Sunday, March 16, 2014

व्यक्तिगत क्रान्ति के बिना कोई भी सामाजिक क्रान्ति अधूरी 
उत्सव का अर्थ होता है उत्कर्ष, एक व्यक्ति का नहीं इस पूरे समाज का। मैं कविता की छात्र हूं और इसलिए मुझे अपना यह पूरा जीवन एक अद्भुत प्रतीक व्यवस्था की तरह दिखता है। प्रकाश भी प्रतीक है और लक्ष्मी भी प्रतीक है। बिहार में दिवाली के एक दिन पहले स्त्रीयां सवेरे जल्दी उठ जाती है और पूरे घर में सूप फटफटाती घूमती है और ये कहती है कि ‘लक्ष्मी पैइसे दारिद्र भाग’े। हमारा समाज ऐसा समाज है जहां दारिद्र सभी घरों से भाग नहीं पाया है इसलिए नहीं कि लोग पुरूषार्थ नहीं करते बल्कि इसलिए क्योंकि हमारा समाज भेदभाव की संरचना से जकड़ा हुआ एक ऐसा समाज है जहां सबको अपनी संभावनाओं के विकास का अवसर नहीं मिलता। बिहार या ज्यादातर प्रदेशों के कस्बों, गांवों और महानगरों में विस्थापित, बेरोजगार, ऐसी कई अकेली स्त्रीयां और वृ़द्ध हैं जिनको जीवन में उनके भीतर जो संभावनाएं थी उनके विकास का अवसर समाज ने दिया नहीं, उनके जीवन का दारिद्र्र भागा नहीं लेकिन उन्हांेने संघर्ष छोड़ा नहीं, लक्ष्मी की अराधना ठीक है। भारतीय प्रतीक व्यवस्था में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरूषार्थो में एक अर्थ भी है, लेकिन अर्थ कैसा, अर्थ जो दूसरे का हक छीन के पाया जाता है वैसा अर्थ नहीं, जो कमाया जाए अपने पुरूषार्थ से वैसा अर्थ, उस कमाने के लिए अवसर होने चाहिए। समाज कभी भी सभी युवकों को अवसर नहीं देता न साधनांे की बराबरी है न अवसरों की बराबरी है ऐसे में लक्ष्मी किसी किसी के घर में अतिथि होती है। जहां होती है वहां प्राचुर्य कैसे धन का होता है कालेधन का भी हो सकता है। चूंकि लक्ष्मी की सवारी उल्लू है इसलिए उसको विवेक नहीं होता, वो कहीं भी बैठ जाता है और यहां तो हर साख पर उल्लू बैठा है अंजामें गुलिस्ता क्या होगा। प्रकाश और अंधेरा सभी धर्मों में मनोवैज्ञानिक संघर्ष का प्रतीक है। अभी हमारा यह संघर्ष बहुत लम्बा चलने वाला है क्योंकि वर्गो, वर्णो, क्षेत्रियताओं, नस्लों और धर्मो के बीच दोस्ताना अभी बना नहीं है, हम एक दोस्तना समाज चाहते है और असली दीवाली तब होगी जब प्रकाश सबके घर जाएगा और लक्ष्मी, पुरूषार्थ से अर्जीत की हुई लक्ष्मी किसकी से छीन के अर्जित की हुई लक्ष्मी नहीं सबके घर में होगी।
दिया तो एक बहुत बड़ा प्रतीक है। भारतीय चिंतन धारा है सत,रज,तम तीनों गुणों का प्रतीक है। सृष्टि चलाने के लिए कहते हैं कि तीनों चाहिए, तामसिक गुण जो तेल में व्यक्त होता है, राजसी गुण भी चाहिए जो कि बाती में व्यक्त होता है, प्रज्जवलित रहता है हमेशा और उसके बाद सात्विक गुण भी चाहिए जो प्रकाश में व्यक्त होता है। तीनों का समीकरण व सामायोजन ही जीवन है एक तो इसलिए दिए का स्नेहिल प्रकाश माहादेवी की कविताओं से लेकर, वेदों से लेकर , यहां तक कि हमारे आस-पास सबकी कविताओं में दिया है, अज्ञेय ने भी लिखा है ‘यह दीप अकेला स्नेह भरा इसको भी पंक्ती को देदो। अज्ञेय को लोग कहते है कि वे व्यक्तिवादी है लेकिन इस कविता से स्पष्ट हो जाता है कि वो व्यक्ति भी सामाजिकता को निवेदित है। मेरे मन में दीप को लेकर दो उत्कट क्षण याद आते हैं। दो ऐसी दीपावलीयां जबकि दिया एक दम दूसरी तरह से जला था। पहली बार दीपावली के दिन मैं एक वर्किंग वूमेन हाॅस्टल में गयी थी। वहां मैंने अकेली स्त्रीयों से कुछ गपसप की, जिनके पास जाने को कोई घर नहीं था, करने को कोई काम नहीं था। वो अकेले रहके अपने अकेले कमरे में मोमबती जलाए हुए हैं एक लड़की किसी साड़ी में हेम कर रही थी। बाहर अंधेरा बरस रहा था और वहां पर बाहर जो चाहरदिवारी दी वहां एक नेपाली दरबान था जो अपने लाईटर से दो मोमबत्ती जला गया था। मैं दिवाली में उन दो मोमबत्ती का प्रकाश नहीं भूलती। वहां गेट पर एक चाय का ढाबा चलता था, वहां एक छोटू था, वो अनाथ बच्चा होगा उसके पास भी जाने के लिए कोई जगह नहीं होगी तो वो वहां बैठे चुपचाप ऐसे देख रहा था कि दूसरे लोग कैसे पटाखे छोड़ रहे हैं। मै तो वह दृश्य किसी भी दीवाली में भूल ही नहीं पाती। मुझे लगता है कि यह हमारा ऐसा समाज हुआ चला जा रहा है जो अभाव से, या किसी भी तरह जिसका जीवन पटरी से उतर गया है उसके प्रति संवेदनाओ का दीप हम नहीं जलाते, सबसे बड़ा दीप संवेदनाओं का दीप होता है और हम उनके घर जाएं उनसे मिले जिनके जीवन में किसी तरह अंधेरा फैला दिया है हम लोगों ने, सामाजिक विदु्रपताओ ने, विसंगतियों ने, या प्राकृतिक आपदाओं ने, तो ही हमारे सही दीवाली मन सकती थी।
दूसरी दीवाली जो मुझे याद है बिस्फोट हुआ था सरोजनी नगर में मैं बच्चों के साथ गयी हुई थी वहां पर मैंने एक चायवाले को एकदम सामने से उड़ते हुए देखा, वो दिवाली मुझे याद दिला गई, मां बचपन में एक दिया निकालती थी जो घूरे पर रखा जाता था जम का दिया उसको कहते थे, वो दिवाली के एक दिन पहले निकाला जाता था घूरे पर रखा जाता था दक्षिण की ओर मुंह करके, उसको देख कर औरते गाती थी, सारी बीमारी सारा कर्जा मृत्यु का कोप, असामयिक मृत्यु दूर हो जाए घर से, यह सब गाकर लौट आती थी। लेकिन अब हम ऐसे युग में रहते हैं जहां सबके पाॅकेट में क्रेडिट कार्ड है, तो ऋण अब तो शर्म की कोई बात ही नहीं रह गयी है, तो ऋण का शोधन क्या, और मृत्यु तो ऐसी चीज़ है कि आप सिर पर कफन बांध कर निकलते है। इतनी असुरक्षाएं है हमारे समाज में कि जैसे कोई घर से बाहर निकलता है मां भगवान-भगवान करके देव मनाने लगती हैं कि वह शाम को सही ढ़ग से वापस आ जाए, क्योंकि असुरक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं। इसलिए भक्ति भाव भी बढ़ गया है, क्योंकि हारे को हरिनाम, इसतरह से हम एक ऐसे समाज में रहें है उसमें प्रकाश चित्तकबरा हो गया है, हम सब चित्तकबरे हो गये हैं, और हम चितकबरें धब्बेदार वजूद को अगर धोके सबके लिए प्रकाश, अवसर व साधन सुलभ नही करेंगे तो ये हमारी दीवाली बडी अटपटी होगी। आज भी मैं देखती हूं कि बड़ी-बड़ी गाडियों में बडे़-बडे़ व्यावसायिक तोहफे लेकर गाडियां इधर-उधर दौड़ती रहती है और बगल से कोई बच्चा उन गाडियों का शीशा पोंछता हुआ गुजर जाता है उनसे बचता हुआ, तो ये ऐसा समाज है जो अकेले आदमी को और भी अकेला करता है, परेशान आदमी को दिवाली के दिन और भी अकेला लगता है। क्योंकि इस त्यौहार का मूल रूप है कि मिलकर बैठकर सांझेदारी से सारी बाते की जाए, हम उससे अलग हो गये है। मुझे ये सब चीजे दिवाली में विडम्बनाओं की कड़ी लगती है।
दिवाली सिर्फ लक्ष्मी से होकर नहीं जाता, माक्र्स ने ठीक ही कहा है कि आर्थिक संसाधन तो सबके पास होने ही चाहिए, क्योंकि, आर्थिकता व भौतिकता भी जीवन का हिस्सा ही है, हम शरीर भी है मन भी है आत्मा भी है। लेकिन सिर्फ लक्ष्मी से छीनी हुई लक्ष्मी से, गलत संसाधनों से कमाई गई लक्ष्मी से, किसी के जीवन में उजाला नहीं होता। जो गलत ढ़ग से पैसे कमाता है उसकी आत्मा में अंधेरा हो जाता है, जो अवसरों की कमी के कारण पैसे नहीं कमा पाता उसके जीवन में अंधेरा हो जाता है। धर्म के साथ अर्थ, काम, धर्म का मतलब यहां नैतिकता से है, नैतिकता से कमाया हुआ धन सबको बराबरी से दिया गया धन, बाटा गया अवसर और साधन यही असली दिवाली के सूत्र है।
लक्ष्मी का अर्थ होता है मंगलकारी स्त्री चेतना। हर लड़की जिसके जन्म पर लोग मंुह लटका लेते है वो एक लक्ष्मी ही है आपके जीवन में। आप जब आंख बंदकर सोचेंगे तो आपको याद आएगा कि आपके जीवन के सुखद क्षण कौन से हैं तो सुखद क्षणों की कल्पना करते वक्त आपके दिमाग में कोई न कोई स्त्री चेहरा याद आएगा। दादी, नानी, मामी, प्रेमिका, बहन, बेटी, या मां। लेकिन औरते जब आंख बंद करके सोचेंगी कि उनके जीवन का सबसे सुखद क्षण कब आया तो जरूरी नहीं है कि पुरूषों से संबन्धित सारे क्षण उन्हें सुखद ही लगते हो बहुत भयानक क्षण भी उनकी आंखो में आएंगे वैसे औरते लक्ष्मी हैं उनका अनादर करके जिस समाज में देवियों को लोग पूजते है और हाड-मांस की लडकियों का अनादर करते हैं उस समाज में फिर से हमें नये तरीके से चीजों की व्याख्या करनी चाहिए।
मुझे यकीन है मैं आशावादी तो हूं। मुझे युवाओं में बहुत आस्था है और उनकी मूलचेतना में भी। स्त्रीयों में, रिटायर्ड लोगों में, स्कूल टीचरों में, छोटे पद से रिटायर्ड लोगो उनमें मुझे बहुत ज्यादा आदर्श की चेतना दिखती है। मुझे साहित्य में बहुत आस्था है, साहित्य में यदि मंचन किया जाए, टीवी में साहित्यिक कृतियों पर आधारित कार्यक्रम दिखाये जाएं, नुक्क्ड़ नाटक साहित्यिक कृतियों पर खेले जाएं। कविता हर जगह विज्ञापन के पोस्टर के सामांनांतर लगा दिए जाएं और जीवन में जो भीतर के अंधेरे हैं, भीतर प्रकाश व अंधेरे में एक मनोवैज्ञानिक संघर्ष हमेशा चलता रहता है, उसमें हम प्रकाश की ओर जाएंगे। आज के समय में साहित्य ही धर्म का स्थानापन्न है, जो साहित्यिक मूल्य है वही आध्यात्मिक मूल्य है। साहित्य पढ़ा हुआ आदमी के बारे में मैं दावे के साथ यह कह सकती हूं कि एक सीमा से ज्यादा नीचे नहीं गिर सकता, क्योंकि उसके भीतर हमेशा एक दिया जलता रहता है, उसके आदर्शो का, शुद्धियों का, अच्छे चरित्र जिनके बारे में वह पढ़ता है, वे उसकी कल्पना के स्थायी नागरिक बन जाते हैं तो उनके काम पर, आंच पर वह जीवन को ढ़ालता है। गेटे कहता था कि दुनिया का कोइ खराब काम नहीं है जो मैं नहीं कर पाऊं लेकिन फिर भी वह नहीं कर पाता है। आदमी कल्पना कर सकता है कि मैं कर सकता हूं लेकिन जब करने पर आए तो साहित्य रोकेगा। आज के जीवन में साहित्य का महत्व कम हो गया है इसलिए भी मूलचेतना तिरोहित हो रही है। जितने भी सीने स्टार हैं, उनको मैं कहती हूं कि वे अपने ग्लैमर का सदुपयोग करें, जैसे विद्याबालन ने शौचालयों का प्रचार करना शुरू कर दिया है। चाहे शबाना आजमी हो, अमिताभ बच्चन हो या तब्बू हैं साहित्यिक मंचन द्वारा दुनिया में अलख जगाना चाहें, दुनिया में हर जगह जो जहां है अगर वह चाहे तो, भीतर की मूल चेतना जगाने वाला, भीतर का दीप जलाने वाला साहित्य हर जगह प्रसारित करें तो मुझे लगता है कि बहुत हद तक हमारा मनोवैज्ञानिक अंधेरा दूर होगा। अपनी व्यक्तिगत क्रान्ति के बिना कोई भी सामाजिक क्रान्ति अधूरी है। यदि मैं अपने भीतर ही क्रान्ति नहीं करती तो बाहर की क्रान्ति की मैं वाहक नहीं हो सकती।
अनामिका जी से सुभाष गौतम की बातचित

उत्सव का अर्थ होता है उत्कर्ष, एक व्यक्ति का नहीं इस पूरे समाज का। मैं कविता की छात्र हूं और इसलिए मुझे अपना यह पूरा जीवन एक अद्भुत प्रतीक व्यवस्था की तरह दिखता है। प्रकाश भी प्रतीक है और लक्ष्मी भी प्रतीक है। बिहार में दिवाली के एक दिन पहले स्त्रीयां सवेरे जल्दी उठ जाती है और पूरे घर में सूप फटफटाती घूमती है और ये कहती है कि ‘लक्ष्मी पैइसे दारिद्र भाग’े। हमारा समाज ऐसा समाज है जहां दारिद्र सभी घरों से भाग नहीं पाया है इसलिए नहीं कि लोग पुरूषार्थ नहीं करते बल्कि इसलिए क्योंकि हमारा समाज भेदभाव की संरचना से जकड़ा हुआ एक ऐसा समाज है जहां सबको अपनी संभावनाओं के विकास का अवसर नहीं मिलता। बिहार या ज्यादातर प्रदेशों के कस्बों, गांवों और महानगरों में विस्थापित, बेरोजगार, ऐसी कई अकेली स्त्रीयां और वृ़द्ध हैं जिनको जीवन में उनके भीतर जो संभावनाएं थी उनके विकास का अवसर समाज ने दिया नहीं, उनके जीवन का दारिद्र्र भागा नहीं लेकिन उन्हांेने संघर्ष छोड़ा नहीं, लक्ष्मी की अराधना ठीक है। भारतीय प्रतीक व्यवस्था में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरूषार्थो में एक अर्थ भी है, लेकिन अर्थ कैसा, अर्थ जो दूसरे का हक छीन के पाया जाता है वैसा अर्थ नहीं, जो कमाया जाए अपने पुरूषार्थ से वैसा अर्थ, उस कमाने के लिए अवसर होने चाहिए। समाज कभी भी सभी युवकों को अवसर नहीं देता न साधनांे की बराबरी है न अवसरों की बराबरी है ऐसे में लक्ष्मी किसी किसी के घर में अतिथि होती है। जहां होती है वहां प्राचुर्य कैसे धन का होता है कालेधन का भी हो सकता है। चूंकि लक्ष्मी की सवारी उल्लू है इसलिए उसको विवेक नहीं होता, वो कहीं भी बैठ जाता है और यहां तो हर साख पर उल्लू बैठा है अंजामें गुलिस्ता क्या होगा। प्रकाश और अंधेरा सभी धर्मों में मनोवैज्ञानिक संघर्ष का प्रतीक है। अभी हमारा यह संघर्ष बहुत लम्बा चलने वाला है क्योंकि वर्गो, वर्णो, क्षेत्रियताओं, नस्लों और धर्मो के बीच दोस्ताना अभी बना नहीं है, हम एक दोस्तना समाज चाहते है और असली दीवाली तब होगी जब प्रकाश सबके घर जाएगा और लक्ष्मी, पुरूषार्थ से अर्जीत की हुई लक्ष्मी किसकी से छीन के अर्जित की हुई लक्ष्मी नहीं सबके घर में होगी।
दिया तो एक बहुत बड़ा प्रतीक है। भारतीय चिंतन धारा है सत,रज,तम तीनों गुणों का प्रतीक है। सृष्टि चलाने के लिए कहते हैं कि तीनों चाहिए, तामसिक गुण जो तेल में व्यक्त होता है, राजसी गुण भी चाहिए जो कि बाती में व्यक्त होता है, प्रज्जवलित रहता है हमेशा और उसके बाद सात्विक गुण भी चाहिए जो प्रकाश में व्यक्त होता है। तीनों का समीकरण व सामायोजन ही जीवन है एक तो इसलिए दिए का स्नेहिल प्रकाश माहादेवी की कविताओं से लेकर, वेदों से लेकर , यहां तक कि हमारे आस-पास सबकी कविताओं में दिया है, अज्ञेय ने भी लिखा है ‘यह दीप अकेला स्नेह भरा इसको भी पंक्ती को देदो। अज्ञेय को लोग कहते है कि वे व्यक्तिवादी है लेकिन इस कविता से स्पष्ट हो जाता है कि वो व्यक्ति भी सामाजिकता को निवेदित है। मेरे मन में दीप को लेकर दो उत्कट क्षण याद आते हैं। दो ऐसी दीपावलीयां जबकि दिया एक दम दूसरी तरह से जला था। पहली बार दीपावली के दिन मैं एक वर्किंग वूमेन हाॅस्टल में गयी थी। वहां मैंने अकेली स्त्रीयों से कुछ गपसप की, जिनके पास जाने को कोई घर नहीं था, करने को कोई काम नहीं था। वो अकेले रहके अपने अकेले कमरे में मोमबती जलाए हुए हैं एक लड़की किसी साड़ी में हेम कर रही थी। बाहर अंधेरा बरस रहा था और वहां पर बाहर जो चाहरदिवारी दी वहां एक नेपाली दरबान था जो अपने लाईटर से दो मोमबत्ती जला गया था। मैं दिवाली में उन दो मोमबत्ती का प्रकाश नहीं भूलती। वहां गेट पर एक चाय का ढाबा चलता था, वहां एक छोटू था, वो अनाथ बच्चा होगा उसके पास भी जाने के लिए कोई जगह नहीं होगी तो वो वहां बैठे चुपचाप ऐसे देख रहा था कि दूसरे लोग कैसे पटाखे छोड़ रहे हैं। मै तो वह दृश्य किसी भी दीवाली में भूल ही नहीं पाती। मुझे लगता है कि यह हमारा ऐसा समाज हुआ चला जा रहा है जो अभाव से, या किसी भी तरह जिसका जीवन पटरी से उतर गया है उसके प्रति संवेदनाओ का दीप हम नहीं जलाते, सबसे बड़ा दीप संवेदनाओं का दीप होता है और हम उनके घर जाएं उनसे मिले जिनके जीवन में किसी तरह अंधेरा फैला दिया है हम लोगों ने, सामाजिक विदु्रपताओ ने, विसंगतियों ने, या प्राकृतिक आपदाओं ने, तो ही हमारे सही दीवाली मन सकती थी।
दूसरी दीवाली जो मुझे याद है बिस्फोट हुआ था सरोजनी नगर में मैं बच्चों के साथ गयी हुई थी वहां पर मैंने एक चायवाले को एकदम सामने से उड़ते हुए देखा, वो दिवाली मुझे याद दिला गई, मां बचपन में एक दिया निकालती थी जो घूरे पर रखा जाता था जम का दिया उसको कहते थे, वो दिवाली के एक दिन पहले निकाला जाता था घूरे पर रखा जाता था दक्षिण की ओर मुंह करके, उसको देख कर औरते गाती थी, सारी बीमारी सारा कर्जा मृत्यु का कोप, असामयिक मृत्यु दूर हो जाए घर से, यह सब गाकर लौट आती थी। लेकिन अब हम ऐसे युग में रहते हैं जहां सबके पाॅकेट में क्रेडिट कार्ड है, तो ऋण अब तो शर्म की कोई बात ही नहीं रह गयी है, तो ऋण का शोधन क्या, और मृत्यु तो ऐसी चीज़ है कि आप सिर पर कफन बांध कर निकलते है। इतनी असुरक्षाएं है हमारे समाज में कि जैसे कोई घर से बाहर निकलता है मां भगवान-भगवान करके देव मनाने लगती हैं कि वह शाम को सही ढ़ग से वापस आ जाए, क्योंकि असुरक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं। इसलिए भक्ति भाव भी बढ़ गया है, क्योंकि हारे को हरिनाम, इसतरह से हम एक ऐसे समाज में रहें है उसमें प्रकाश चित्तकबरा हो गया है, हम सब चित्तकबरे हो गये हैं, और हम चितकबरें धब्बेदार वजूद को अगर धोके सबके लिए प्रकाश, अवसर व साधन सुलभ नही करेंगे तो ये हमारी दीवाली बडी अटपटी होगी। आज भी मैं देखती हूं कि बड़ी-बड़ी गाडियों में बडे़-बडे़ व्यावसायिक तोहफे लेकर गाडियां इधर-उधर दौड़ती रहती है और बगल से कोई बच्चा उन गाडियों का शीशा पोंछता हुआ गुजर जाता है उनसे बचता हुआ, तो ये ऐसा समाज है जो अकेले आदमी को और भी अकेला करता है, परेशान आदमी को दिवाली के दिन और भी अकेला लगता है। क्योंकि इस त्यौहार का मूल रूप है कि मिलकर बैठकर सांझेदारी से सारी बाते की जाए, हम उससे अलग हो गये है। मुझे ये सब चीजे दिवाली में विडम्बनाओं की कड़ी लगती है।
दिवाली सिर्फ लक्ष्मी से होकर नहीं जाता, माक्र्स ने ठीक ही कहा है कि आर्थिक संसाधन तो सबके पास होने ही चाहिए, क्योंकि, आर्थिकता व भौतिकता भी जीवन का हिस्सा ही है, हम शरीर भी है मन भी है आत्मा भी है। लेकिन सिर्फ लक्ष्मी से छीनी हुई लक्ष्मी से, गलत संसाधनों से कमाई गई लक्ष्मी से, किसी के जीवन में उजाला नहीं होता। जो गलत ढ़ग से पैसे कमाता है उसकी आत्मा में अंधेरा हो जाता है, जो अवसरों की कमी के कारण पैसे नहीं कमा पाता उसके जीवन में अंधेरा हो जाता है। धर्म के साथ अर्थ, काम, धर्म का मतलब यहां नैतिकता से है, नैतिकता से कमाया हुआ धन सबको बराबरी से दिया गया धन, बाटा गया अवसर और साधन यही असली दिवाली के सूत्र है।
लक्ष्मी का अर्थ होता है मंगलकारी स्त्री चेतना। हर लड़की जिसके जन्म पर लोग मंुह लटका लेते है वो एक लक्ष्मी ही है आपके जीवन में। आप जब आंख बंदकर सोचेंगे तो आपको याद आएगा कि आपके जीवन के सुखद क्षण कौन से हैं तो सुखद क्षणों की कल्पना करते वक्त आपके दिमाग में कोई न कोई स्त्री चेहरा याद आएगा। दादी, नानी, मामी, प्रेमिका, बहन, बेटी, या मां। लेकिन औरते जब आंख बंद करके सोचेंगी कि उनके जीवन का सबसे सुखद क्षण कब आया तो जरूरी नहीं है कि पुरूषों से संबन्धित सारे क्षण उन्हें सुखद ही लगते हो बहुत भयानक क्षण भी उनकी आंखो में आएंगे वैसे औरते लक्ष्मी हैं उनका अनादर करके जिस समाज में देवियों को लोग पूजते है और हाड-मांस की लडकियों का अनादर करते हैं उस समाज में फिर से हमें नये तरीके से चीजों की व्याख्या करनी चाहिए।
मुझे यकीन है मैं आशावादी तो हूं। मुझे युवाओं में बहुत आस्था है और उनकी मूलचेतना में भी। स्त्रीयों में, रिटायर्ड लोगों में, स्कूल टीचरों में, छोटे पद से रिटायर्ड लोगो उनमें मुझे बहुत ज्यादा आदर्श की चेतना दिखती है। मुझे साहित्य में बहुत आस्था है, साहित्य में यदि मंचन किया जाए, टीवी में साहित्यिक कृतियों पर आधारित कार्यक्रम दिखाये जाएं, नुक्क्ड़ नाटक साहित्यिक कृतियों पर खेले जाएं। कविता हर जगह विज्ञापन के पोस्टर के सामांनांतर लगा दिए जाएं और जीवन में जो भीतर के अंधेरे हैं, भीतर प्रकाश व अंधेरे में एक मनोवैज्ञानिक संघर्ष हमेशा चलता रहता है, उसमें हम प्रकाश की ओर जाएंगे। आज के समय में साहित्य ही धर्म का स्थानापन्न है, जो साहित्यिक मूल्य है वही आध्यात्मिक मूल्य है। साहित्य पढ़ा हुआ आदमी के बारे में मैं दावे के साथ यह कह सकती हूं कि एक सीमा से ज्यादा नीचे नहीं गिर सकता, क्योंकि उसके भीतर हमेशा एक दिया जलता रहता है, उसके आदर्शो का, शुद्धियों का, अच्छे चरित्र जिनके बारे में वह पढ़ता है, वे उसकी कल्पना के स्थायी नागरिक बन जाते हैं तो उनके काम पर, आंच पर वह जीवन को ढ़ालता है। गेटे कहता था कि दुनिया का कोइ खराब काम नहीं है जो मैं नहीं कर पाऊं लेकिन फिर भी वह नहीं कर पाता है। आदमी कल्पना कर सकता है कि मैं कर सकता हूं लेकिन जब करने पर आए तो साहित्य रोकेगा। आज के जीवन में साहित्य का महत्व कम हो गया है इसलिए भी मूलचेतना तिरोहित हो रही है। जितने भी सीने स्टार हैं, उनको मैं कहती हूं कि वे अपने ग्लैमर का सदुपयोग करें, जैसे विद्याबालन ने शौचालयों का प्रचार करना शुरू कर दिया है। चाहे शबाना आजमी हो, अमिताभ बच्चन हो या तब्बू हैं साहित्यिक मंचन द्वारा दुनिया में अलख जगाना चाहें, दुनिया में हर जगह जो जहां है अगर वह चाहे तो, भीतर की मूल चेतना जगाने वाला, भीतर का दीप जलाने वाला साहित्य हर जगह प्रसारित करें तो मुझे लगता है कि बहुत हद तक हमारा मनोवैज्ञानिक अंधेरा दूर होगा। अपनी व्यक्तिगत क्रान्ति के बिना कोई भी सामाजिक क्रान्ति अधूरी है। यदि मैं अपने भीतर ही क्रान्ति नहीं करती तो बाहर की क्रान्ति की मैं वाहक नहीं हो सकती।
लेखिका अनामिका जी से दीवाली के अवशर पर बातचित पर आधारित यह आलेख प्रभात खबर में प्रकाशित हो चूका है.


वरिष्ठ चित्रकार व लेखक अशोक भौमिक से सुभाष कुमार गौतम की बात-चीत

पेंटिंग के क्षेत्र में आप का कैसे आना हुआ, इसकी प्रेरण कहा से मिली ?
आम तौर पर होता है कि घरांे में महिलाएं तीज त्योहारों में अल्पना आदि के चित्र बनातीं है ठीक वैसे हीं मेरी माँ भी बनाती थीं, पर अल्पना आदि के अलावा चित्र भी बहुत अच्छा बनाती थीं। चित्रकला की प्रारंभिक पे्ररण व शिक्षा मुझे अपनी माँ से मिली।
हाल में आप की पुस्तक ‘आकाल की कला और जैनुल आबेदिन’ प्रकाशित हुई हैं, जेैनुल आबेदिन एक अरसे से भुला दिए गए थे, उनका ख्याल कैसे आया?
मैं जब चित्र प्रसाद के उपर काम कर रहा था, उसी दौरान मुझे जैनुल आबेदिन के बारे में पता चला। 2005 में लाहौर गया था, उस समय जैनुल आबेदिन के चित्रों का एक एल्बम देखने का मौका मिला, जो अकाल के उपर था। ठीक उसी के बाद बंगला देश जाने का मौका मिला था। वहीं मुझे एक किताब मिली ‘जैनुल आबेदीन की जिज्ञासा’। यह जै़नुल अबेदीन की जीवनी नहीं थी बल्कि लेखक ने उनके चित्रों, समय और उनकी समझ पर एक गम्भीर व्याख्या प्रस्तुत की थी। इसके साथ-साथ मैंने उनके अधिक से अधिक चित्रों को देखा व समझना शुरू किया। जैनुल आबेदिन को महज इस बात के लिए भूला दिया गया क्यों कि वह भारतीय चित्रकार नहीं थें। 1947 की उनकी चित्र श्रृखला अकाल पर आधारित है जिसे उन्होंने कलकत्ते में बनाया था। उनके तमाम चित्रों में दुमका के आदिवासियों के जीवन का चित्रण हुआ है। 
प्रतिरोध की कला को सामने लाने का आपका क्या मकसद है?
आज चित्रकला में दो तरह के प्रतिरोध की जरूरत हैं। एक कला के माध्यम से सत्ता संस्कृति का प्रतिरोध, जिसमें सत्ता के अक्रामक चेहरे के खिलाफ जनाता को गोलबंद करने के लिए कला का प्रयोग किया जाए। दूसरा एक प्रतिरोध वह होता है जहां धनिक वर्ग व उच्च वर्ग द्वारा एक ख़ास किस्म की रूची को प्रोत्साहित करने वाली कला के खिलाफ छोटे शहरों कस्बों के कलाकारों की प्रतिबद्ध और जन पक्षधर कलारचना के जरिए किया गया प्रतिरोध। आज उदारिकरण के दौर में मेट्रो आर्ट का विकास हो रहा है, पर मैं मानता हूँ कला आम प्रेमियों के प्रोत्साहन से ही जिन्दा रह सकती है, केवल कला बाज़ार कला को जीवित नहीं रख सकती। आज कला के लिए संकट का दौर है जहाँ यकायए आम कलाप्रेमी कला दीर्घाओं से धकिया दिए गए है।   
आप ने कला पर हिंदी में स्वतंत्र पुस्तक लिखी, रचनात्मक लेखन पर पहला उपन्यास ‘मोनालिशा हँस रही थी’ तो वह भी कला की दुनिया पर इसकी प्रेरणा कहा से मिली?
जिस दुनिया को आप जानते हैं उन्हीं के संबंध में आप लिखते हैं। घोडा तो उन्ही कोड़ों के बारे में बात करेगा जो उसी पीठ पर निशान बनाते हैं। जिन परिस्थितियों को देखा था, समझा था, स्वतः मेरे मन में इच्छा थी कि मैं लोगों को उस के बारे में बताउ, सचेत करू। इस उपन्यास को लिखने में मुझे पन्द्रह साल लगे। मेरे मन मे पहले से उपन्यास लिखने की इच्छा थी। मैं विज्ञान का छात्र था मैने अंगे्रजी के उपन्यासकारों को खूब पढता था। आरंभिक दिनों में समरसेट माॅस व बांग्ला उपन्यासकार शंकर मेरे प्रिय थ। मोनालिस हँस रही थी की प्रेरण कला जगत से लम्बे जुड़े रहने से ही नहीं बल्कि आज़ादी के बाद तक विशेष काल खण्ड को करीब से देखने से भी मिली। 
आप पेंटिंग और साहित्य को किस रूप में देखते हैं?
दोनों अलग विधाएँ है। मैं नहीं समझता कि कलाओं के अंतर्संबंध जैसी कोई चीज होती है।  एक कला रूप दुसरे का विकल्प होता है न कि विस्तार। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता, कहानी और नाटकों के बीच अंतर्संबंाध खोजा जा सकता है पर उनकी चित्रकला उनके साहित्य कर्म के विकल्प के रूप में स्वतंत्र पाते है। 
साहित्य लेखन में आप की रूचि कैसे बनी हैं ?
हाईस्कूल तक पहुचते-पहुचते मैंने शरतचंद्र को पढ़ लिया था। इंटरमीडिएट में आते-आते रविन्द्रनाथ थाकुर की रचनाओं की आलोचना करनी शुरू कर दिया था, हालांकि यह सब बहुत बचकाना ही था। मैंने ओ हेनरी, मोपांसा, समरसेट माॅम, गोर्की की कहानियों को समग्र में पढ़ने की कोशिश की थी। एक ओर काॅफका, कामु और सात्र्र पढ़ा तो दूसरी तरफ चालू किस्म के उपन्यास भी खूब पढ़े। पर मैं मुक्तिबोध को अपना साहित्य गुरू मानता हूँ। 
अभी तक आप ने किन-किन भाषाओं में लिखा है ?
मैंने हिन्दी और अंगे्रजी में लिखा है। बांग्ला मुझे बहुत अच्छी नहीं आती, इस लिए उसमें कविताएं लिखीं हैं। मेरी रचनाओं में खास कर कहानियों का गुरूमुखी और उडि़या में अनुवाद हुआ है और चित्रप्रसाद पर लिखी रचनाओं का दक्षिण भारती भाषाओं में हुआ है।  
आप की ज्यादातर पेंटिंग में ब्लैक रंग का प्रयोग होता है ं?
यह कहूं कि यह जीवन के अंधकार व कलुष को व्यक्त करता है तो यह धोखा देना होगा। दर असल मैं सफेद कागज़ पर काले पेन से चित्र बनाता था। मेरे जीवन का बहुत लम्बा दौर 1974 से लकर 1990 तक केवल काले सफेद चित्रों का था। मरे चित्रों में आप को काला रंग स्वतंत्र नहीं मिले गा। आप की पेंटिंग में स्त्री छवि ज्यादा दिखतीं हैं जबकि पुरूष नहीं के बराबर हैं यह किय प्रकार का संकेत है?
यह स्वभाविक रूप से आया, सृष्टि किसने बनाया मुझे नहीं पता, शायद सर्व ज्ञानी पंडितों को पता हो! स्त्री को जिसने भी बनाया है यह बहुत ही भयानक किस्म का अन्याय है। पुरूष और स्त्री का निमार्ण इस प्रकृति में जिस तरह हुआ है, वह चरम वैमनस्य का प्रतिनिधित्व है। इस वैमनस्य के कारण मैं स्त्री को अलग ढंग से देखता हूँं। मुझे नहीं लगता की उनके नग्न चित्र बनाऊ। मुझे आश्चर्य होता है ईश्वर पर महिलाओं की आस्था को देख कर। महिलाएं उस ईश्वर पर कैसे भरोसा करतीं हैं जिन्होने उन्हें बनाया है, जिसे रचने में सरलतम संतुलन की भी तमीज़ तक नहीं है। मैं मानात हूँ, इस सृष्टि में एक दिन इस ईश्वर की मौत महिलाओं के हाथों ही होना है। अगर वे नहीं होतीं तो मह नहीं होते यह सृष्टि नहीं होती, बेचारा भगवान तो जंगलों में ख़ाक छानता मिलता।  
आप की पेंटिंग में चिडि़यां होती है, यह किस बात का प्रतिक है?
मेरे चित्रों में चिडि़याँ संकेत के रूप में आती है। एक चिडि़याँ के साथ स्त्री होती है जो एक अनंत संवाद में जुटी हुई हैं। मैं पुरूष होने के कारण उस भाषा को नहीं जानता, दो महिलाएं जो बात करती हैं मैं उस भाषा से अपरिचित हूँ। मेरे चित्रों में चिडि़याएँ शायद उस भाषा को समझती है।
आप की पेंटिंग में संगीत का समावेश भी दिखता है?
मुझे संगीत बहुत पसंद है इस लिए मैंने संगीतकार को केन्द्र में रख कर अनेक चित्र बनाए हैं।  मेरे चित्रों में संगीत अपने वर्ग से जुड़ कर आता है। ‘सडऋक के बच्चे’ श्रृंखला के चित्रों में ढफली, एकतारा, बांसुरी यहां तक की बिजली के खंभों पर पत्थर से जिस संगीत का जन्म होता है वह सड़क पर रहने वाले बच्चों का संगहत है। पेंटिंग के क्षेत्र में आने वाले नए कलाकारों के लिए संदेश?
मेरा यही संदेश है कि जो फैरी लोभ जैसे कोई आप को पदमश्री दिला दे रहा है, कोई आप की पेंटिंग लाखों में खरीद ले रहा है। इन सब जिजों से बचे। युवा चित्रकारों के लिए यह कठिन दौर है, उन्हें हर पल समाज के बदलते चेहरे को समझना होगा। सबसे जरूरी है अब कला दीर्घाओं में दर्शकों का इंतज़ार किए बगैर हमे अपने चित्रों को लेकर जनता तक पहुंचना होगा। 
 भविष्य की क्या योजना है?
पूरी गम्भीरता से कुछ मूर्ति बनाना चाहता हूँ। 2014 मार्च के महीने में मण्डी हाउस, ललित कला अकादमी की बाहरी दीवारें मुझे आकर्षित कर रही हैं। शायद बहुत जल्द आपसे वहीं मुलाकात हो।

यह साक्षात्कार नवभातर टाइम, १४ मार्च २०१४ में  प्रकाशित हैं.
सुभाष कुमार गौतम
मोबाई-9968553816