Saturday, October 15, 2011

भोपाल गैस त्रासदीः मीडिया क्या करता रहा इस बीच?

भोपाल में 25 साल पहले दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी हुई थी। जिसे दुनिया भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जानती है। सत्यासिंह राठौर ने भोपाल गैस-त्रासदी को मीडिया ने किस तरह से देखा इसे लेकर जो किताब लिखी है वह महत्वपूर्ण शोध कार्य है।लेखिका के अनुसार भोपाल गैस त्रासदी को लेकर मीडिया ने शुरूआती दौर में सामान्यतः सूचनातमक खबरों पर ध्यान दिया। किसी भी अखबार या चैनेल ने इस तथ्य की जांच-पड़ताल नहीं की कि वहां के लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है। मीडिया ने इस ओर तभी ध्यान दिया होता तो आज ये दिन शायद न देखने को न मिलता। गैस त्रासदी स्थल के आसपास के जल तथा वायु प्रदूषित होने की पुष्टि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने की है। जिसका दुष्प्रभाव वहां की जनता के स्वास्थ्य पर देखा जा सकता है। अभी भी कैंसर, क्षयरोग, दमा आदि बीमारियों पर काबू नहीं पाया जा सका है बल्कि दिनों-दिन इसके रोगी बढ़ रहे हैं।पुस्तक भोपाल गैस त्रासदी घटित होने के पहले और त्रासदी से लेकर अब तक की घटनाओं के इतिहास को रेखांकित करती है। ‘भोपाल गैस त्रासदी और मीडिया’ पुस्तक चैदह शीर्षकों में बंटा ऐतिहासिक दस्तावेज है जो भोपाल में गैस त्रासदी की हकीकत को बयान करता है।राठौर लिखती हैं कि ‘पत्रकार राजकुमार केसवानी ने अपने लेख ‘भोपाल का ज्वालामुखी यूनियन कार्बाइड’ में लिखा कि एम.आई.सी. का उत्पादन फाॅस्जीन, क्लोरीन व कार्बन मोनोआक्साइड जैसी घातक व विषैली गैसों के मिश्रण से किया जाता है। इसमें सबसे खतरनाक चीज है फाॅस्जीन गैस। इस गैस का सबसे पहले 1919 के प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इस्तेमाल किया गया था। दूसरा इस्तेमाल जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने अपने गैस चेंबरों में निरपराधों की हत्या के लिए किया था। विश्वयुद्ध की समाप्ति पर 1925 में जिनेवा समझौते के तहत इस फाॅस्जीन गैस को प्रतिबंधित किया गया था।’ (पृ. 19) पुस्तक ये सवाल खड़ा करती है कि इस प्रकार की गैस जो कि पूरी दुनिया में प्रतिबंधित थी फिर भी यूनियन कार्बाइड संयंत्र को भारत में लगाने की अनुमति क्यों दी गई। इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के विषय में ‘अमेरिका की एक व्यापारिक पत्रिका फाॅरचून ने लिखा ‘‘यूनियन कार्बाइड मुनाफाखोरी से ग्रस्त एक ऐसा प्रतिक्रियावादी राक्षस है जिसे नागरिकों की भलाई से कोई वास्ता नहीं है।’’ (पृ. 21) इस प्रकार यूनियन कार्बाइड संयंत्र में बनने वाले जहर की तरफ ये पुस्तक संकेत करती है और बताती है कि समय रहते अगर सरकार चेत गयी होती तो हम दिसंबर, 1984 की खौफनाक मंजर देखने से बच जाते।राठौर ‘हादसे दर हादसे’ नामक शीर्षक से यूनियन कार्बाइड कंपनी में होने वाले हादसों को क्रमवार दर्शाती हैं। वह बताती हैं कि 1984 की त्रासदी से पहले अनेकों ऐसी घटनाएं घटीं जो भयानक खतरे के संकेत थे पर समय रहते ‘‘न तो यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों ने और न ही मध्यप्रदेश सरकार ने कोई सबक सीखा न नागरिकों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम उठाए।’’ (पृ. 44) लगातार होने वाले हादसों से मीडिया (प्रिंट/इलेक्ट्राॅनिक) बेपरवाह था। शोध से ये पता चलता है कि सिर्फ राजकुमार केसवानी के पत्र वीकली रपट के अलावा यूनियन कार्बाइन जैसी एमआईसी गैस चेंबर के विषय में कहीं कोई नोटिस नहीं लिया गया। इससे साफ जाहिर होता है कि मीडिया को यूनियन कार्बाइड कंपनी ने अपने पक्ष में कर लिया था। ‘‘अनेक दुर्घटनाएं घटित होने के बाद और भोपाल पर संभावित खतरे को देखते हुए कर्मचारी यूनियनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कई बार यूनियन कार्बाइड कंपनी में बनने वाली फाॅस्जीन के उत्पादन पर रोक लगाने की मांग की। किंतु चेतावनी भरी मांगों का न तो सरकार पर कोई असर हुआ और न कारखाने के प्रबंधकों पर।’’ पुस्तक बताती है कि एक वैज्ञानिक ने तभी कहा था कि अगर फाॅस्जीन प्लांट में लीकेज हो जाए तो भोपाल की आधी से अधिक आबादी मौत की गोद में चली जाएगी, जो आगे चलकर सच हुआ।पुस्तक मीडिया के संदर्भ में एक और महत्वपूर्ण प्रश्न पूछती है कि शिव अनुराग पटौरिया ने भोपाल गैस त्रासदी के बारे में संकेत करते हुए जब एक खबर भोपाल स्थित नई दुनिया दैनिक के कार्यालय भेजी तो उसे आखिर क्यों नहीं प्रकाशित किया गया। उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया। इससे साफ जाहिर होता है कि उस समय समाचार-प्रबंधन का स्वरूप बदल रहा था। भोपाल गैस त्रासदी की आशंका से आगाह न करने के पीछे अखबार के बड़े लोग जिम्मेदार थे। छोटे स्तर पर प्रयास तो हो रहे थे पर हर हाल में बड़े स्तर पर उन्हें दबा दिया जाता था। काश इस होने वाली त्रासदी की खबर को कूड़े के ढेर में न फेंका गया होता और एक मुहिम के तौर पर फालोअप को आगे बढ़या गया होता तो क्या हम इससे बच नहीं जाते! इससे स्पष्ट जाहिर होता है कि दुनिया की सबसे बड़ी गैस त्रासदी होने से रोकी जा सकती थी। पर मीडिया ने अपने आंख, कान, नाक सब बंद रखे थे और क्यों रखे थे वह भी कोई छिपी बात नहीं है।‘भोपाल पर कहर’ नाम शीर्षक से राठौर त्रासदी की रात की कहानी बतलाती हैं कि किस प्रकार गैस लीक हुई और फिर उसके पश्चात कैसा दृश्य था। जिसको पढ़ कर आज भी आंखो के सामने अंधेरा छा जाता है। ‘कितनी लाशें पड़ी थीं सड़कों पर, कितने शिशु मां की गोद से छूटकर दम तोड़ चुके थे। किसी का बेटा, किसी की बेटी, किसी के मां-बाप, पता नहीं किस जगह मरे पड़े थे। भागने की जल्दी में लोग लाशों से टकराकर गिर रहे थे, चारों ओर हाहाकार मचा था। अनगिनत लोग नंगे पांव बदहवास पैदल ही भाग रहे थे उनमें गर्भवती महिलाएं और बूढ़े बच्चे सभी थे। चारों तरफ मौत अपना जबड़ा फैलाए थी। भागते-भागते लोग बस यही कह रहे थे भागो-भागो।’’ (पृ. 65)पुस्तक बताती है कि पत्र-पत्रिकाओं ने गैस त्रासदी की घटना को काली रात के रूप में दर्ज किया, पर दिन के उजाले में हमारे देश के कैबीनेट मंत्रियों व पूंजीपति घरानों ने क्या किया इसे कहीं दर्ज नहीं किया। न इस की जांच पड़ताल की गयी। ‘आपरेशन फेथ’ की चर्चा करते हुए राठौर लिखती हैं कि ‘यह त्रासदी न दैवीय थी न प्राकृतिक, यह मानव निर्मित थी।’’ ये भी बताती हैं कि ‘‘वैज्ञानिक और शासकीय अधिकारियों ने असमंजस की स्थिति से उबरने के बाद 23 दिसंबर को पांच कंटेनर्स में गैस के सेंपल रख लिए, परंतु दुर्भाग्य यह रहा कि गैस हादसे के 23 वर्षों बाद भी गैस के नमूनों के जांच की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हो पाई।’’ (पृ.97)पुस्तक भारतीय प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़े करती है। आखिर 25 वर्षों बाद भी कंपनी के मालिक एंडरसन पर न्यायिक कार्यवाही क्यों नहीं हो पाई। भोपाल के गैस पीड़ितों में न्याय न मिलने से आक्रोश भड़क उठा है। पुस्तक ये भी बयान करती है कि एंडरसन भारतीय न्याय व्यवस्था को ठेंगा दिखाकर चला गया और आरोप सिद्ध होने पर भी उसको सरकार आज तक गिरफ्तार नहीं कर सकी।पुस्तक बताती है कि भोपाल गैस कांड से जुडे मुद्दे बाद के वर्षों में भी उठते रहे। जैसे डाउ केमिकल की पैरवी करते हुए कमलनाथ, पी. चिदंबरम, मोंटक सिंह अहलूवालिया ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 2006 में अलग-अलग लिखे पत्रों में कहा कि 1984 में हुए भोपाल गैस कांड से डाउ केमिकल का कोई वास्ता नहीं था इसलिए उसे कचरे को हटाने के लिए जरूरी 100 करोड़ रुपये देने को बाध्य न किया जाए। इसके पिछे इन लोगों ने यह तर्क दिया कि इससे भारत में विदेशी निवेश प्रभावित होगा। इस प्रकार अनेकांे मुद्दे हंै जिन पर मीडिया ने हो-हल्ला नहीं मचाया आखिर क्यों? मीडिया का समाज के प्रति क्या कोई दायित्व बनता है? इसलिए प्रश्न यह है कि मीडिया क्यों जनता के प्रति अपने उत्तरदायित्व और सरोकारों को भूलता जा रहा है और शुद्ध लाभ कमाने का माध्यम हो गया है। ऐसे अनेकों प्रश्न हैं मीडिया के सामने जिसका जवाब भोपाल मांग रहा है। हिंदी की शीर्ष पत्रिकाएं जैसे हंस (मीडिया विशेषांक, जनवरी 2007); कथादेश (मीडिया विशेषांक, अगस्त 2009); नया ज्ञानोदय (मीडिया विशेषांक 2010) आदि के मीडिया विशेषांक प्रकाशित हुए जिन में गुजरात का गोधरा कांड, मुंबई बम विस्फोट, बाटला हाउस, कोसी का कहर से लेकर अभिषेक बच्चन व ऐश्वर्या की शादी तक की चर्चा की गई पर भोपाल गैस त्रासदी पर किसी को एक टिप्पणी करना तक उचित न लगा। किसी की नजर इस भयानक त्रासदी की तरफ नहीं गई।पुस्तक के आखिरी भाग में गैस त्रासदी पर आधारित महत्वपूर्ण व्यक्तियों से बातचीत के अंश दिए गए हैं, जिनको पढ़ने के बाद त्रासदी के अनेकों अनसुलझे सवालों के जवाब मिलने लगते हैं। कुल मिला कर शोध कार्य होने के बावजूद यह एक उपयोगी और महत्वपूर्ण किताब है जो हमें भोपाल प्रसंग से आगे बढ़ कर मीडिया की भूमिका को समझने का अवसर प्रदान करती है।

समीक्षा/पुस्तक
भोपाल गैस त्रासदी और मीडिया की भूमिकाः सत्या सिंह राठौर; सामयिक प्रकाशन; पृ 224; मूल्यः 300ISBN: 978.81.7138.207.1

ग्लोबलाइजेशन और समाचार का मनोरंजन बन जाना

सुभाष कुमार गौतम
वैश्वीकरण टेक्नॉलॉजी संचालित प्रक्रिया है, जिसने सूचनातंत्र के माध्यम से भौगोलिक दूरियों को कम कर दिया है। कुछ लोगों का मानना है कि ग्लोबलाइजेशन कार्पोरेट इंप्रलिजम है, जो पूंजी और मुनाफा के द्वारा उपभोक्ता का शोषण है।(1) सूचनातंत्र को दो स्थितियों में खास तौर पर महत्वपूर्ण माना जाता है। पहला जब कोई राजनैतिक आंदोलन होता है, दूसरा अर्थव्यस्था में उतार-चढाव या बाजार नियंत्रित अर्थव्यवस्था के समय जब राष्ट्र-राज्य का हस्तक्षेप कम होता है। इसका सबसे बड़ा उदारहण पिछले दिनों मिस्र में लोकतंत्र की मांग को लेकर फेसबुक और ट्विटर के साझा सूचनाओं ने देश में राजनीतिक परिवर्तन की कहानी तैयार की जो बेमिसाल साबित हुई। दूसरी परिघटना 2008 की अमेरिकी मंदी के समय देखी गयी जब अमेरिकी मंदी की खबर पूरी दुनिया में आग की तरह फैल गयी और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को उसने प्रभावित किया। भारत के शेयर बाजार में एफआइआइ के माध्यम से जो पैसा लगा हुआ था वो तेजी के साथ वापस जाने लगा।
टेलीविज़न की खोज पिछली सदी की विस्मयकारी घटना है, जिसने जीवन पद्धति को न केवल प्रभावित किया है बल्कि उसे निर्देशित भी कर रही है। सूचनाएं अब मनुष्य की आवश्यकताओं को भी तय करने लगी है। स्टार प्लस चैनेल पर दिखाये जाने वाले धारावाहिक सास-बहू जो भारतीय सास बहू के रिश्तों के मानक तय करने लगे है, इन सब के पीछे आर्थिक कारण काम कर रहे है। चैनलों का ये सारा खेल टीआरपी और पैसे कमाने की होड़ में चल रहा है। इसका लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा उपभोक्ता तैयार कर उन्हें उपभोक्ता वस्तुओं के तरफ आकृष्ट करना है।
भारत में जब टीवी माध्यम के तौर पर एकमात्र दूरदर्शन हुआ करता था तो उस पर देश-दुनिया की खबरों के अलावा विकास से जुड़ी खबरें, शिक्षा से जुड़ी खबरें और मनोरंजन होता था। 90 के दशक के बाद जब निजी चैनल आये तो नए नए तरीके अपनाये गये, सूचनाओं के माध्यम से उपभोक्तावाद का प्रसार किया जाने लगा। मीडिया को एक प्रकार से नियंत्रित किया जाने लगा, और वह मध्य और उच्च वर्ग के हितों और रूचियों का मंच हो गया है।
प्रिंट माध्यम में विदेशी निवेश को लेकर लगभग 1987 में राजीव गांधी की सरकार में कुछ व्यावसायी घरानों ने दबाव डाला। विदेशी निवेश के लिए समाचार माध्यमों के दरवाजे 2002 में खोल दिए गये। प्रिंट माध्यम में जब विदेशी निवेश शुरू हुआ, वही से अखबार केंद्रीकृत होने लगे। दूसरे देश में क्या घटित हो रहा है, ऐसी खबरों को कवरेज मिल रहा है, लेकिन हमारे आस-पास की घटनाओं पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। अखबारों के केंद्रीकृत होने के साथ-साथ क्षेत्रीय खबरों का लोप होने लगा और उस की जगह अब हत्या, बलात्कार एवं अपराध जगत की खबरों ने ले लिया।
विज्ञापन एजेंसियों और औद्योगिक घरानों के हित को ध्यान में रखकर खबरें तैयार की जाने लगी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पिछले दिनों मिंट अखबार में छपी एक खबर से लिया जा सकता है जिसमें टाटा समूह ने नीरा राडिया टैप कांड के दौरान उनके खिलाफ लिखने वाले मीडिया संगठनों से रिश्ते न रखने की बात की। इसका मतलब विज्ञापन न देने से लेकर खबरें न देना तक हो सकता है। ऐसी स्थिती में सूचना का प्रवाह किन के हित में होगा, यह चिंता का विषय है।
नई प्रौद्योगिकी के आने से समय बदला है। चाहे वे हिन्दी के अखबार हो या अंग्रेजी के सभी, एजेंसियों की खबरों पर आश्रित हो गये है। ऐसा इसलिए ताकि कम से कम मानव श्रम का उपयोग कर अधिक से अधिक आमदनी और मुनाफा कमाया जा सके। खासकर हिन्दी के अखबारों में ये देखने को मिला है कि स्थानीय स्तर पर जो संवादाता रखे जाते है, उनमें प्रशिक्षण का अभाव होता है, अखबारों में उनकी भूमिका एक डाकिये से अधिक कुछ नहीं होती, उनकी पगार बहुत कम होती है, ऐसे में बेहतर रिपोर्ट की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
आज शहर और कस्बों से टेबलाइड अखबार निकाले जाने लगे हैं, उनकी कीमत मात्र एक रूपया है। एक खास वर्ग था जो इन सूचनातंत्र के जाल से दूर था, उन लोगों में अपनी पैठ बनाने के लिए आज बाजार में छोटे अखबार भी आ गये हैं। ठेलेवाले, खोमचेवाले, रिक्शेवाले, और भी अनेकों हाशिये के लोग, जो अखबार खरीद कर पढ़ने में असमर्थ थे, उन तक ये छोटे अखबार पहुंच रहे हैं। ये छोटे अखबारों चटपटी सामग्री और फोटो छापते हैं। इनमें स्थानीय खबरें कम होती हैं। विकास से जुड़ी खबरों के लिए कोई पेज़ नहीं होता। इस अखबार को पढ़ कर हाशिये का समाज उपभोक्ता वस्तुओं के तरफ आकृष्ट हो रहा है तथा तमाम कुंठाओं का शिकार हो रहा है। सूचना का प्रवाह और विकास के प्रवाह दोनों उल्टी दिशा में चल रहे हैं। एक वर्ग ऐसा है जिनका संसाधनों पर एकाधिकार है, यह अमीरी-गरीबी की खयी को बढाने का काम किया है।
1990 के दशक में जहां एक ओर भारत में तेजी से उपग्रह और केबल टेलीविजन का प्रसार हुआ वहीं लगभग उसी तेज़ी से सूचना प्रौद्योगिकी ने भी अपने पांव पसारे।(2) विकसित देशों में प्रौद्योगिकी का आगमन तब हुआ जब वो पूरी तरह विकसित हो गयेथे। भारत में प्रौद्योगिकी के आने से आर्थिक असमानता की खाई बढ़ी हैं। हमें यह दलितों व आदिवासियों की समस्या के रूप में देखने को मिल रहा है, आज भी उनका शोषण और दमन जारी है। हम अपने विकास के मूल भूत ढांचे में सुधार लाये बिना प्रौद्योगिकी को अपनायेंगे तो इस प्रकार की समस्या देखने को मिलेगी।
सूचना के क्षेत्र में इलेक्ट्रानिक माध्यमों, विशेषकर टेलीविजन ने अपनी विराट निर्णायक उपस्थिति दर्ज की। सेटेलाइट युग में प्रवेश करने के साथ ही भारत ग्लोबलाइजेशन की चपेट में आया और दुनिया में तेजी से सूचनाओं का आदान प्रदान प्रारंभ हुआ। आधुनिक सूचनातंत्र की मदद से हम अब अपने तकनीकी पिछड़ेपन को अपनी विशेषता में बदल सकते हैं। हमें आधुनिकीकरण की यात्रा वहां से शुरू नहीं करनी चाहिए जहां से 16वीं सदी में पश्चिमी देशों ने की थी। हमें इसकी शुरूआत उद्योगीकरण के बाद की प्रौद्योगिकी और सामाजिक मूल्यों से करनी चाहिए। इसे एक रचनात्मक चुनौती मानकर भारतीयों की अपनी कला और संस्कृति की नींव पर इसका निर्माण करना चाहिए। इसमें भारतीय कला और संस्कृति की विविधता, जीवंतता और समृद्धि का पूरा खयाल रखा जाना चाहिए।
हम नवीन प्रौद्योगिकी का प्रयोग विशिष्ट वर्ग की संस्कृति और लोक तथा जन-संस्कृति के बीच की दूरी कम करने में कर सकते हैं। विशिष्ट संस्कृति जन-संस्कृति को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए प्रौद्योगिकीय मदद दे सकती है। दूसरी ओर जन-संस्कृति विशिष्ट संस्कृति को अर्थ, गहराई और शीलता दे सकती है।(3)
सूचना क्रांति के उपरांत संस्कृतियों के बीच सहज मेल-मिलाप या संवाद नहीं हो रहा है।(4) भारत में ही देखा जाए तो छोटी संस्कृतियों को बड़ी संस्कृतियों ने दबा दिया है। बडी संस्कृतियों का बोल बाला रह गया है। आज भी आदिवासी अपनी संस्कृति और भाषा को बचाए रखने की जद्दोजहद कर रहे हैं। इसका अहम कारण हाशिये के समाज का मीडिया से वंचित रखना है। आज सूचना के प्रति जितना संवेदनशील आमजन है, उतना विशिष्ट जन नहीं है। पर सूचना के नाम पर आमजन के बीच कैसी सूचना मुहैया हो रही है, यह बहुत मार्के की बात है। सूचनातंत्र का प्रयोग एक हथियार के रूप में किया जा रहा है। सांस्कृतिक युद्ध के माध्यम से बडी संस्कृतियां छोटी संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। ‘संस्कृति इसमें माध्यम की भूमिका निभाती थी। लेकिन अब संस्कृति इस भूमिका में नहीं रह गई है।’(5) टीवी के कार्यक्रमों के माध्यम से ही पश्चिमी संस्कृति का प्रचार प्रसार हो रहा है और उपभोक्ता वस्तुएं खरीदने के तरफ हमारा ध्यान दिला रहे है। पहले कागज के प्रेस उसके बाद टेलीविजन और अब नई तकनीक के रूप में कम्प्यूटर, इन सभी सूचनातंत्र मानव के मूलभूत आवश्यकता का ही परिणाम है। सूचना के प्रारंभिक दौर में प्रेस ने जिस प्रकार अखबारों, पत्रिकाओं आदि के माध्यम से क्रांति लाने का कार्य किया. टेलीविजन ने उसके स्वरूप को दृश्य-श्रव्य माध्यम होने के कारण ज्यादा विस्तृत किया।
पिछले दो दशकों में भारत के टेलीविजन प्रसारण में जो अच्छे-बुरे बदलाव देखे गये उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय संस्कृति पर आसमान से आक्रमण हुआ है। यह आक्रोश हमें नब्बे के दशक के बाद ही सुनाई देता है, जब भारत में उपग्रह और केबल के जरिए बहुराष्ट्रीय व्यापारी टेलीविजन चैनल भारत के कुछ शहरों में देखे जाने लगे।(6) इसके कारण भारतीय परंपराएं व संस्कृतियां ग्लोबल सूचनातंत्र के आक्रमण के सामने बौनी दिखाई देने लगीं। इसका प्रभाव यह रहा कि इलेक्ट्रानिक सूचनातंत्र जो भारत में जनशिक्षा और विकास के मददगार के रूप में लाया गया था, अब कम से कम शहरी लोग इसे मनोरंजन का ही विकल्प मानने लगे थे।(7)
अब इस प्रकार शिक्षा और सूचना का स्थान मनोरंजन ने ले लिया, समाचार भी अब मनोरंजक और चटखारे ढंग से पेश किए जाने लगे। यही नहीं इलेक्ट्रानिक चैनलों की यह हालत है कि वे क्रिमिनल को अभिनेता के तौर पर दिखाने लगे हैं। जैसे मुम्बई के ताज होटल हमले से जुड़े आतंकी मोहम्मद कसाब के मामले में देखा जा सकता है। कसाब से जुडी जो भी खबरें समाचारपत्रों और टीवी चैनलों पर आती हैं उसकी हेडलाइन देखकर पाठक, दर्शक यह नहीं समझ पाता की आखिकर खबर क्या है। इस प्रकार आज के समाचपत्र और टीवी चैनेल सर्कुलेशन और टीआरपी के चक्कर में कुछ ज्यादा ही मसालेदार सामाग्री दिखाने लगे है, जिससे समाचारीय तत्व का लोप हो जाता है। ये सारा का सारा खेल अधिक से अधिक पूंजी उगाही और मुनाफे का है।
संदर्भ-
1. जोर्गे एवं रमेश ठाकुर, ‘द हिंदू’, 10 जनरी 2011
2. पी. सी. जोशी, संस्कृति विकास और संचार क्रांति, ग्रंथशिल्पी, नई दिल्ली, 2001, पृ0 173
3. हेमंत जोशी, ई-प्रशासनः अधूरा है लक्ष्य, योजना, नवंबर 2007, नई दिल्ली, पृ0 25
4. सुभाष धूलिया, सूचना कांति की राजनीति और विचारधारा, नई दिल्ली, 2001, पृ0 14
5. पी. सी. जोशी, संस्कृति विकास और संचार क्रांति, ग्रंथशिल्पी, नई दिल्ली, 2001, पृ0 33
6. मधुकर लेले, भारत में जनसंचार और प्रसारण मीडिया, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ0 151
7. वही, पृ0 151



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