पत्रकारिता में हुए बदलाव को लेकर देशबंधु दैनिक के संपदाक व साहित्यकार ललित सुरजन से सुभाष गौतम की बातचीत।
प्र01- हिन्दी समाचार पत्रों पर उदारीकरण का प्रभाव एवं उसके पश्चात हिन्दी पत्रकारिता में आये बदलाव को आप कैसे देखते है ?
मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार के समय आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत हुई। यद्यपी इसकी हल्की शुरूआत राजीव गांधी की सरकार के समय में हो चुकी थी। आर्थिक उदारीकरण एक भ्रामक संज्ञा है। आर्थिक उदारीकरण एकाधिकारवाद की ओर लेजाता है। इसका मीडिया पर प्रभाव पडा, इसके समानान्तर संचार और मुद्रण का विकास भी हुआ। इन दोनों के परिणाम स्वरूप पत्रकारिता एक पूंजीसघन व्यापार बन गया। जब बडी मात्रा में पूंजी की जरूरत पड़ने लगी तो पत्रकारिता में स्वामित्व का चरित्र भी बदला जिसके चलते पत्रकारिता का स्वरूप पूरीतरह बदल गया।
प्र02- उदारीकरण के पश्चात अखबार के चरित्र में जो दुष्परिणाम हमें देखने को मिल रहें हैं उसके लिए दोषी कौन ?
पूंजीे पत्रकारिता को संचालित करने लगी है। पत्रकारिता में जिसने पुंजी लगाई है उसको मुनाफा चाहिए। मुनाफा कमाने की चिंता में कुछ भी त्याज्य या निषेध नहीं रहा। प्राथमिक तौर पर तो मीडिया स्वामि हैं जो इसके लिए उत्तरदायी हैं लेकिन पत्रकारों की जो बिरादरी है उसे भी किसी सीमा तक दोषी मानता हूँ। मुझे कहते हुए अफसोस हो रहा है कि मीडिया मालिकों के साथ-साथ किसी सीमा तक पत्रकारों ने भी मूल्यों से किनारा कर लिया। उन्हें जब खडे होकर विरोध करना चाहिए था तब वे पूंजी के दबाव अथवा पूंजी के आकर्षण के सामने झूक गए। इसके अपवाद हैं लेकिन वह संख्या सिमित है और प्रभाव भी सिमित हैं।
प्र03- उदारीकरण के दौर के बाद पाठक भी बढे़ अखबार भी बढे़ पर कंटेन्ट में बहुत कुछ नहीं है। इसका कारण क्या है ?
मेरी थोडी यहां पर असहमती है। हिंदी अथवा भाषाई पत्रकारिता में पाठक संख्या बढ़ने का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है वह सत्य से परे है। अखबार बढे हैं दस्तावेजों में ग्राहक संख्या और पाठक संख्या भी बढ़ी है लेकिन यह ग्राहक संख्या मार्केटिंग तकनीक से जुटाई गई है। इस लिए वास्तविकता से दूर है। मैं तो ग्राहक उसे मानता हूं जो अखबार की पूरी कीमत देकर खरीदने की इच्छा रखता है। यह पाठक संख्या भी सतही है जो पेज थ्री जैसी अवधारणओं से हासिल की गई है। ऐसे पाठक अखबार में सिर्फ अपना फोटों देखते हैं या अपने से संबंधित खबर देखते है। देश दुनिया की खबरों में उनकी दिलचस्पी नहीं है इस प्रवृत्ति के चलते कंटेन्ट या कहें कि विषयवस्तु की तरफ अब ध्यान नहीं दिया जाता। यह कटू सत्य है कि हम अब पाठकों को बहलाने मात्र का काम कर रहे है। सूचनाएं देना उसकी व्याख्या करना उसके माध्यम से लोक शिक्षण करना इन तीन बुनियादी उद्देश्यों को छोड अब पत्रकारिता मनोरंजन का माध्यम बन कर रह गई है।
प्र05- देशबन्धु अखबार विकास की खबरों को कितना महत्व देता है। हिन्दी के अन्य समाचार पत्रों में इसकी स्थिति क्या है ?
देशबंधु आज भी अपनी पुरानी रीति-नीति पर चल रहा है। संसाधनों के अभाव में हम उतना नहीं कर पा रहे है जितना चाहते है फिर भी आज हिन्दी में संभवतः मुद्दों की पत्रकारिता करने वाला देशबंधु ही है। आप चाहे तो मेरे इस दावे को खारिज कर सकते है। मैं दूसरे समाचारपत्रों पर क्या टिम्पणी करूं।
प्र06- हिन्दी समाचार पत्रों में हासिये का समाज कहां है ?
हिन्दी समाचारपत्रों में हासिए के समाज के लिए लगभग नहीं के बराबर स्थान है। एक समय था जब अखबारों के बीच खबरों को लेकर होड होती थी। तब सभी अखबारों में जो भले ही संख्या में कम थे या प्रसार संख्या में कम थे विकास के प्रश्न पर रिपोर्टिंग की जाती थी संपादकीय लिखी जाती थी वह दौर बीत गया आज अखबार का पाठक और लक्ष्य शहरी अर्ध शहरी उच्च मध्यवर्ग है उसकी अहंकार जनित स्वपनों का वाहक बनकर रह गया है। आज के अखबारों के लिए वंचित समाज या हासिए का समाज नहीं है। जब कोई बडी दुर्घटना हो त्रासदी हो जिसे एक खौफनाक तस्वीर के रूप में बेचा जासके। हासिए के समाज के प्रति अखबारों की सहानुभूति पूरी तरह से समाप्त हो गई है। मैं जब हासिए की समाज की बात करता हूं, दलित, आदिवासी अन्यवंचित समूह इन सभी से है। इसमें किसान व मजदूर भी शामिल है। इनके लिए कल्याणकारी राज्य होने के नाते अरबों खरबों की योजनाएं बनती हैं किंतु उन पर अमल हो रहा है या नहीं इसका परिक्षण करने में आज की पत्रकारिता की कोई दिलचस्पी नहीं है। किसी योजना या कार्यक्रम में भ्रष्टाचार की बात उठे तो उसे इसलिए उछाला जाता है कि एक तो वह इसलिए की वह खबर बिकती है। दुसरे मीडिया में ऐसे लोग है जो ऐसे भ्रष्टाचार में खुद को शामिल करने का संदेश भेजना चाहते है।
मैं छत्तिसगढ में रहता हूं आप जानते हैं कि वहां तीस बरस से नक्सलवाद सक्रिय है। खासकर बस्तर में हमारा मीडिया नक्सलियों के खात्में के लिए सेना भेजने की वकालत तक करता है लेकिन आदिवासियों को जिस तरह से छला गया है उनकी अस्मिता और गरिमा पर आघात किए गए है इस की बात मीडिया सामान्य तौर पर नहीं करती है।
प्र07- हिन्दी समाचार पत्रों में स्त्रिी उपभोक्ता और उपभोग की स्थिती पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?
आप के सवाल के जो भावना है जो दर्द है मैं उसकों साझा करता हूं। भारत ही नही विश्व में कोई भी देश, समाज ऐसा नहीं है जो स्त्री को खुले मन से बराबरी का दर्जा देता हो जिसमें उसे उप भोग न माना जाता हो। आधुनिक मीडिया ने इस दुराग्रह को मजबूत करने का काम किया है। यह बात सिर्फ विज्ञापनों में प्रस्तुत स्त्री की नहीं है बल्कि हर कदम पर मीडिया ऐसा कोई मौका नहीं छोडता जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे की छवि के रूप में पेश न किया जाता हो। सच पूछिए तो औरत की गिनती भी हमें हासिए के समाज में करना चाहिए शायद फर्क इस बात का है कि अपेक्षाकृत सुविधा संपन्न समाज की औरते जाने-अंजाने में खुद ही उस पारंपरिक परिभाषा में ढल जाती है।
प्र08- समाचारों की अंर्तवस्तु पर बाजार का प्रभाव ? वहीं बाजार में प्रतिश्पर्धा में अच्छी चीजें क्या हैं ?
पहले तो यह जान लिजिए की आज जब हम बाजार की बात करते है तो पंूजीवाद शोषणकारी यंत्र के रूप में विद्यमान रहा है। बहरहाल बाजार पत्रकारिता को आज दो तरिको से प्रभावित कर रहा है। एक तो वर्तमान मीडिया अपने आप में बाजार का अंग है। उसमें जो पूंजी लगी है वह कोई पत्रकार की नहीं बल्की कोई कारोबारी ही लगा सकता है उसका उद्देश्य अखबार से मुनाफा कमाने तक सिमित नहीं बल्की अखबार को अपने दूसरे उद्यमों में प्रगती के लिए भी इस्तेमाल करता है। इस तरह से इस प्रक्रिया में अखबार सिर्फ समाचार देने का माध्यम नहीं बल्की भयादोहन करने अथवा पारस्परिक समझौता करने के उपकरण के रूप में भी इस्तेमाल करता है। इसका असर निश्चित रूप से अखबारों की अंतरवस्तु पर पडता है।
दूसरा अखबार का बाजार से जो सिधा संबंध है वह भी अंतरवस्तु को प्रभावित करता ही है। अखबार में मोटे तौर पर वही छपता है तो बिकता है फिर वह कोई खैफनाक कथा या हारर स्टोरी क्यों न हो फिर वो सामाग्री कितनी भी जुगुप्सा पैदा करने वाली क्यों न हो उसे स्थान दिया जाता है। अगर मैं ठिक समझ रहा हूं तो अखबारों के बाजार में प्रतिस्पर्धा में अच्छी बातों का मुद्दा उठा है। अखबारों ने आपसी होड में स्वाभाविक है कि कुछ बुनियादी मसले भी सामने आते हो उन पर बहस छिड़ती हो लेकिन आज से तीस साल पहले अगर ऐसी बहसे नियमित स्वरूप होती थी तो आज वे अपवाद स्वरूप हैं। इनके लिए प्राथमिकता के साथ जो जगह दी जानी चाहिए नहीं दी जाती तथा बहस को एक निर्णायक मोड पर ले जाने से बहुत पहले बीच में ही छोड दिया जाता है। एक मुद्दा उठता है कुछ दिन चर्चा में रहता है फिर अचानक गायब हो जाता है। एक निर्णायक मोड या तार्किक परिणाम के पहले छोड दिया जाता है।
प्र09- समाचार पत्रों का आर्थिक प्रबंधन कैसे बदला है ?
हिंदी अखबार की जो परंपरा हैं उसमें पहले सामन्यतः पत्रकार ही अखबार निकालते थे अब कार्पोरेट घराने अखबार के मालिक है और पत्रकार इनके वेतन कर्मचारी हैं क्योंकि आधुनिक मशीनों और उपकरणों का निवेश होता है। इसलिए मालिक की स्वभाविक चिंता सबसे पहले अपने निवेश को सुरक्षित रखने की होती है। एक स्वतंत्र मालिक पत्रकार जो खतरे उठा सकता था वह व्यापारी मालिक के लिए संभव ही नहीं है। मैं देशबंधु के बारे में कुछ बताना चाहुंगा, मेरे पिता स्वर्गीय मायाराम सुरजन 1959 में मित्रों से उधार लेकर 25 हजार रूपए कि कुल पंूजी से अखबार की स्थापना की थी। मात्र नौ हजार रूपए में एक सेकैंड हैंड छापा मशीन अखबार शुरू करने के लिए पर्याप्त थे। अमर उजाला, नवज्योति, नवभारत (नागपुर) आदि तमाम पत्र इसी तरह सिमित पूंजी से शुरू हुए। आज पांच करोड से कम में अखबार निकालने की सोची भी नहीं जा सकती।
प्र010- वर्तमान में प्रसार व विज्ञापन की दिशा क्या है ?
दोनों के बारे में जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा है। प्रसार को लेकर मिथक गढ़ा गया है कि प्रसार दिन-दूनी रात-चैगुनी बढ रही है। सच्चाई यह है कि कम कीमत इंविटेशन प्राइज, इनामी योजना आदि प्रलोभनो के बल पर अखबार बाजार में पहुंच तो रहे हैं। लेकिन पूरी कीमत देकर अखबार खरीदने में बृद्धि नहीं हुई है। अखबार वाले अपने बारे में चाहे जो कहें मीडिया विश्लेषक भी जब इस मिथक को यर्थाथ मान लेते है तो तकलीफ होती है।
विज्ञापनों का जहां तक प्रश्न है इतने सारे अखबार निकलने लगे हंै। विज्ञापन पाने के लिए गलाकाट होड़ मची है। विज्ञापन दाता इस स्थिति का फायदा उठाकर अपनी शर्तो पर विज्ञापन छपवा रहे हंै। ऐसा कहूं तो गलत नहीं होगा कि अखबार अपने को विज्ञापन दाताओं के सामने लाचार और कमजोर पा रहे हैं।
प्र011- समाचार पत्रों की भाषा व लेआउट पर उदारीकरण का प्रभाव ?
समाचारपत्रों की रूप सज्जा पहले के मुकाबले अच्छी हुई है। इसमें नई तकनीकि का योगदान है। लेकिन इस कथित उदारीकरण ने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को नष्ट करना शुरू कर दिया है। एक नकली भाषा गढी जा रही है। जिसके चलते हमारी अगली पीढियाँ अपने सांस्कृतिक वैभव को समझने से वंचित रह जाएंगी। चुंकि अखबारों की संख्या में जिस गति से बढोतरी हुई है उसी अनुपात में प्रक्षिशित पत्रकारों की कमी भी महसूस की जा रही है। इसका भी अवांक्षित असर भाषा पर पड़ा है।
प्र012- समाचारों का स्थान निर्धारण आज कैसे हो रहा है ?
जो प्रमुख खबरे समाचार एंजेंसी के माध्यम से आती है उनका स्थान निर्धारण ठीक-ठीक हो जाता है। लेकिन अतीत में जिस तरह विकास-परक खबरों को महत्व देकर छापा जाता था वह चलन अब बंद हो गया है। राजनैतिक व व्यापारिक हितो से जुडी खबरों को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। टी.वी. चैनलो पर जिस रूप में खबरे पेश होती हैं वे भी प्राथमिकता और स्थान निर्धारण पर अंजाने में प्रभाव डालती है।
प्र013- हिन्दी समाचार पत्र अंग्रेजी भाषा व स्थानीय भाषा के रंग से कितना प्रभावित है ?
मैंने अंग्रेजी का जिक्र उपर किया है मैं उसे अवांक्षित मानता हूँ। स्थानीय या जनपदिय भाषा का असर पडना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। चूंकि इधर काॅलेज में हिन्दी के पठन-पाठन में गिरावट आई है। उसके चलते किसी भी अखबार में हिन्दी का शुद्ध रूप देखने को नहीं मिलता। नए पत्रकारों की हिन्दी वैसी नहीं है जैसी कि बीस-पच्चीस साल पहले होती थी। इसलिए इन दिनों अखबारों में जनपदिय भाषा से प्रभावित रूप का चलन बढा है। इसे व्याकरण और वर्तनी दोनों में देखा जा सकता है। शब्दों के चयन में व्याकरण और वर्तनी में फर्क है। बिहार और उत्तर प्रदेश के अखबरो की भाषा नहीं जमती है
प्र01- हिन्दी समाचार पत्रों पर उदारीकरण का प्रभाव एवं उसके पश्चात हिन्दी पत्रकारिता में आये बदलाव को आप कैसे देखते है ?
मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार के समय आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत हुई। यद्यपी इसकी हल्की शुरूआत राजीव गांधी की सरकार के समय में हो चुकी थी। आर्थिक उदारीकरण एक भ्रामक संज्ञा है। आर्थिक उदारीकरण एकाधिकारवाद की ओर लेजाता है। इसका मीडिया पर प्रभाव पडा, इसके समानान्तर संचार और मुद्रण का विकास भी हुआ। इन दोनों के परिणाम स्वरूप पत्रकारिता एक पूंजीसघन व्यापार बन गया। जब बडी मात्रा में पूंजी की जरूरत पड़ने लगी तो पत्रकारिता में स्वामित्व का चरित्र भी बदला जिसके चलते पत्रकारिता का स्वरूप पूरीतरह बदल गया।
प्र02- उदारीकरण के पश्चात अखबार के चरित्र में जो दुष्परिणाम हमें देखने को मिल रहें हैं उसके लिए दोषी कौन ?
पूंजीे पत्रकारिता को संचालित करने लगी है। पत्रकारिता में जिसने पुंजी लगाई है उसको मुनाफा चाहिए। मुनाफा कमाने की चिंता में कुछ भी त्याज्य या निषेध नहीं रहा। प्राथमिक तौर पर तो मीडिया स्वामि हैं जो इसके लिए उत्तरदायी हैं लेकिन पत्रकारों की जो बिरादरी है उसे भी किसी सीमा तक दोषी मानता हूँ। मुझे कहते हुए अफसोस हो रहा है कि मीडिया मालिकों के साथ-साथ किसी सीमा तक पत्रकारों ने भी मूल्यों से किनारा कर लिया। उन्हें जब खडे होकर विरोध करना चाहिए था तब वे पूंजी के दबाव अथवा पूंजी के आकर्षण के सामने झूक गए। इसके अपवाद हैं लेकिन वह संख्या सिमित है और प्रभाव भी सिमित हैं।
प्र03- उदारीकरण के दौर के बाद पाठक भी बढे़ अखबार भी बढे़ पर कंटेन्ट में बहुत कुछ नहीं है। इसका कारण क्या है ?
मेरी थोडी यहां पर असहमती है। हिंदी अथवा भाषाई पत्रकारिता में पाठक संख्या बढ़ने का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है वह सत्य से परे है। अखबार बढे हैं दस्तावेजों में ग्राहक संख्या और पाठक संख्या भी बढ़ी है लेकिन यह ग्राहक संख्या मार्केटिंग तकनीक से जुटाई गई है। इस लिए वास्तविकता से दूर है। मैं तो ग्राहक उसे मानता हूं जो अखबार की पूरी कीमत देकर खरीदने की इच्छा रखता है। यह पाठक संख्या भी सतही है जो पेज थ्री जैसी अवधारणओं से हासिल की गई है। ऐसे पाठक अखबार में सिर्फ अपना फोटों देखते हैं या अपने से संबंधित खबर देखते है। देश दुनिया की खबरों में उनकी दिलचस्पी नहीं है इस प्रवृत्ति के चलते कंटेन्ट या कहें कि विषयवस्तु की तरफ अब ध्यान नहीं दिया जाता। यह कटू सत्य है कि हम अब पाठकों को बहलाने मात्र का काम कर रहे है। सूचनाएं देना उसकी व्याख्या करना उसके माध्यम से लोक शिक्षण करना इन तीन बुनियादी उद्देश्यों को छोड अब पत्रकारिता मनोरंजन का माध्यम बन कर रह गई है।
प्र05- देशबन्धु अखबार विकास की खबरों को कितना महत्व देता है। हिन्दी के अन्य समाचार पत्रों में इसकी स्थिति क्या है ?
देशबंधु आज भी अपनी पुरानी रीति-नीति पर चल रहा है। संसाधनों के अभाव में हम उतना नहीं कर पा रहे है जितना चाहते है फिर भी आज हिन्दी में संभवतः मुद्दों की पत्रकारिता करने वाला देशबंधु ही है। आप चाहे तो मेरे इस दावे को खारिज कर सकते है। मैं दूसरे समाचारपत्रों पर क्या टिम्पणी करूं।
प्र06- हिन्दी समाचार पत्रों में हासिये का समाज कहां है ?
हिन्दी समाचारपत्रों में हासिए के समाज के लिए लगभग नहीं के बराबर स्थान है। एक समय था जब अखबारों के बीच खबरों को लेकर होड होती थी। तब सभी अखबारों में जो भले ही संख्या में कम थे या प्रसार संख्या में कम थे विकास के प्रश्न पर रिपोर्टिंग की जाती थी संपादकीय लिखी जाती थी वह दौर बीत गया आज अखबार का पाठक और लक्ष्य शहरी अर्ध शहरी उच्च मध्यवर्ग है उसकी अहंकार जनित स्वपनों का वाहक बनकर रह गया है। आज के अखबारों के लिए वंचित समाज या हासिए का समाज नहीं है। जब कोई बडी दुर्घटना हो त्रासदी हो जिसे एक खौफनाक तस्वीर के रूप में बेचा जासके। हासिए के समाज के प्रति अखबारों की सहानुभूति पूरी तरह से समाप्त हो गई है। मैं जब हासिए की समाज की बात करता हूं, दलित, आदिवासी अन्यवंचित समूह इन सभी से है। इसमें किसान व मजदूर भी शामिल है। इनके लिए कल्याणकारी राज्य होने के नाते अरबों खरबों की योजनाएं बनती हैं किंतु उन पर अमल हो रहा है या नहीं इसका परिक्षण करने में आज की पत्रकारिता की कोई दिलचस्पी नहीं है। किसी योजना या कार्यक्रम में भ्रष्टाचार की बात उठे तो उसे इसलिए उछाला जाता है कि एक तो वह इसलिए की वह खबर बिकती है। दुसरे मीडिया में ऐसे लोग है जो ऐसे भ्रष्टाचार में खुद को शामिल करने का संदेश भेजना चाहते है।
मैं छत्तिसगढ में रहता हूं आप जानते हैं कि वहां तीस बरस से नक्सलवाद सक्रिय है। खासकर बस्तर में हमारा मीडिया नक्सलियों के खात्में के लिए सेना भेजने की वकालत तक करता है लेकिन आदिवासियों को जिस तरह से छला गया है उनकी अस्मिता और गरिमा पर आघात किए गए है इस की बात मीडिया सामान्य तौर पर नहीं करती है।
प्र07- हिन्दी समाचार पत्रों में स्त्रिी उपभोक्ता और उपभोग की स्थिती पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?
आप के सवाल के जो भावना है जो दर्द है मैं उसकों साझा करता हूं। भारत ही नही विश्व में कोई भी देश, समाज ऐसा नहीं है जो स्त्री को खुले मन से बराबरी का दर्जा देता हो जिसमें उसे उप भोग न माना जाता हो। आधुनिक मीडिया ने इस दुराग्रह को मजबूत करने का काम किया है। यह बात सिर्फ विज्ञापनों में प्रस्तुत स्त्री की नहीं है बल्कि हर कदम पर मीडिया ऐसा कोई मौका नहीं छोडता जिसमें स्त्री को दोयम दर्जे की छवि के रूप में पेश न किया जाता हो। सच पूछिए तो औरत की गिनती भी हमें हासिए के समाज में करना चाहिए शायद फर्क इस बात का है कि अपेक्षाकृत सुविधा संपन्न समाज की औरते जाने-अंजाने में खुद ही उस पारंपरिक परिभाषा में ढल जाती है।
प्र08- समाचारों की अंर्तवस्तु पर बाजार का प्रभाव ? वहीं बाजार में प्रतिश्पर्धा में अच्छी चीजें क्या हैं ?
पहले तो यह जान लिजिए की आज जब हम बाजार की बात करते है तो पंूजीवाद शोषणकारी यंत्र के रूप में विद्यमान रहा है। बहरहाल बाजार पत्रकारिता को आज दो तरिको से प्रभावित कर रहा है। एक तो वर्तमान मीडिया अपने आप में बाजार का अंग है। उसमें जो पूंजी लगी है वह कोई पत्रकार की नहीं बल्की कोई कारोबारी ही लगा सकता है उसका उद्देश्य अखबार से मुनाफा कमाने तक सिमित नहीं बल्की अखबार को अपने दूसरे उद्यमों में प्रगती के लिए भी इस्तेमाल करता है। इस तरह से इस प्रक्रिया में अखबार सिर्फ समाचार देने का माध्यम नहीं बल्की भयादोहन करने अथवा पारस्परिक समझौता करने के उपकरण के रूप में भी इस्तेमाल करता है। इसका असर निश्चित रूप से अखबारों की अंतरवस्तु पर पडता है।
दूसरा अखबार का बाजार से जो सिधा संबंध है वह भी अंतरवस्तु को प्रभावित करता ही है। अखबार में मोटे तौर पर वही छपता है तो बिकता है फिर वह कोई खैफनाक कथा या हारर स्टोरी क्यों न हो फिर वो सामाग्री कितनी भी जुगुप्सा पैदा करने वाली क्यों न हो उसे स्थान दिया जाता है। अगर मैं ठिक समझ रहा हूं तो अखबारों के बाजार में प्रतिस्पर्धा में अच्छी बातों का मुद्दा उठा है। अखबारों ने आपसी होड में स्वाभाविक है कि कुछ बुनियादी मसले भी सामने आते हो उन पर बहस छिड़ती हो लेकिन आज से तीस साल पहले अगर ऐसी बहसे नियमित स्वरूप होती थी तो आज वे अपवाद स्वरूप हैं। इनके लिए प्राथमिकता के साथ जो जगह दी जानी चाहिए नहीं दी जाती तथा बहस को एक निर्णायक मोड पर ले जाने से बहुत पहले बीच में ही छोड दिया जाता है। एक मुद्दा उठता है कुछ दिन चर्चा में रहता है फिर अचानक गायब हो जाता है। एक निर्णायक मोड या तार्किक परिणाम के पहले छोड दिया जाता है।
प्र09- समाचार पत्रों का आर्थिक प्रबंधन कैसे बदला है ?
हिंदी अखबार की जो परंपरा हैं उसमें पहले सामन्यतः पत्रकार ही अखबार निकालते थे अब कार्पोरेट घराने अखबार के मालिक है और पत्रकार इनके वेतन कर्मचारी हैं क्योंकि आधुनिक मशीनों और उपकरणों का निवेश होता है। इसलिए मालिक की स्वभाविक चिंता सबसे पहले अपने निवेश को सुरक्षित रखने की होती है। एक स्वतंत्र मालिक पत्रकार जो खतरे उठा सकता था वह व्यापारी मालिक के लिए संभव ही नहीं है। मैं देशबंधु के बारे में कुछ बताना चाहुंगा, मेरे पिता स्वर्गीय मायाराम सुरजन 1959 में मित्रों से उधार लेकर 25 हजार रूपए कि कुल पंूजी से अखबार की स्थापना की थी। मात्र नौ हजार रूपए में एक सेकैंड हैंड छापा मशीन अखबार शुरू करने के लिए पर्याप्त थे। अमर उजाला, नवज्योति, नवभारत (नागपुर) आदि तमाम पत्र इसी तरह सिमित पूंजी से शुरू हुए। आज पांच करोड से कम में अखबार निकालने की सोची भी नहीं जा सकती।
प्र010- वर्तमान में प्रसार व विज्ञापन की दिशा क्या है ?
दोनों के बारे में जितना कम कहा जाए उतना ही अच्छा है। प्रसार को लेकर मिथक गढ़ा गया है कि प्रसार दिन-दूनी रात-चैगुनी बढ रही है। सच्चाई यह है कि कम कीमत इंविटेशन प्राइज, इनामी योजना आदि प्रलोभनो के बल पर अखबार बाजार में पहुंच तो रहे हैं। लेकिन पूरी कीमत देकर अखबार खरीदने में बृद्धि नहीं हुई है। अखबार वाले अपने बारे में चाहे जो कहें मीडिया विश्लेषक भी जब इस मिथक को यर्थाथ मान लेते है तो तकलीफ होती है।
विज्ञापनों का जहां तक प्रश्न है इतने सारे अखबार निकलने लगे हंै। विज्ञापन पाने के लिए गलाकाट होड़ मची है। विज्ञापन दाता इस स्थिति का फायदा उठाकर अपनी शर्तो पर विज्ञापन छपवा रहे हंै। ऐसा कहूं तो गलत नहीं होगा कि अखबार अपने को विज्ञापन दाताओं के सामने लाचार और कमजोर पा रहे हैं।
प्र011- समाचार पत्रों की भाषा व लेआउट पर उदारीकरण का प्रभाव ?
समाचारपत्रों की रूप सज्जा पहले के मुकाबले अच्छी हुई है। इसमें नई तकनीकि का योगदान है। लेकिन इस कथित उदारीकरण ने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को नष्ट करना शुरू कर दिया है। एक नकली भाषा गढी जा रही है। जिसके चलते हमारी अगली पीढियाँ अपने सांस्कृतिक वैभव को समझने से वंचित रह जाएंगी। चुंकि अखबारों की संख्या में जिस गति से बढोतरी हुई है उसी अनुपात में प्रक्षिशित पत्रकारों की कमी भी महसूस की जा रही है। इसका भी अवांक्षित असर भाषा पर पड़ा है।
प्र012- समाचारों का स्थान निर्धारण आज कैसे हो रहा है ?
जो प्रमुख खबरे समाचार एंजेंसी के माध्यम से आती है उनका स्थान निर्धारण ठीक-ठीक हो जाता है। लेकिन अतीत में जिस तरह विकास-परक खबरों को महत्व देकर छापा जाता था वह चलन अब बंद हो गया है। राजनैतिक व व्यापारिक हितो से जुडी खबरों को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। टी.वी. चैनलो पर जिस रूप में खबरे पेश होती हैं वे भी प्राथमिकता और स्थान निर्धारण पर अंजाने में प्रभाव डालती है।
प्र013- हिन्दी समाचार पत्र अंग्रेजी भाषा व स्थानीय भाषा के रंग से कितना प्रभावित है ?
मैंने अंग्रेजी का जिक्र उपर किया है मैं उसे अवांक्षित मानता हूँ। स्थानीय या जनपदिय भाषा का असर पडना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। चूंकि इधर काॅलेज में हिन्दी के पठन-पाठन में गिरावट आई है। उसके चलते किसी भी अखबार में हिन्दी का शुद्ध रूप देखने को नहीं मिलता। नए पत्रकारों की हिन्दी वैसी नहीं है जैसी कि बीस-पच्चीस साल पहले होती थी। इसलिए इन दिनों अखबारों में जनपदिय भाषा से प्रभावित रूप का चलन बढा है। इसे व्याकरण और वर्तनी दोनों में देखा जा सकता है। शब्दों के चयन में व्याकरण और वर्तनी में फर्क है। बिहार और उत्तर प्रदेश के अखबरो की भाषा नहीं जमती है