है। यह पुस्तक हमें यह बताती है कि पर्यायावण का विकल्प पर्यावरण ही है।
पुस्तकः   जल, जंगल और जमीन उलट-पुलट पर्यावरण
लेखकः   स्वतंत्र मिश्र
प्रकाशकः स्वराज प्रकाशन
मूल्यः    295 रूपये

नोट- यह समीक्षा प्रभात खबर में प्रकाशित है.
(    सुभाष गौतम)
नोट- यह समीक्षा प्रभात खबर में प्रकाशित हैं.

                                                             कविता के विकास का संकेत

‘राजेश जोशी स्वपन और प्रतिरोध’ पुस्तक कवि राजेश जोशी की रचना और व्यक्तित्व पर लिखे गए आलेखों का संकलन है। जिसमें अनेक विद्वाने ने उनकी रचनाओं के संदर्भ में अपना मत प्रकट किया है। इन आलेखों में कवि रोजेश जोशी की कविताओं की व्याख्या विविध रूप में की गयी हैं। जिसका संपादन और चयन नीरज ने किया है। नीरज कवित के मर्म को समझने वाले आकादमिक व्यक्तियों में से एक हैं, जो कविता को सराहते है और उसपर गहन चिंतन मनन करते है। युवाओं में कविता के प्रति इतनी रूची बहुत कम देखने को मिलती है। इस पुस्तक के दो खंड हैं,  इसमें लगभग चालीस विद्वानों के आलेख हैं जो राजेश जोशी और उनकी कविताओं को केंद्र में रख कर लिखे गए हैं।
नीरज पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं-‘‘विकासमानता की इतनी बड़ी ताकत के कारण ही संभवतः राजेश जोशी ने सबसे अधिक स्मरणीय कविताएं लिखी हैं। ये स्मरणीय कविताएं मात्र ‘मंच लुटू’ नहीं हैं। इनमें सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति कई स्तरों पर हुई है।’’ इस पुस्तक को पढ़ने के पश्चात जो महत्वपूर्ण बात सामने आती है वह यह है कि राजेश जोशी अपनी कविताओं में देश, काल परिस्थतियों को चिंतन के  केंन्द्र में रखकर अपनी कविताएं रचते-गढते है। जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जैसी गंभीर समस्याओं पर चोट करतीं हंै।
इस पुस्तक का पहला आलेख ‘‘आंतरिक-राजनीति और राजनीतिक-आत्म का सृजनशील संदर्भ’’  हिन्दी के महत्वपूर्ण आलोचक नित्यानंद तिवारी का है। इस आलेख में वे रघुवीर समकक्ष राजेश जोशी को देखते है। साथ ही उनकी कविताओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने कि कोशिश करते है। इस प्रकार वे बाबा नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय जैसे महत्वपूर्ण कवियों की कतार में राजेश जोशी को पाते हैं। वही उनकी कविताओं में लोक कथाओं, लोकगीतों के इस्तेमाल को उनकी विशेषता कहा है। आगे इस लेख में राजेश जोशी की कविता ‘माँ कहती है’, ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘हमारे समय के बच्चे’ और ‘रैली में स्त्रियाँ’ कविता की गहनता से विवेचना करते हुए लिखा है कि ‘‘राजेश की कविताओं का एक दुर्लभ गुण है कि उसमें समझ के कई स्तर हंै।’’ साथ ही उनकी कविताओं कि तुलना भक्तिकाल की कविताओं से करते हैं।
दूसरा आलेख ए. अरविंदाक्षन का जिसका शिर्षक ‘‘बहुलार्थी यर्थाथ के पुनर्वास की कविता’’ है। इसमें आलेख में राजेश जोशी द्वारा सृजित कविता संसार में लोक से लेकर उत्तर आधुनिक समाज जैसे विषयों की चर्चा कि गई है। कविता ‘‘चांद की वर्तनी’’ पर बात करते हुए अरविंदाक्षन लिखते हैं कि ‘‘कवि कर्म पर जोर देने वाली... कविता अपने भीतर उसी लोक को समेट रही है। आंसू, दुख और चुप्पी के लिए कवि को शब्द ढँूढना पड़ रहा है। यहाँ शब्दों के अन्वेषण का तात्पर्य कविता में अनुभवों को अनुभूति में परिवर्तित करना और उसको सार्थक ढंग से अभिव्यक्त करना भी है। यही कविता की खोज है और जीवन की भी।’’ इस प्रकार इस आलेख में इनहोने बहुत ही सूक्षम चिजों का विश्लेषण किया है।
तीसरा आलेख नंदकिशोर नवल का है, जो संस्मरण की शक्ल में है। इस आलेख में कवि राजेश जोशी की चर्चा कम करते हैं पर भारत भारद्वाज और नंदकिशोर नवल ने अपनी चर्चा अधिक की है। इसी क्रम में चैथा आलेख विश्वनाथ त्रिपाठी का है। जो संस्मरणात्मक होते हुए भी महत्वपूर्ण है। राजेश जोशी की कविता में बिम्ब, प्रतीक के माध्यम से बात कहने की कला की प्रशांसा किया है, साथ हिन्दी कविता और ऊर्दू कविता की बारीकियों को भी बताते हंै।
इस पुस्तक के दूसरे खंड में कवित्रि अनामिका और महान कवि केदारनाथ सिंह के आलेख भी हैं, जो बेहद महत्वपूर्ण हंै। साथ ही इस संग्रह में अजय तिवारी के दो आलेख पहला आलेख ‘तर्कहीनता से लड़ता हुआ स्वप्न’ जिसमें राजेश जोशी की बहुत सी कविताओं की गहन व्याख्या की गयी है। उनकी रचना की चर्चा करते हुए वे  लिखते हैं कि ‘‘प्रयोग की धुन में ऐसी बहुत-सी चीजें हर दौर में राजेश के यहाँ आती हैं और समय के साथ तिरोहित हो जाती हैं। साथ ही युवा कवियों के लिए उनकी कविता को संघर्ष की दिशा बताते हंै।’’ यह आलेख बहुत ही संतुलित और बौद्धिकता से भरा हुआ है, इनका दूसरा आलेख ‘रूचि की कैद से परे’ में राजेश जोशी की पुस्तक ‘एक कवि की नोटबुक’ की चर्चा की है। कुल मिलाकर यह पुस्तक राजेश जोशी और उनकी कविता को समझने के लिए एक महत्पूर्ण पुस्तक है, जिसके लिए नीरज जी बधाई के पात्र हंै।
(सुभाष कुमार गौतम) 

पुस्तकः राजेश जोशी स्वप्न और प्रतिरोध
संपादकः नीरज
मूल्यः 795
पृष्ठः 356
प्रकाशकः स्वराज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली.
नोट- यह पुस्तक समीक्षा शुक्रवार के जनवरी अंक में प्रकाशित हैं.