Monday, October 15, 2012


कामरेड अरूण प्रकाश का जाना 
सुभाष गौतम
कथाकार अरूण प्रकाश जी से मेरी मुलाकात जून 2011 में हुई थी। एक बात-चीत के सिलसिले में मेरा उनके घर जाना हूआ था। बात-चीत का विषय ‘बेगूसराय का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक इतिहास’ था। अरूण प्रकाश से बात-चीत के लिए मैं नंदीग्राम डायरी के लेखक पुष्पराज जी के आग्रह पर गया था। पहुंच कर मैं बरामदे में बैठा थोडे देर बैठने के बाद, कमरे से कथाकार अरूण प्रकाश निकले और सामने वाली कुर्सी पर आ बैठे, नाक में आक्सीजन की नली लगी थी। मैंने उनसे बात-चीत शुरू की, तकरीबन तीन घंटे तक वो लगातार बात करते रहे। उस दिन उन्हांेने बेगूसराय बिहार के बारे में एक से एक रोचक जानकारी दी। यहां तक कि छोटे-छोटे उद्योग-धंधे, व्यवसाय आदि की बहुत सी बाते बताई, कुछ जानकारियां तो ऐसी दी कि जो इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं मिलती। मझौल के बारे में उन्होने बताया कि मझौल में एक नील कोठी थी। उसमें एक नीलहा रहता था जो कोई भारतीय नील कोठी के सामने से गुजरता वो अपना छाता बन्द कर लेता, अगर तांगा गाडी गुजरता था तो उस में सवार सभी लोग उतर कर पैदल चलते थे। आज की नयी पीढ़ी को यह मालूम ही नहीं कि उस कोठी के सामने से उनके माता-पिता, दादा-दादी सिर झुका के गुजरा करते थे। उस दिन हमारी बात-चीत सफल रही उसके बाद हम मित्र कब बन गये पता नहीं चला। जहां तक मुझको याद है कि विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक ‘‘व्योमकेश दरवेश’’ पर एक लेख लिखवाया, वो लेख उनका आखिरी था उसके बाद उन्होने कोई लेख आदि नहीं लिखा था। 
एक दिन उन्होंने बताया कि जीवन का ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक स्रोत साहित्य भी है, लेकिन यदि लेखक के पास ज्ञान कम होतो ऐसी स्थिति में पाठक तक ज्ञान कैसे पहुंचेगा। अभी हाल ही में मेरे जवान बेटे मनु प्रकाश ने कहा कि मेरे पास जीवन का ज्ञान बहुत कम है। इसका प्रसंग तब निकला जब उसने बताया कि वह तैराकी सीखने जा रहा है। बरौनी में रहता तो वह तैराकी अपने आप सीख जाता। यहां दो-दो नदीयां हैं। गंगा और बया लेकिन दिल्ली की सड़ी हुई यमुना में यह संभव नहीं। शहरी जीवनशैली कुछ ऐसी है कि आदमी अपने तक सिमट कर रह जाता है। फ्लैटों की जिंदगी में जीवन के पर्यावारण से सीधा संपर्क बहुत कम हो पाता है। अरूण जी छोटे-बड़े, स्त्री-पुरूष में भेद नहीं रखते थे सबकों समान भाव से देखते थे। वो हर किसी के कास को सराहते थे चाहे वह समाज का छोटा से छोटा आदमी क्यों न हो। अरूण जी बेहद सहज और सरल स्वभाव के इंसान थे, कोई भी उन से मिलने के बाद उनका मूरीद हो जाता। वो बहुत ही जिवट इंसान थे। विकट परिस्थितियों में भी विचलित होने वाले नहीं थे। मैं सप्ताह में तीन से चार दिन उनसे मिलने जाता मुझे प्यार से हनुमान कहते क्यों कि जब भी वो फोन करते मैं हाजिर हो जाता। उनके यहां जैसे पहुँचता वो कहते- तो बताईये क्या खबर लाए है साहित्य जगत की’ आये दिन किसी ना किसी नए विषय पर हमारी चर्चा होती। जिस दिन उनको बात करने का मन नहीं होता तो  कहते आज कुछ संगीत हो जाए, हम गाना सुनाते और वह मेज बजाते फिर देर रात घर लौटता। मैं उन्हें एक साहित्यकार के रूप में नहीं एक व्यक्ति के रूप में जानता था।
मार्कसवाद के विषय में वो कहा करते थे कि -समाजसेवा और क्रांतिकारी काम भविष्योन्मुखी होता है, जनता उसको लेकर दूरगामी स्वपन देखती है। लेकिन यदि जनता को तात्कालिक तकलीफ है तो उसे रिलीफ भी तात्कालिक चाहिए। माक्र्सवाद जैसा व्यवहारिक दर्शन यथार्थवाद है जो दार्शनिक स्वप्न देखता है। अंधविश्वास और विश्वास जैसी श्रद्धा नहीं  तार्किक सहमति होनी चाहिए। अरूण जी ने जीवन के आखिरी दिनों में भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं किया क्योकि वो अन्य वामपंथीयों की तरह नहीं थे। उन्हें विचारधारा की बहुत अच्छी समझ थी। उनके लेखन में भी विचारधारा की झलक मिलती है। एक दिन उन्हांेने पूछा कि तुम क्या बनना चाहते हो? मैंने कहा कि एक अच्छा इंसान बनना चाहता हूं। इस बात पर वे बोले कि एक अच्छा इंसान बनना कोई मुश्किल काम नहीं है। लेकिन अच्छा बनने के बाद अच्छा बना रहना बड़ी बात है। साहित्य जगत के किसी भी लेखक की उन्होने कभी भूल कर भी निन्दा नही की। अरूण जी साहित्य जगत में ऐसे व्यक्ति थे जिनकी अगर कोई आलोचना भी करता तो वो पलट कर जवाब नहीं देते थे। हिंदी के आलोचक प्रो. नामवर सिंह जी के विषय में हमेशा पूछते उनकी तारीफ भी करते थे। पर नामवर जी से उनकी एक शिकायत थी। अरूण जी कहते थे कि ‘नामवर जी ने मेरी रचानाओं पर कभी भूल से भी आलोचना या तारीफ नहीं की होगी। कहीं न कहीं ये कसक उनके मन में थी कि नामवर जी उनकी रचनाओं पर कभी टिप्पणी नहीं किए। 
अस्वस्थ होने के बावजूद भी उन्होने पिछले दिनों ‘गद्य की पहचान’ नाम से एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी। इस आलोचनात्मक पुस्तक के संबन्ध में बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि ‘इसको लिखने के पीछे एक रोचक तथ्य मेरे सामने था। आत्मकथात्मक उपन्यास जैसा एक शब्द आया। जिस पर वे विचार करने लगे। आत्मकथा और उपन्यास दोंनों अलग संरचनाएं हैं। दोनों में से आखिर कौन अधिक महत्वपूर्ण है? किसका असर अधिक होगा? दोनों में से कौन अधिक प्रभावशाली है? इन्हीं विचारों व सवालों को जानने की मनसा से उन्होंने अध्य्यन शुरू किया। इसी क्रम में अध्ययन करते हुए उनके मन में प्रायः यह सवाल उठने लगते, आलोचना किस के लिए होती है? यह कैसी होनी चाहिए? यह सामान्य पाठक के लिए होनी चाहिए या विशिष्ठ वर्ग के लिए। यह अक्सर विशिष्ठ वर्ग के लिए होती है। अकादमिक क्षेत्र के पाठक भी इसमें आ जाते है। आलोचना का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। प्रारंभिक सूचना क्षेत्र, दीर्घ आलोचना, लघु आलोचना जैसी विधाएं कहानी और उपन्यास से पिछे रह गयी हैं जिन पर लिखा जाना चाहिए। इसमें व्यवस्थित रूप से कार्य होना अभी बाकी है। यह मनोरंजक तरकीब से लिखा हुआ होना चाहिए जिसको पढ़ने पर पाठक को आन्नद आये। इन्हीं विचारों के चलते उन्होंने ‘गद्य की पहचान’ लिखा। उनका हृदय उस वक्त गदगद हो उठा जब विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने फोन पर उन्हें बधाई देते हुए कहा कि उनकी आलोचनात्मक पुस्तक वाकई काबिले तारीफ है यह अपने आप में एक जन जागरण है। उनकी पुस्तक ‘गद्य की पहचान’ लिखने के पश्चात वो बेहद अस्वस्थ रहने लगे थे। मई 2012 के अंत में वो जब हास्पीटल में थे उस समय हम उनसे मिलने गये थे। उन्होंने मेरे हास्पीटल पहंुचते ही कहा कि हनूमान शुक्रवार पत्रिका की दो काॅपी का इंतजाम करों मैं झट उठा और दो काॅपी पत्रिका लेकर आ गया। उन्होने अपने जेब से 20 रू निकाल कर दिए और बोले कि जो सबसे अधिक अक्रामक तेवर वाला व्यक्ति है वहीं समीक्षा पढ कर सुनाएगा । वहां पर मौजूद सभी लोग एक दूसरे की ओर देखने लगे। फिर उन्होनें पत्रिका को रंजना के तरफ बढ़ाते हुए कहा कि पढ़ों। रंजना ने पत्रिका में छपी समीक्षा को पढना शुरू किया उस समय हास्पीटल का वो कमरा एकदम शांत हो गया था। समीक्षा का पाठ खत्म होने के बाद उन्होने समीक्षक और संपादक की तारीफ की और कहा कि समीक्षा अच्छी है। 18 जून 2012 को दोपहर एक बजे दिल्ली के पटेल चेस्ट हास्पीटल में उनका देहावसान हो गया और अपने पीछे छोड़ गये अपनी साहित्यिक संपदा।