भोपाल में 25 साल पहले दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी हुई थी। जिसे दुनिया भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जानती है। सत्यासिंह राठौर ने भोपाल गैस-त्रासदी को मीडिया ने किस तरह से देखा इसे लेकर जो किताब लिखी है वह महत्वपूर्ण शोध कार्य है।लेखिका के अनुसार भोपाल गैस त्रासदी को लेकर मीडिया ने शुरूआती दौर में सामान्यतः सूचनातमक खबरों पर ध्यान दिया। किसी भी अखबार या चैनेल ने इस तथ्य की जांच-पड़ताल नहीं की कि वहां के लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है। मीडिया ने इस ओर तभी ध्यान दिया होता तो आज ये दिन शायद न देखने को न मिलता। गैस त्रासदी स्थल के आसपास के जल तथा वायु प्रदूषित होने की पुष्टि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने की है। जिसका दुष्प्रभाव वहां की जनता के स्वास्थ्य पर देखा जा सकता है। अभी भी कैंसर, क्षयरोग, दमा आदि बीमारियों पर काबू नहीं पाया जा सका है बल्कि दिनों-दिन इसके रोगी बढ़ रहे हैं।पुस्तक भोपाल गैस त्रासदी घटित होने के पहले और त्रासदी से लेकर अब तक की घटनाओं के इतिहास को रेखांकित करती है। ‘भोपाल गैस त्रासदी और मीडिया’ पुस्तक चैदह शीर्षकों में बंटा ऐतिहासिक दस्तावेज है जो भोपाल में गैस त्रासदी की हकीकत को बयान करता है।राठौर लिखती हैं कि ‘पत्रकार राजकुमार केसवानी ने अपने लेख ‘भोपाल का ज्वालामुखी यूनियन कार्बाइड’ में लिखा कि एम.आई.सी. का उत्पादन फाॅस्जीन, क्लोरीन व कार्बन मोनोआक्साइड जैसी घातक व विषैली गैसों के मिश्रण से किया जाता है। इसमें सबसे खतरनाक चीज है फाॅस्जीन गैस। इस गैस का सबसे पहले 1919 के प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इस्तेमाल किया गया था। दूसरा इस्तेमाल जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने अपने गैस चेंबरों में निरपराधों की हत्या के लिए किया था। विश्वयुद्ध की समाप्ति पर 1925 में जिनेवा समझौते के तहत इस फाॅस्जीन गैस को प्रतिबंधित किया गया था।’ (पृ. 19) पुस्तक ये सवाल खड़ा करती है कि इस प्रकार की गैस जो कि पूरी दुनिया में प्रतिबंधित थी फिर भी यूनियन कार्बाइड संयंत्र को भारत में लगाने की अनुमति क्यों दी गई। इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के विषय में ‘अमेरिका की एक व्यापारिक पत्रिका फाॅरचून ने लिखा ‘‘यूनियन कार्बाइड मुनाफाखोरी से ग्रस्त एक ऐसा प्रतिक्रियावादी राक्षस है जिसे नागरिकों की भलाई से कोई वास्ता नहीं है।’’ (पृ. 21) इस प्रकार यूनियन कार्बाइड संयंत्र में बनने वाले जहर की तरफ ये पुस्तक संकेत करती है और बताती है कि समय रहते अगर सरकार चेत गयी होती तो हम दिसंबर, 1984 की खौफनाक मंजर देखने से बच जाते।राठौर ‘हादसे दर हादसे’ नामक शीर्षक से यूनियन कार्बाइड कंपनी में होने वाले हादसों को क्रमवार दर्शाती हैं। वह बताती हैं कि 1984 की त्रासदी से पहले अनेकों ऐसी घटनाएं घटीं जो भयानक खतरे के संकेत थे पर समय रहते ‘‘न तो यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों ने और न ही मध्यप्रदेश सरकार ने कोई सबक सीखा न नागरिकों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम उठाए।’’ (पृ. 44) लगातार होने वाले हादसों से मीडिया (प्रिंट/इलेक्ट्राॅनिक) बेपरवाह था। शोध से ये पता चलता है कि सिर्फ राजकुमार केसवानी के पत्र वीकली रपट के अलावा यूनियन कार्बाइन जैसी एमआईसी गैस चेंबर के विषय में कहीं कोई नोटिस नहीं लिया गया। इससे साफ जाहिर होता है कि मीडिया को यूनियन कार्बाइड कंपनी ने अपने पक्ष में कर लिया था। ‘‘अनेक दुर्घटनाएं घटित होने के बाद और भोपाल पर संभावित खतरे को देखते हुए कर्मचारी यूनियनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कई बार यूनियन कार्बाइड कंपनी में बनने वाली फाॅस्जीन के उत्पादन पर रोक लगाने की मांग की। किंतु चेतावनी भरी मांगों का न तो सरकार पर कोई असर हुआ और न कारखाने के प्रबंधकों पर।’’ पुस्तक बताती है कि एक वैज्ञानिक ने तभी कहा था कि अगर फाॅस्जीन प्लांट में लीकेज हो जाए तो भोपाल की आधी से अधिक आबादी मौत की गोद में चली जाएगी, जो आगे चलकर सच हुआ।पुस्तक मीडिया के संदर्भ में एक और महत्वपूर्ण प्रश्न पूछती है कि शिव अनुराग पटौरिया ने भोपाल गैस त्रासदी के बारे में संकेत करते हुए जब एक खबर भोपाल स्थित नई दुनिया दैनिक के कार्यालय भेजी तो उसे आखिर क्यों नहीं प्रकाशित किया गया। उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया। इससे साफ जाहिर होता है कि उस समय समाचार-प्रबंधन का स्वरूप बदल रहा था। भोपाल गैस त्रासदी की आशंका से आगाह न करने के पीछे अखबार के बड़े लोग जिम्मेदार थे। छोटे स्तर पर प्रयास तो हो रहे थे पर हर हाल में बड़े स्तर पर उन्हें दबा दिया जाता था। काश इस होने वाली त्रासदी की खबर को कूड़े के ढेर में न फेंका गया होता और एक मुहिम के तौर पर फालोअप को आगे बढ़या गया होता तो क्या हम इससे बच नहीं जाते! इससे स्पष्ट जाहिर होता है कि दुनिया की सबसे बड़ी गैस त्रासदी होने से रोकी जा सकती थी। पर मीडिया ने अपने आंख, कान, नाक सब बंद रखे थे और क्यों रखे थे वह भी कोई छिपी बात नहीं है।‘भोपाल पर कहर’ नाम शीर्षक से राठौर त्रासदी की रात की कहानी बतलाती हैं कि किस प्रकार गैस लीक हुई और फिर उसके पश्चात कैसा दृश्य था। जिसको पढ़ कर आज भी आंखो के सामने अंधेरा छा जाता है। ‘कितनी लाशें पड़ी थीं सड़कों पर, कितने शिशु मां की गोद से छूटकर दम तोड़ चुके थे। किसी का बेटा, किसी की बेटी, किसी के मां-बाप, पता नहीं किस जगह मरे पड़े थे। भागने की जल्दी में लोग लाशों से टकराकर गिर रहे थे, चारों ओर हाहाकार मचा था। अनगिनत लोग नंगे पांव बदहवास पैदल ही भाग रहे थे उनमें गर्भवती महिलाएं और बूढ़े बच्चे सभी थे। चारों तरफ मौत अपना जबड़ा फैलाए थी। भागते-भागते लोग बस यही कह रहे थे भागो-भागो।’’ (पृ. 65)पुस्तक बताती है कि पत्र-पत्रिकाओं ने गैस त्रासदी की घटना को काली रात के रूप में दर्ज किया, पर दिन के उजाले में हमारे देश के कैबीनेट मंत्रियों व पूंजीपति घरानों ने क्या किया इसे कहीं दर्ज नहीं किया। न इस की जांच पड़ताल की गयी। ‘आपरेशन फेथ’ की चर्चा करते हुए राठौर लिखती हैं कि ‘यह त्रासदी न दैवीय थी न प्राकृतिक, यह मानव निर्मित थी।’’ ये भी बताती हैं कि ‘‘वैज्ञानिक और शासकीय अधिकारियों ने असमंजस की स्थिति से उबरने के बाद 23 दिसंबर को पांच कंटेनर्स में गैस के सेंपल रख लिए, परंतु दुर्भाग्य यह रहा कि गैस हादसे के 23 वर्षों बाद भी गैस के नमूनों के जांच की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हो पाई।’’ (पृ.97)पुस्तक भारतीय प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़े करती है। आखिर 25 वर्षों बाद भी कंपनी के मालिक एंडरसन पर न्यायिक कार्यवाही क्यों नहीं हो पाई। भोपाल के गैस पीड़ितों में न्याय न मिलने से आक्रोश भड़क उठा है। पुस्तक ये भी बयान करती है कि एंडरसन भारतीय न्याय व्यवस्था को ठेंगा दिखाकर चला गया और आरोप सिद्ध होने पर भी उसको सरकार आज तक गिरफ्तार नहीं कर सकी।पुस्तक बताती है कि भोपाल गैस कांड से जुडे मुद्दे बाद के वर्षों में भी उठते रहे। जैसे डाउ केमिकल की पैरवी करते हुए कमलनाथ, पी. चिदंबरम, मोंटक सिंह अहलूवालिया ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 2006 में अलग-अलग लिखे पत्रों में कहा कि 1984 में हुए भोपाल गैस कांड से डाउ केमिकल का कोई वास्ता नहीं था इसलिए उसे कचरे को हटाने के लिए जरूरी 100 करोड़ रुपये देने को बाध्य न किया जाए। इसके पिछे इन लोगों ने यह तर्क दिया कि इससे भारत में विदेशी निवेश प्रभावित होगा। इस प्रकार अनेकांे मुद्दे हंै जिन पर मीडिया ने हो-हल्ला नहीं मचाया आखिर क्यों? मीडिया का समाज के प्रति क्या कोई दायित्व बनता है? इसलिए प्रश्न यह है कि मीडिया क्यों जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व और सरोकारों को भूलता जा रहा है और शुद्ध लाभ कमाने का माध्यम हो गया है। ऐसे अनेकों प्रश्न हैं मीडिया के सामने जिसका जवाब भोपाल मांग रहा है। हिंदी की शीर्ष पत्रिकाएं जैसे हंस (मीडिया विशेषांक, जनवरी 2007); कथादेश (मीडिया विशेषांक, अगस्त 2009); नया ज्ञानोदय (मीडिया विशेषांक 2010) आदि के मीडिया विशेषांक प्रकाशित हुए जिन में गुजरात का गोधरा कांड, मुंबई बम विस्फोट, बाटला हाउस, कोसी का कहर से लेकर अभिषेक बच्चन व ऐश्वर्या की शादी तक की चर्चा की गई पर भोपाल गैस त्रासदी पर किसी को एक टिप्पणी करना तक उचित न लगा। किसी की नजर इस भयानक त्रासदी की तरफ नहीं गई।पुस्तक के आखिरी भाग में गैस त्रासदी पर आधारित महत्वपूर्ण व्यक्तियों से बातचीत के अंश दिए गए हैं, जिनको पढ़ने के बाद त्रासदी के अनेकों अनसुलझे सवालों के जवाब मिलने लगते हैं। कुल मिला कर शोध कार्य होने के बावजूद यह एक उपयोगी और महत्वपूर्ण किताब है जो हमें भोपाल प्रसंग से आगे बढ़ कर मीडिया की भूमिका को समझने का अवसर प्रदान करती है।
समीक्षा/पुस्तक
भोपाल गैस त्रासदी और मीडिया की भूमिकाः सत्या सिंह राठौर; सामयिक प्रकाशन; पृ 224; मूल्यः 300ISBN: 978.81.7138.207.1
भोपाल गैस त्रासदी और मीडिया की भूमिकाः सत्या सिंह राठौर; सामयिक प्रकाशन; पृ 224; मूल्यः 300ISBN: 978.81.7138.207.1